उनका कहना था कि यह सिर्फ दो टीमों का मसला नहीं है। क्रिकेट की राजनीति में शामिल हर बंदे को पता है कि दरअसल यह इंडियन प्रीमियर लीग नहीं बल्कि इंडियन सट्टा लीग है। उन्होंने चिंता जताई कि बीसीसीआई ने अगर आईपीएल को बंद नहीं किया तो देश में क्रिकेट की साख ऐसी खत्म होगी कि फिर कोई किसी खिलाड़ी पर भरोसा नहीं करेगा।
उनकी चिंता गैर वाजिब नहीं है। जरा ध्यान दें कि पूरी दुनिया में क्रिकेट का नक्शा बदल देने वाली इस लीग को किस तरह चलाया जा रहा है। जिस चेन्नई सुपर किंग पर न्यायमूर्ति लोढा कमेटी ने दो साल का प्रतिबंध लगाया है उस टीम का स्वामित्व उसके वर्तमान मालिक इंडिया सीमेंट ने जो बीसीसीआई के पूर्व प्रमुख एन श्रीनिवासन की कंपनी है और जिसमें चेन्नई के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी भी एक डायरेक्टर है, महज पांच लाख रुपये में एक ट्रस्ट को स्थानांतरिक करने का प्रस्ताव किया है। जाहिर है कि यह ट्रस्ट भी श्रीनिवासन की जेबी संस्था ही होगी। यानी कुछ भी हो जाए श्रीनिवासन जैसे लोग, जिन्हें बार-बार सुप्रीम कोर्ट से फटकार मिली है, क्रिकेट में अपना दखल बनाए रखेंगे। क्या आपको लगता है कि ऐसे में चेन्नई की टीम श्रीनि के दामाद गुरुनाथ मयप्पन के प्रभाव से बाहर आ पाएगी, भले ही मयप्पन का चेहरा टीम के आस-पास दिखे या न दिखे।
भारतीय क्रिकेट टीम को वर्ष 1983 का एकदिवसीय विश्व कप जिताने वाली टीम का हिस्सा रहे वर्तमान भाजपा सांसद कीर्ति आजाद खुलकर कहते हैं कि हालात इतने खराब हो चुके थे कि बीसीसीआई (जिसे आजाद बोर्ड ऑफ कोजी क्लब ऑफ इंडिया) के आका तो खुद को इस देश के कानून से ऊपर समझने लगे थे। आजाद का कहना है कि लोढ़ा कमेटी का फैसला स्वागत योग्य है क्योंकि इससे कम से कम बीसीसीआई पर कुछ दबाव तो बनेगा। पूर्व क्रिकेटर का आरोप है कि खासकर यूपीए सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल के दौरान तो बीसीसीआई इतनी ढीठ हो गई थी कि क्रिकेट से जुड़े उनके कई सवालों का भी बोर्ड ने कोई जवाब नहीं दिया। उनका साफ कहना है कि आईपीएल में सट्टेबाजी के हर आरोप पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए और सबसे पहले तो उस सीलबंद लिफाफे को खोला जाना चाहिए जो इस वक्त सुप्रीम कोर्ट के पास है और बताया जाता है कि उसमें कुछ खिलाड़ियों के नाम हैं जो सट्टेबाजी में लिप्त हैं। अगर सच में ऐसा है तो उनका नाम उनके खिलाफ हुई कार्रवाई के बारे में जानने का हक देश को है। कीर्ति आजाद उन चंद लोगों में शुमार हैं जो आईपीएल की शुरुआत से ही इसकी चकाचौंध में नहीं फंसे और लगातार इसमें हो रही गड़बड़ियों के बारे में सार्वजनिक रूप से और संसद में भी सवाल उठाते रहे हैं।
दरअसल आईपीएल में सट्टेबाजी के आरोप इसके पहले सत्र से ही लगते रहे हैं। जब सबसे कम सितारा खिलाड़ियों और सबसे कम चर्चित नामों वाली राजस्थान रॉयल्स की टीम ने इसका पहला सत्र जीत लिया था तब सबकी भवें उठी थीं कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। हालांकि तब लोगों ने इस मुद्दे को ज्यादा तूल नहीं दिया क्योंकि यह आईपीएल की शुरुआत थी और क्रिकेट को वैसे भी अनिश्चितताओं का खेल माना जाता है। हालांकि इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि तब आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी थे और वह बीसीसीआई में राजस्थान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। क्रिकेट की राजनीति से जुड़े एक शख्स कहते हैं कि आईपीएल शुरू होने से पहले ही जब इसके स्वरूप पर चर्चा हो रही थी तभी टीमों के संभावित मालिकों के यह पूछने पर कि आखिर उन्हें इतनी कमाई कैसे होगी कि वह खिलाड़ियों, सपोर्ट स्टाफ तथा प्रशासनिक स्टाफ को करोड़ों रुपये देने के बाद अपने लिए भी कुछ बचा पाएं, उन्हें बताया गया कि उनकी कमाई दरअसल सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग से होगी। यहां यह ध्यान रखें की इस वर्ष आईपीएल की कुल पुरस्कार राशि 40 करोड़ रुपये थी जिसमें विजेता को 15 करोड़ रुपये, उप विजेता को 10 करोड़ रुपये और तीसरे तथा चौथे स्थान की टीमों को 7.5 करोड़ रुपये प्रत्येक दिए गए। इसके नीचे की चारों टीमों को कोई राशि नहीं मिली। सीधा सा सवाल है कि फिर ये टीमें किस तरह अपना खर्च चलाती हैं और पूरे आयोजन पर होने वाला करोड़ों रुपया कहां से आता है। यहां ये भी देखा जाना चाहिए कि टिकटों से बिक्री की आय नगण्य है क्योंकि अधिकांश टिकट मुफ्त पास के रूप में ही बांटे जाते हैं। बीसीसीआई का तर्क है कि टीवी प्रसारण अधिकार का पैसा टीम मालिकों में बांटा जाता है मगर सवाल है कि क्या यह इतनी बड़ी राशि है कि आयोजन का पूरा खर्च निकालने, खिलाड़ियों को करोड़ों रुपये देने के बाद भी टीम मालिकों को इतना पैसा मिल जाए कि श्रीनिवासन जैसे बड़े कारोबारी भी अपनी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा को दांव पर लगा कर इस लीग में बने रहने का प्रयास करें?
शायद नहीं। तो फिर पैसा आता कहां से है। जाहिर है कि पहला ज्ञात स्रोत तो फिक्सिंग ही हो सकता है और दूसरा और ज्यादा डरावना स्रोत है काला धन। प्रवर्तन निदेशालय कई टीमों में काले धन के निवेश की जांच इस लीग की शुरुआत के समय से ही कर रहा है। ललित मोदी भी निदेशालय की जांच के कारण ही देश छोड़कर भागे हुए हैं। दरअसल इस लीग से जुड़े जितने भी लोग हैं वह सभी बड़े कारोबारी हैं और फ्रंट के रूप में सबने या तो बॉलीवुड या अन्य किसी चर्चित चेहरे को आगे बढ़ा रखा है जबकि इन चर्चित चेहरों का मालिकाना हक बेहद कम है। जाहिर है कि असली खेल पर्दे के पीछे से बड़े लोग कर रहे हैं।
जैसा कि कीर्ति आजाद कहते हैं, बीसीसीआई ने जानकारी को इतने पर्दों में छिपा रखा है कि वह सरकार या किसी तीसरे पक्ष की किसी भी तरह की स्क्रूटनी की मंजूरी नहीं देता। अगर कोई बोर्ड से जुड़े किसी मुद्दे को उठाता है तो उसे कानूनी झमेलों में इस तरह फंसा दिया जाता है कि वह खुद पनाह मांग लेता है। इसके लिए बोर्ड अपने वकीलों की मदद लेता है और यह वकील भी किसी मंत्री या सांसद के बच्चे होते हैं। यानी अपने आलोचकों का मुंह भी बंद हो गया और मंत्री-सांसद भी उपकृत हो गए।
ऐसे में जस्टिस लोढ़ा कमेटी का फैसला और कुछ करे न करे, बीसीसीआई के आकाओं पर कम से कम इतना दबाव तो डालेगा ही कि वह इस मामले में कार्रवाई करती नजर आए। हालांकि अतीत में तो बीसीसीआई की खाल इस मामले में मोटी ही रही है और किसी तरह के दबाव का कोई असर उसपर नहीं हुआ है।