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सट्टा होगा मंजूर तो मिटेगा भ्रष्टाचारः न्यायमूर्ति लोढ़ा

देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा खुद मानते हैं कि स्कूल के बाद क्रिकेट में उनकी ज्यादा रुचि नहीं रही। बतौर न्यायाधीश उन्होंने सिर्फ दो मैच खेले और एक मैच में क्षेत्ररक्षण के दौरान अपना अंगूठा तुड़वा बैठे। लेकिन भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए गठित समिति के अध्यक्ष के तौर पर क्रिकेट में अपनी नई पारी से वह उत्साहित हैं और इसमें कई महत्वपूर्ण सुधार की सिफारिश की है। लोढ़ा समिति की कुछ सिफारिशों से सत्ता पर काबिज कुछ लोगों के अहं को भी ठेस लगी है। उषिनोर मजुमदार को दिए एक इंटरव्यू में न्यायमूर्ति लोढ़ा ने खुलकर बताया कि क्यों क्रिकेट की जागीर प्रथा खत्म होनी चाहिए और सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता मिलनी चाहिए। पेश है बातचीत के मुख्य अंश:
सट्टा होगा मंजूर तो मिटेगा भ्रष्टाचारः न्यायमूर्ति लोढ़ा

जब आपने क्रिकेट में भ्रष्टाचार के बारे में जाना तो आपको कितनी तकलीफ हुई?

आउटलुक ने ही जब 1990 के दशक के अंत में मैच फिक्सिंग का भंडाफोड़ किया था तो पहली बार न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ आयोग द्वारा जांच कराई गई थी। उस वक्त हम इस बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानते थे लेकिन यह खबर पढक़र दुख हुआ। इन वर्षों के दौरान कम ही सही, लेकिन छिटपुट घटनाएं तो होती रहीं। अब मैच फिक्सिंग उतना चलन में नहीं है लेकिन सट्टेबाजी बहुत फैल चुकी है।

सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता क्यों दिलाना चाहते हैं?

अवैध सट्टेबाजी से धन और सत्ता अंडरवर्ल्ड के हाथ में रहती है। इसे सट्टा केंद्रों में उचित दिशा-निर्देशों और लाइसेंसिंग प्रणाली से कानूनी बनाया जा सकता है। इसमें खिलाडिय़ों, मैच अधिकारियों, टीम अधिकारियों और प्रशासकों को हिस्सा नहीं मिलना चाहिए। इसमें कुछ नैतिक समस्याएं हैं लेकिन आपको वक्त के साथ बदलना होगा। अवैध सट्टेबाजी जारी रखने देने के बजाय इसे कानूनी मान्यता देना बेहतर होगा।

क्रिकेट के प्रशासनिक पदों पर बहुत सारे सरकारी अधिकारी, मंत्री और राजनेता क्‍यों कुंडली मार कर बैठे हैं?

सत्ता और ग्लैमर के कारण वे आकर्षित होते हैं। इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में एन. के. पी. साल्वे बीसीसीआई के साथ तभी से जुडऩा चाहते थे जब बोर्ड में पैसा भी नहीं था लेकिन इस खेल के प्रति जुनून के कारण वह इसका हिस्सा बनना चाहते थे। प्रधानमंत्री ने मंडिमंडल के बजाय क्रिकेट प्रशासन में ज्यादा वक्त बिताने के कारण साल्वे की खिंचाई भी की थी। तब अपने जुनून के लिए वह अपना कैबिनेट पद छोडऩे को भी तैयार हो गए थे। लेकिन अब तो सरकारी सेवा और संवैधानिक पदों के लिए पूर्णकालिक समर्पण की जरूरत हो गई है। ऐसे में क्रिकेट प्रशासन के लिए वञ्चत कहां है? वे प्रशासन में रहे बगैर भी क्रिकेट की सेवा कर सकते हैं।

क्रिकेट संघों में भ्रष्टाचार और हितों का टकराव कितनी दूर तक फैल चुका है?

बीसीसीआई हर साल राज्य क्रिकेट संघों को 20 से 30 करोड़ रुपये देता है। कोई नहीं जानता कि यह कैसे खर्च होता है और वोटिंग अधिकार पाने के लिए इसका कैसे दुरुपयोग होता है। इन संघों पर बीसीसीआई की कोई चौकसी नहीं है और वह जांच के बगैर ही संघों की बैलेंस शीट स्वीकार कर लेता है। बीसीसीआई यह जांचने की भी कोशिश नहीं करता कि इन पैसों को अधोसंचना या अन्य उद्देश्यों के लिए खर्च किया गया है या नहीं।

बीसीसीआई और राज्य संघों को आरटीआई दायरे में क्यों लाना चाहते हैं?

इसके लिए हमने कुछ अन्य सिफारिशें की है। लेकिन आरटीआई का सुझाव दो कारणों से दिया है: पहला, उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि बीसीसीआई सार्वजनिक कार्यों से इनकार करता है, दूसरा, शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि केंद्र और राज्यों की तिकड़मी मंजूरी से बीसीसीआई का क्रिकेट पर एकाधिकार हो गया है। भले ही इसे आरटीआई दायरे में न लाया जा सके लेकिन लोगों को इसकी कार्यप्रणाली और गतिविधियों के बारे में जानने का अधिकार है। इसलिए बीसीसीआई को आरटीआई के दायरे में लाने पर विधायिका को विचार करना चाहिए।

क्रिकेट संघों में किस तरह का भ्रष्टाचार और सांठगांठ देखते हैं?

राज्य संघों के पास वोटिंग सदस्यों के रूप में कई क्लब हैं। क्लब टीमें राज्य संघों के प्रशासकों द्वारा संचालित होती हैं और वे क्लबों को धन देते हैं। एक स्टेडियम बनाने का खर्च 250 से 300 करोड़ रुपये पड़ता है लेकिन कुछ राज्यों में ऐसे लोगों ने परियोजना अधूरी ही छोड़ दी है। बीसीसीआई इतना धन देने के बाद भी इन चीजों पर ध्यान नहीं देता। हरियाणा और सौराष्ट्र जैसे कई राज्य संघों का गठन ऐसे हुआ है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुछ ही परिवारों का इन पर नियंत्रण रहा है। उन्हीं लोगों को आजीवन बारी-बारी से अध्यक्ष पद और कार्यालय मिलते रहते हैं।

आपकी समिति के लिए सबसे कठिन कार्य क्या लगा था?

सबसे कठिन काम एक उचित ढांचा पेश करना रहा। वोटिंग अधिकारों में असमानता है। कुछ राज्यों में ज्यादा वोट हैं, जैसे महाराष्ट्र क्रिकेट संघ के तीन वोट हैं। प्रशासन इसका फायदा अपने हित में उठाता है। राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी राष्ट्रीय संघों को समान अधिकार मिलने चाहिए। ऑस्ट्रेलिया में भी यही समस्या है। समिति गठित होने के बाद भी पिछले 100 वर्षों से उनके छह राज्यों के 14 वोट हैं। उनके पास कई टीमें हो सकती हैं लेकिन प्रति राज्य को एक ही वोट देने का अधिकार होना चाहिए।

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