वह सुरंग नहीं, उम्मीदों का एक ब्लैकहोल थी। सूरज की रोशनी भी जहां पहुंचकर मर जाती थी। इसीलिए हमेशा से इस पर केवल गरीबों का अख्तियार रहा, जो अपना पेट पालने के लिए खतरे को समझते हुए भी उसे उठाते रहे। इस बार वे 41 गरीब मजदूर थे। उनकी कहानी अलग-अलग देस-दुनिया से अपना घर छोड़कर बाहर जाने वाले लोगों की दास्तान है। सुरंग के बाहर लोगों की निगाहें चौकस थीं। परिवार थे। राहतकर्मी थे। बाकी हम जैसों की नजर टीवी और मीडिया पर गड़ी थी। भीतर मलबे और धूल की घुटन में फंसे ज्यादातर नौजवान थे, बीसेक साल के मजदूर, जिनकी सांसों की डोर उनके अतीत और मुस्तकबिल के बीच लड़खड़ा रही थी। वर्तमान पर नीम अंधेरे की चादर थी। उसके भीतर वे एक-दूसरे को थामे हुए थे। उनके पास कुछ ताश के पत्ते थे जो उन्होंने कागज काट के बनाए थे। इन पत्तों से बारी-बारी वे अपनी किस्मत को फेंट रहे थे। इस तरह बची-खुची हवा में एक उम्मीद की लौ को जगाए हुए थे, ताकि जेहन में यह खयाल न आने पाए कि अगर कोई नहीं आया या उन्हें निकाला नहीं जा सका तब क्या होगा। पत्ते, लूडो, और ऐसी ही जुगत से किसी तरह उन्होंने मौत को अपने से एक हाथ दूर रखा।
कागज के टुकड़ों पर रेखाएं और संख्याएं बनाकर उन्हें ताश के पत्तों में तब्दील करने वाले रांची के खैराबेरा गांव के अनिल बेड़िया 28 नवंबर को बाहर की रोशनी देखने वाले वाले पहले शख्स थे। यह उन्हीं की मेधा थी जो सबके काम आई। बिलकुल ऐसी ही कहानी चिली के अटाकामा इलाके में 2010 में घटी थी जहां अचानक धंसी सोने और ताम्बे की खदान में फंसे 33 मजदूरों को ताश के पत्तों ने बचाया था। यश चोपड़ा की फिल्म काला पत्थर में कोयला खदान मजदूर राणा को भी पत्तों ने ही बचाया था, जिसका किरदार मैकमोहन ने निभाया था।
बेड़िया और उनके साथियों के लिए भी पत्ते जीवनदान बने। झारखंड के कर्रा ब्लॉक निवासी चमरा उरांव बताते हैं, “हम लोग समय काटने के लिए गप करते या लूडो खेलते थे। कोई दिन पैर सीधा करने के लिए हम लोग टहलते भी थे।”
सुरंग में फंसे मजदूरों का हर दिन उम्मीद में बीतता था
नायक गब्बर सिंह
यह हादसा तब हुआ जब अचानक ढीले मलबे और ताजे टूटे पत्थरों की आवक ने मजदूरों को हिमालय के गर्भ में कैद कर दिया। इसके ठीक बाद पाताल से एक नायक उभरा। नाम था ‘गब्बर सिंह’ नेगी। शोले का गब्बर सिंह हमें याद है। वह खलनायक था। इस घटना ने हमेशा के लिए ‘गब्बर सिंह’ को अदम्य साहस का नायकीय प्रतीक बना डाला है।
हादसे के तुरंत बाद 40 मजदूरों को जिसने अपने शब्दों से ढांढस बंधाया, वह पौड़ी गढ़वाल का 51 वर्षीय फोरमैन गब्बर सिंह नेगी था। उसके बाद से वह इनका अघोषित नेता बन गया। नेगी ने आधी जिंदगी सिक्किम से लेकर हिमाचल, अरुणाचल और उत्तराखंड में जमीन के नीचे सुरंग खोदने में काटी थी। सिलक्यारा-बरकोट की निर्माणाधीन सुरंग की गहराई में उसने पहले ही दिन से चीजों को अपने हाथ में ले लिया।
गब्बर सिंह ने अपने लोगों से वादा किया कि जब कभी राहत और बचाव कार्य शुरू होगा, सुरंग से बाहर निकलने वाला वह आखिरी शख्स होगा। उसने वादा निभाया। 28 नवंबर को वह सबसे अंत में बाहर निकला, जब सैकड़ों घंटों के सामूहिक प्रयास के बाद बचाव टीम ने इस देश की अटकी हुई सांस को राहत की मोहलत दी।
अंधेरे से झांकती रोशनी
5जी युग में इस समूचे अभियान के दौरान महज छह इंच की एक धातु की पाइप भीतर और बाहर के बीच संवाद-संपर्क का माध्यम बनी रही। कई बार जब बचाव कार्य नाकाम हो गया तब गब्बर सिंह ने अपने बेटे आकाश को इसी पाइप के रास्ते कहा था, “घर जाकर मां और दादी का खयाल रखो। मैं अकेला नहीं हूं यहां, मेरे साथ 41 लोगों का मजबूत परिवार है लेकिन तुम्हारी मां और दादी घर पर अकेले हैं।” बिहार के 28 वर्षीय सबा अहमद भी फंसे हुए मजदूर साथियों के लिए प्रेरणा का स्रोत थे। सबा उन्हें ‘हलकी फुलकी गप और खेलों में’ फंसाए हुए थे। नेगी और सबा ने साथियों को योग करवाया, ध्यान लगवाया और उनकी उम्मीदों को अंधेरे में भटकने का मौका ही नहीं दिया। बचने के बाद एक मजदूर जय प्रकाश ने बताया, “उस घबराहट में वे दोनों अपने आप हमारे नेता बन गए थे।”
हिमाचल प्रदेश के रहने वाले 20 साल के नौजवान विशाल सिंह जैसों के लिए तो गब्बर सिंह का संयम बहुत कारगर साबित हुआ। विशाल का परिवार मंडी जिले के बगोट में बकरी चराता है। माल असबाब के नाम पर परिवार के पास जो कुछ भी है उसमें विशाल की एक तस्वीर भी है, जिसमें वह काली स्लीवलेस टीशर्ट पहने हुए है और उस पर लाल रंग से लिखा है ‘डेंजरस’ (खतरनाक)।
विशाल कहते हैं, “शुरू के दो-तीन दिन बहुत मुश्किल थे।” बाहर की दुनिया से कटे और बिना किसी आश्वासन के फंसे इन मजदूरों के गले को पत्थरों पर बह रहे सोते तर कर रहे थे। यह उससे पहले की बात है, जब बचावकर्मी उन तक पाइप से खाना, पानी और दवा पहुंचा सके। वह कहता है, “जब खाने पीने का सामान और दवा आने लगी, तब हमे लगा कि और बुरा नहीं होने जा रहा हमारे साथ। इसके अलावा वो लोग (अधिकारी) हमें हौसला भी बंधाते रहे।”
इस दौरान ऊपर तमाम सरकारी एजेंसियां, फौज, केंद्र और राज्यों की आपदा प्रबंधन टीमें, पुलिस, स्वास्थ्य सेवाएं भीतर फंसे मजदूरों को नुकसान पहुंचाए बगैर थोड़ा और भीतर खोदने की कोशिशों में जुटी रहीं।
झारखंड-15
बीते 12 नवंबर को हुए हादसे के बाद शुरुआती एकाध दिन तो चमरा उरांव के लिए बेहद भयावह रहे। तब तक लगातार मलबा रह-रह के गिर रहा था, हालांकि पहाड़ी का एक सिरा कुछ हद तक स्थिर हो चुका था।
वे बताते हैं, “सुरंग धंसने के बाद एकाध दिन बहुत डरावने रहे क्योंकि मलबा गिर रहा था। शुरुआत में हम घबराये हुए थे, लेकिन समय बीतने के साथ हमारे भीतर उम्मीद बंधी।” अच्छी बात यह थी कि जमीन के नीचे वाली खोह करीब दो किलोमीटर लंबी थी जहां फंसे हुए मजदूरों को टहलने की सुविधा थी।
यहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर झारखंड के गुमडू गांव के होरो परिवार में 28 नवंबर को रात आठ बजे फोन की घंटी बजी। फोन सनरती होरो ने उठाया। उस पार उनके पति (21 वर्षीय) विजय थे। उनकी आवाज में राहत थी। चार सौ घंटे बाद वे अपने परिवार से बात कर रहे थे। सनरती को भी सांस में सांस आई थी।
सनरती बताती है, “बहुत कम देर बात किए। बस इतना बताए कि वो ठीक हैं। वो लोग एम्बुलेंस में थे और अस्पताल जा रहे थे। उनकी आवाज सुनकर हमें बहुत सुकून मिला। उनके मां-बाप तो उनकी आवाज सुनकर रोने लगे। सब लोग ठीक हैं, बस इसी की खुशी है।”
विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स
सुरंग में फंसे 15 मजदूर झारखंड से थे। आठ उत्तर प्रदेश, पांच-पांच बिहार और ओडिशा, तीन पश्चिम बंगाल, दो-दो असम और उत्तराखंड और एक हिमाचल प्रदेश से था। ये वही राज्य हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं। अपने गांवों में काम के टोटे के चलते यहां के लोग बाहर काम ढूंढने चले जाते हैं। इनके परिवारों का संघर्ष दो जून की रोटी जुटाने से भी कहीं बड़ा है।
झारखंड से बड़े पैमाने पर पलायन होता है, लेकिन सरकारी आंकड़े इस बारे में सही तस्वीर नहीं दिखाते। जब कोरोना के चलते लगाए गए लॉकडाउन के दौरान बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर लौट कर अपने गृहराज्य जाने लगे, तब पहली बार झारखंड सरकार ने उनकी गिनती शुरू की थी। सरकारी आंकड़ों की मानें तो झारखंड के कोई दसेक लाख लोग देश के दूसरे हिस्सों में मजदूरी और काम कर रहे हैं। सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर 1.11 करोड़ से ज्यादा श्रमिक पंजीकृत हैं।
इनमें से ज्यादातर लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इन्हें प्रोविडेंट फंड या तय मासिक वेतन जैसी सुविधाएं नहीं मिलती हैं। पहले राज्य से पलायन मौसमी हुआ करता था। लोग बाहर काम पर जाते और धान बुवाई के सीजन में लौट आते थे, लेकिन बीते 22 वर्षों में 10 बार एक-एक कर के पड़े सूखे ने खेती पर बहुत असर डाला है। इसलिए अब खेती-किसानी से जुड़े लोग भी पलायन को मजबूर हैं। इसके अलावा, गरीबी और बेरोजगारी तो पलायन का कारण हैं ही।
रूबरू रोशनी
छह इंच की पाइप से फंसे हुए मजदूरों को भेजा गया चावल और चना उम्मीद की पहली किरण बनकर पहुंचा। फिर धीरे-धीरे भोजन के पैकेट भेजे जाने लगे। पानी और दवाएं भी। इन पाइपों से मोबाइल फोन और पोर्टेबल चार्जर भी प्रशासन ने भीतर भेजा ताकि बचाव टीम और रिश्तेदारों के साथ मजदूरों का संपर्क करवाया जा सके।
इस दौरान बचाव कार्य में कई बार विफलताएं हाथ लगीं और तकनीकी चुनौतियां आईं। अमेरिका की बनी एक ऑगर मशीन लाई गई ताकि निकलने का रास्ता बनाया जा सके, लेकिन साठ मीटर के मलबे में 45 मीटर भीतर जाकर वह मशीन फंस गई। इस मशीन को दुरुस्त नहीं किया जा सका।
परंपरागत तरीके नाकाम हो चुके थे। मशीन भी फंस चुकी थी। ऐसा लगा कि उम्मीदें दम तोड़ रही हैं। फिर बचावकर्मियों ने एक ऐसा तरीका अपनाया जो प्रतिबंधित किया जा चुका है। इसे रैट होल माइनिंग कहते हैं- संकरी और क्षैतिज खदानों से कोयला निकालने की एक विवादित तकनीक, जिसमें खननकर्मी बमुश्किल एक आदमी के निकलने भर की जगह जितनी खुदाई करते हैं। इससे जुड़े सुरक्षा और पर्यावरणीय खतरों के मद्देनजर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने 2014 में भारत में रैट होल माइनिंग पर रोक लगा दी थी।
आखिरी खुदाई करने वाले रैट होल माइनर
चौबीस रैट होल माइनरों का एक समूह 27 नवंबर को केवल एक खुले मुहाने से उस नर्क के भीतर गया जहां 41 मजदूर फंसे हुए थे। इसके लिए 800 एमएम की एक पाइप को भीतर डाला गया। उनके पास केवल छोटे औजार या ड्रिल थे। इन्हों ने एक-एक इंच मलबे को काट-काट के 10-12 मीटर मलबे को भेदा और निकलने का रास्ता बनाया। फिर एक-एक कर के फंसे हुए मजदूरों को बाहर निकाला गया।
दुनिया भर में मशहूर सुरंग विशेषज्ञ आर्नोल्ड डिक्स कहते हैं, “उनमें से एक को भी कोई चोट नहीं आई थी, न कोई कमजोर था। सब जिंदा और स्वस्थ वापस आए हैं। यही इस अभियान की खूबसूरती है।” डिक्स ने ही सबसे पहले रैट होल माइनिंग का सुझाव दिया था। सारे मजदूरों के निकलने के बाद सबसे अंत में अपना वादा निभाते हुए जब गब्बर सिंह बाहर आए, तो उनके भाई जयमाल उनसे लिपट गए।
सुरंग में फंसे बिहार के मनजीत के पिता चौधरी को देश भर में सबने टीवी पर देखा था, जो लगातार बचाव कार्य के दौरान सुरंग के मुहाने पर बैठे हुए थे। बिहार के बांका जिले की रजनी किस्कू के लिए इंतजार की घडि़यां खत्म हुई थीं। उनके पति विरेंदर भी बाहर आ गए थे।
सबक की ओर
साढ़े चार किलोमीटर लंबी निर्माणाधीन सिलक्यारा-बरकोट सुरंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी चारधाम परियोजना का हिस्सा है जो हिंदू तीर्थ बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में जोड़ेगी। ऐसी भव्य परियोजना के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर देश के पर्यावरणवादी लंबे समय से चेताते रहे हैं। अब जाकर सरकार ने सभी निर्माणाधीन सुरंगों की सोशल ऑडिट करवाने का निर्देश दिया है। इनमें से कोई दर्जन भर सुरंगें हिमालयी क्षेत्र में हैं।
उधर, चमरा उरांव जैसे कई प्रवासियों को जमीन के नीचे बिताए 400 से ज्यादा घंटे के तजुर्बे ने जिंदगी के बारे में दोबारा सोचने का मौका दिया है। वे कहते हैं, “घर जाकर सबसे मिलने का अब मैं इंतजार नहीं कर सकता। एक बार उनसे मिल लूं, फिर आगे के बारे में बात करूंगा और मिलकर तय किया जाएगा कि मुझे उत्तराखंड लौटना है या नहीं।”
(शैलेंद्र गोडियाल के साथ)