ज्ञान की देवी सरस्वती के हाथों में वीणा है। यह इस बात का प्रमाण है कि स्त्रियां आदिकाल से संगीत से जुड़ी रही हैं। उन्होंने पुरुष-सत्ता की तमाम बंदिशों के बावजूद संगीत, साहित्य, कला को स्त्री सशक्तीकरण का औजार बनाया और उसमें लालित्य, सौंदर्य और कोमलता घोली। प्रसिद्घ कवि, आलोचक, संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने पहले रामेश्वरी नेहरू स्मृति व्याख्यान में संगीत-साहित्य में स्त्रियों के अनोखे अवदान की विस्तार से चर्चा की, जिनके योगदान को अमूमन भुला दिया जाता है। रामेश्वरी नेहरू भी इसी उपेक्षा का शिकार रही हैं। पंडित मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू के अवदान से लोग परिचित हैं पर नेहरू खानदान की स्त्रियों ने भी आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान दिया, जिनकी चर्चा कम ही होती है। रामेश्वरी नेहरू स्वाधीनता सेनानी, समाज सेवी और पत्रकार भी थी। उन्होंने हरिजन उद्धार के लिए भी काम किया था। उनकी सक्रियता का अंदाज इसी से लगता है कि वे 84 संस्थाओं से जुड़ी थीं। हिंदी साहित्य की दुनिया में 1902 में शुरू हुई सरस्वती की चर्चा तो होती रहीं पर 1909 में रामेश्वरी नेहरू के संपादन में पत्रिका स्त्री दर्पण की नहीं हुई। गत दिनों स्त्री दर्पण डिजिटल मंच ने रामेश्वरी नेहरू की 140वीं जयंती पर पहली व्याख्यानमाला आयोजित की।
वाजपेयी ने कहा कि संगीत की दुनिया में स्त्रियों को अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा क्योंकि उन पर पितृसत्तात्मक समाज की बंदिशें थी। कालांतर में उन्होंने पुरुष कलाकारों को पीछे छोड़ दिया और कथक में तो पुरुषों को अपदस्थ भी कर दिया। उन्होंने घर-परिवार, शादी-ब्याह और लोक अनुष्ठानों से लेकर फिल्मों में स्त्रियों की भागीदारी का जिक्र करते हुए कहा कि बीसवीं सदी में लता मंगेशकर सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतीक ही बन गईं। जाहिर है, स्त्री के लिए संगीत की साधना करना पुरुष कलाकार की तुलना में अधिक मुश्किल है।

पुस्तक विमोचन
कार्यक्रम में भूली बिसरी 33 गायिकाओं पर लिखी गई कविताओं की किताब तवायफनामा पर आधारित नृत्य नाटिका हुई, तो सवाल उठा कि अठाहरवीं सदी के मध्य में कोठे पर गानेवाली तवायफ देश की बड़ी टैक्सपेयर थीं। देश के निर्माण में उनका भी योगदान था। देशप्रेम के जज्बे से वे भी लबरेज थीं, समाज सेवा करती थीं। कविता और शायरी भी करती थीं। ठुमरी दादरा भी गाती थीं फिर उन्हें तवायफ क्यों कहा गया? बनारस घराने की गायिका और सविता देवी की शिष्या मीनाक्षी प्रसाद ने यह वाजिब सवाल उठाया। इसका जवाब आज भी न तो इतिहास के पास है न समाज के पास।
इस अवसर पर युवा नर्तकी सोमा बनर्जी ने इस नृत्य नाटिका में किवदंती बन चुकी गायिका गौहर जान से लेकर गरीबी और तंगहाली झेलनेवाली असगरी बाई तक 33 भूली बिसरी तवायफ गायिकाओं को मंच पर एक बार फिर से नृत्य संगीत के जरिये साकार किया गया। सोमा बनर्जी के नेतृत्व में 30 से अधिक कलाकारों ने इस ऐतिहासिक यात्रा को स्वर और दृश्य में मंच पर पेश किया गया।
1902 में गौहर जान की पहली ग्रामोफोन रिकार्डिंग से लेकर जानकी बाई, बिब्बो रसूलन बाई, तमंचा जान, रतन बाई, छमिया बाई, दिलीपा बाई, विद्याधरी, हुस्ना जान, ढेला बाई, अख्तरी बाई को इस नृत्य नाटिका में दिखाया गया। अंत में नृत्य मंडली की 30 नृत्यांगनाओं ने आसमान में उड़ती परियों की तरह इन गायिकाओं की उड़ान मुक्ति आजादी को पेश कर अद्भुत दृश्य रच दिया। पहली बार इतनी बड़ी संख्या में इन तवायफ गायिकाओं के इतिहास को मंच पर एक साथ पेश किया गया। यह नृत्य नाटिका इस अर्थ में अलग थी कि इसमें एक तरह से पूरा इतिहास प्रस्तुत था।