अवाक, स्तब्ध, क्षुब्ध!! नए दशक के कतई पहले रविवार की शाम की विचलित कर देने वाली वह तसवीर देश के हर संवेदनशील को शायद लंबे समय तक हैरान-बेचैन करती रहेगी। शायद हमेशा यह सवाल परेशान करता रहेगा कि क्या यह वही देश है, जहां विश्वप्रसिद्ध नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय थे, जिसे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन "बातूनी भारतीयों" का देश कहते हैं? मगर यहां बातें नहीं लाठी-डंडे, ईंट-पत्थर विमर्श के औजार थे और वह चला देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में एक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में। लहू-लुहान चेहरा था वहां की छात्र संघ अध्यक्ष ओइशी घोष का, जिनसे या उन जैसे विचारों के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के साथ यह डंडा विमर्श नकाबपोशों ने किया। पिछले करीब चार साल से लगातार विवादों में रहे जेएनयू में करीब चार घंटे तक चले इस हुड़दंग और तोड़फोड़ के दौरान दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी रही। तीन दिन बाद तक भी किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है। उलटे, ओइशी घोष के खिलाफ ही एफआइआर दायर हो गया।
इस पूरे मामले में दिल्ली पुलिस और जेएनयू प्रशासन की भूमिका सवालों के घेरे में है। पुलिस जितनी सफाई दे रही है, उसकी कहानी उलझती जा रही है। यह तो पुलिस अधिकारी खुद स्वीकार कर रहे हैं कि घटना के वक्त पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में मौजूद थी। जेएनयू प्रशासन पर भी आरोप है कि वह मूक दर्शक बना रहा। सबसे चौंकाने वाली तो जेएनयू के कुलपति की प्रतिक्रिया है। इस हमले के समय छात्रों और शिक्षकों के साथ खड़ा होने की बात तो दूर, वे दो दिन तक चुप रहे और उसके बाद एक संवेदनहीन बयान देकर पुरानी बातों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने का दार्शनिक ‘उपदेश’ दे दिया।
असल में, बात केवल एक यूनिवर्सिटी और इस हमले की नहीं है, सवाल है कि माहौल इतने खतरनाक स्तर तक क्यों बिगड़ा? वे कौन-से बाहरी तत्व हैं जो इस पूरे मसले के सूत्रधार और मुख्य किरदार थे। फिर, मारपीट करने वालों की वीडियो फुटेज और कुछ की पहचान भी उजागर हो रही, तो कार्रवाई में देरी क्यों हो रही है? अब कहा जा रहा है कि सीसीटीवी कैमरे काम नहीं कर रहे थे, इसलिए पुलिस जनता से सहयोग मांग रही है। जबकि यूनिवर्सिटी के मुख्य गेट पर भारी पुलिस बल की मौजूदगी में एक भीड़ भड़काऊ नारे लगा रही थी, हाथापाई और हर तरह की बदतमीजी कर रही थी। लेकिन पुलिस चुपचाप सब देख रही थी। पुलिस का तर्क है कि उसे यूनिवर्सिटी प्रशासन ने अंदर नहीं बुलाया। लेकिन यह तर्क देने वाली पुलिस कुछ दिन पहले राजधानी के ही दूसरे विश्वविद्यालय जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कैसे दाखिल हो गई थी जिसमें उस पर छात्रों पर गैर-जरूरी बल प्रयोग से लेकर तोड़फोड़ तक के तमाम आरोप लगे हैं।
कुलपति एम. जगदीश कुमार लगातार गलत कारणों के चलते सुर्खियों में बने रहे हैं। उन पर दक्षिणपंथी एजेंडा लागू करने के आरोप लगते रहे हैं। तमाम उपलब्धियों वाला जेएनयू एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही लगातार गलत वजहों से खबरों में है। सत्ताधारी पार्टी और उसके मातृ संगठन आरएसएस के लोगों का मानना है कि जेएनयू वामपंथी विचारधारा का गढ़ है और वह दक्षिणपंथी विचारों को खुली चुनौती देता है। लेकिन लोकतांत्रिक देश में विचार भिन्नता का मतलब यह तो नहीं कि उसे राष्ट्रविरोधी करार दे दिया जाए। जिस तरह शीर्ष नेतृत्व भी "टुकड़े टुकड़े गैंग" जैसे विशेषणों का उपयोग कर रहा है, वह वैमनस्य बढ़ाने वाला है। जेएनयू को भारत के बुनियादी विचार और संविधान का वाहक कहा जाता है।
सरकार को सोचना चाहिए कि पिछले कुछ माह में देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्र क्यों आंदोलनरत हैं। अधिकांश मामलों में उनके आंदोलन शांतिपूर्ण हैं और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का विरोध युवाओं का बड़ा वर्ग कर रहा है। एएमयू और जामिया में पुलिस कार्रवाई का विरोध पूरे देश के विश्वविद्यालयों में हुआ। जेएनयू में हिंसा का स्वतःस्फूर्त विरोध भी पूरे देश में जारी है। इसमें छात्र ही नहीं, कलाकार और प्रबुद्ध नागरिक भी शामिल हैं। राजनैतिक दल अपनी प्रतिक्रिया अपने तरीके से दे रहे हैं।
ऐसी स्थिति आंदोलनों और अनिश्चितता को बढ़ावा देती है जो देशहित में नहीं है। जब देश की अर्थव्यवस्था 11 साल के सबसे निचले विकास दर के पायदान पर हो और नॉमिनल जीडीपी 42 साल के निचले स्तर पर हो, तो सरकार की कार्यकुशलता वैसे ही सवालों के घेरे में है। इसी अंक में देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार और विश्व बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट रहे कौशिक बसु ने अपने लेख में कहा है कि आर्थिक विकास के लिए स्थिरता, सामाजिक समरसता और सद्भाव सबसे जरूरी है। उम्मीद है, सरकार जेएनयू मुद्दे को गंभीरता से लेगी। जेएनयू के कुलपति को लेकर भी सरकार को सख्त फैसला लेने की जरूरत है, क्योंकि जो कुलपति अपने छात्रों और शिक्षकों के लिए अभिभावक की भूमिका न निभा सके, उसे देश के सबसे प्रीमियर विश्वविद्यालय का कुलपति रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।