Advertisement

आवरण कथा/इंटरव्यू: ‘नदी अपनी जगह लौट आती है’

उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के पहाड़ों, और राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश,...
आवरण कथा/इंटरव्यू: ‘नदी अपनी जगह लौट आती है’

उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के पहाड़ों, और राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार के मैदानी इलाकों में भूस्खलन और बाढ़ की विभीषिका जारी है

उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के पहाड़ों, और राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार के मैदानी इलाकों में भूस्‍खलन और बाढ़ की विभीषिका जारी है। पिछले कुछ साल में इनसे होने वाली तबाही की तीव्रता बढ़ी है। आखिर क्या वजह है कि हम बाढ़ की स्थिति का समय से पहले अंदाज नहीं लगा पाते। क्या इसकी वजह सभी सरकारी संस्थाओं में तालमेल की कमी है या कुछ और? बाढ़ और बाढ़ से जुड़े सभी अहम मुद्दों पर आउटलुक के राजीव नयन चतुर्वेदी की वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, देहरादून के वैज्ञानिक और जल-संसाधन विशेषज्ञ डॉ. अनिल कुमार से खास बातचीत। कुछ अंशः

पिछले कुछ साल से रिपोर्ट आ रही हैं कि बारिश की तीव्रता और आवृत्ति दोनों बढ़ रही हैं। हिमालय और मैदानी इलाकों में बाढ़ की क्या यही वजह है?

बिल्कुल। मौसम विभाग के 1971 से 2024 तक के आंकड़े बताते हैं कि बारिश के दिनों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं बढ़ी है, लेकिन बारिश की तीव्रता बढ़ गई है। यानी कम समय में बहुत ज्यादा पानी बरस रहा है। हिमाचल और उत्तराखंड में भारी बारिश से जुड़ी घटनाओं की संख्या भी लगातार बढ़ी है। धराली की घटना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

बाढ़ आने पर कहा जाता है कि बादल फट गया, लेकिन आइएमडी अपनी रिपोर्ट में बादल फटने के जिक्र नहीं करता है। तब फिर धराली में जो हुआ वह क्या था?

आसान शब्दों में कहें, तो अगर किसी जगह एक घंटे के भीतर 100 एमएम से ज्यादा बारिश हुई, तो वह बादल फटने के श्रेणी में आता है। आइएमडी का सेंटर थोड़ा निचले हिस्से, जैसे हर्षिल आदि में है। वाडिया इंस्टिट्यूट उनसे थोड़े ऊपरी इलाके में है। हमारे डेटा के मुताबिक, धराली के ऊपरी हिस्से में पिछले 24 घंटे में 200 एमएम से ज्यादा बारिश हुई। 24 घंटे के लिहाज से 200 एमएम बारिश ज्यादा नहीं है। लेकिन इसकी तीव्रता ज्यादा थी। इससे ढलान धसकने लगे। ऊपर के हिस्सों में ग्लेशियर के पास जमा मिट्टी-पत्थर (जिन्हें मोरेन कहते हैं) और पहले से ढीला पड़ा मलबा (सेडिमेंट्स) बारिश से नीचे बहने लगा। इससे तबाही ज्यादा हुई। उस क्षेत्र की जमीन बहुत संवेदनशील है, इसलिए हालात और बिगड़ गए। यही कारण केदारनाथ से लेकर धराली तक की घटनाओं में दिखाई देता है।

आपने कहा, धराली के ऊपरी हिस्से में सेडिमेंट ज्यादा हैं। सरल भाषा में इसे क्या कहेंगे, ये क्यों अहम हैं?

सेडीमेंट दरअसल मिट्टी और पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़े होते हैं। हिमालय जैसे पहाड़ी इलाकों में ढलान टूटने, भूस्खलन और जमीन हिलने (टेक्टोनिक गतिविधि) से ये बड़ी मात्रा में इकट्ठा हो जाते हैं। गंगोत्री, हर्षिल और धराली जैसे इलाकों में ये ज्यादा हैं। तेज बारिश में यही मिट्टी-पत्थर पानी के साथ बहकर नदी में पहुंचते हैं। इससे नदी का तल ऊपर उठ जाता है, सड़कें टूट जाती हैं और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।

हिमालयी क्षेत्रों में बाढ़ जैसी आपदाएं ज्यादा हो रही हैं। ये प्राकृतिक हैं या इनसानी गतिविधि बढ़ने के कारण?

दोनों का असर है। हिमालय संवेदनशील क्षेत्र है। 1971 के बाद से यहां का औसत तापमान 1.3 डिग्री बढ़ गया है, जबकि पूरे भारत में यह सिर्फ 0.7 डिग्री बढ़ा। यानी हिमालय पर असर दोगुना है। यही वजह है कि यहां बारिश और बाढ़ की घटनाएं बढ़ी हैं। इसके अलावा इनसानी गतिविधियां भी असर डाल रही हैं। पहले लोग एक खास ऊंचाई (एलिवेशन) पर रहते थे, अब सड़कों, पर्यटन और नई बस्तियों के कारण नदी के पास और निचले इलाकों में भी बसने लगे हैं। नदी कभी भी अपना इलाका वापस ले सकती है। बाढ़ पहले भी आती थी, लेकिन तब जान-माल का नुकसान इतना नहीं होता था।

बाढ़ से होने वाले जान-माल के नुकसान से बचने के लिए कैसी तैयारी होनी चाहिए?

इसके लिए राज्य नहीं बल्कि जिला स्तर पर तैयारी करनी होगी। अर्ली वॉर्निंग सिस्टम सुदृढ़ होने चाहिए। ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन को मजबूत करना होगा। विकास कब, कहां और कितना जरूरी है, इसका ध्यान रखना जरूरी है। हिमालयी अपस्ट्रीम में कब, कहां क्या हुआ है, इसका रीयल टाइम डेटा मिलना चाहिए। बांधों का मैनेजमेंट सबसे अहम है। सामुदायिक भागीदारी बढ़ाना चाहिए।

लगभग सभी ऐसे ही उपायों की बात करते हैं। लेकिन अक्सर समय पर ये लागू नहीं हो पाते। सिक्किम में जो हादसा हुआ था, उसमें पहले से चेतावनियां आ रही थीं। लेकिन समय पर एक्शन नहीं लिया गया। ये लापरवाही नहीं है?

इसे लापरवाही कहना ठीक नहीं है। संस्थाएं कभी भी आपदाएं नहीं चाहतीं। ऋषि गंगा और धौली गंगा में पहले जो हादसे हुए, उन्होंने हमें सबक सिखाया। तपोवन में 1970 के बाद लंबे समय तक बड़ी बाढ़ नहीं आई थी, लेकिन एक बार अचानक ठंड के मौसम में बाढ़ आ गई। इससे पता चला कि यह क्षेत्र संवेदनशील है और फिर कार्रवाई की गई। इसरो, वाडिया इंस्टीट्यूट जैसी संस्थाएं लगातार ग्लेशियर से कितना बर्फ पिघल रहा है, झरनों की स्थिति क्या है और स्नो कवर कितना है, इसके आंकड़े इकट्ठा कर रही हैं। आइएमडी ने झीलों की मॉनिटरिंग शुरू की है। ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन और अर्ली वॉर्निंग सिस्टम पर काम चल रहा है। भारी टेंडर निकाले गए हैं। आने वाले समय में इससे बेहतर निगरानी संभव होगी।

आपदा के बाद राहत पैकेज की घोषणाएं, आपदा से पहले तैयारी, दोनों में से सबसे अधिक असरकारी क्या है?

इस बारे में मैं पूरी जानकारी नहीं रखता, लेकिन वैज्ञानिक के तौर पर कह सकता हूं कि आपदा आने से पहले तैयारी करना बेहतर तरीका है। कई जगह ऐसा होता भी है। उदाहरण के लिए, अरुणाचल प्रदेश में बाढ़ की चेतावनी मिली थी। बाढ़ आई, लेकिन चेतावनी के आधार पर फैसला किया गया और कार्रवाई सफल रही।

माना जाता है कि संस्थाओं में तालमेल की कमी से आपदा संबंधी कार्रवाई में देर होती है, क्योंकि काम अलग-अलग विभागों में बंटा होता है?

मैं ऐसा नहीं मानता। आइएमडी और एनडीएमए के बीच तालमेल बहुत मजबूत है। यही वजह है कि बारिश होने से चार घंटे पहले ही मोबाइल पर संदेश आ जाते हैं। बारिश कितनी होगी और कब तक चलेगी, यह पूरी तरह अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अब जिला और तहसील स्तर को राज्य के संचार तंत्र से जोड़ा जा रहा है, ताकि सूचना में देर न हो। धराली के बाद मोबाइल टावर का नेटवर्क बंद हो गया, जिससे बचाव कार्य में कठिनाई हुई। अब ऐसा सिस्टम विकसित किया जा रहा है कि आप चाहे किसी भी कंपनी के यूजर हों, आपदा के कारण अगर नेटवर्क नहीं आता, तो जो नेटवर्क काम कर रहा होगा मोबाइल उससे कनेक्ट रह सके।

पहाड़ों पर विकास और निर्माण में किस तरह संतुलन लाया जा सकता है?

यह जानकारी जुटा कर कि पहाड़ कितना भार सह सकते हैं। इसी आधार पर यहां आने वाले यात्रियों की संख्या भी तय होनी चाहिए। कहां कितना निर्माण हो सकता है, इसके नियम होने चाहिए। और इसका सख्ती से पालन होना चाहिए।

शहरी बाढ़ की तीव्रता भी बढ़ रही है? इसके कारण?

इसके पीछे नालों की सफाई न होना, नदी क्षेत्रों का अतिक्रमण, कुओं और तालाबों की भराई है। पंजाब में हालिया बाढ़ रावी और सतलज जैसी नदियों में पानी बढ़ने के कारण हुई। इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से भी जोड़ा जा सकता है। पंजाब और हरियाणा में कई पुरानी नदियां सूख चुकी थीं और उन जगहों पर अब खेती हो रही थी। नदी साल बीतने पर भी अपना क्षेत्र वापस ले लेती है। नदी अपनी जगह लौट आती है, यही बाढ़ है। सरस्वती नदी से जुड़े अध्ययन बताते हैं कि जब भी हरियाणा और पंजाब में बाढ़ आती है, तो हिमालयी क्षेत्रों में भी बाढ़ की स्थिति बनी रहती है। यानी दोनों जगहें आपस में जुड़ी हुई हैं।

 

(वैज्ञानिक और जल-संसाधन विशेषज्ञ डॉ. अनिल कुमार)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
  Close Ad