दिसंबर में चेन्नै में अलग ही चहल-पहल शुरू हो जाती है। मंदिरों और संगीत समारोहों में राग-रागिनियों का आलाप सुनाई पड़ने लगता है। भक्ति काल से ही तमिलनाडु में माघशीर्ष महीने का महत्व रहा है। अंग्रेजी केलैंडर में यह दिसंबर और जनवरी के बीच पड़ता है। दक्षिण भारत के मंदिरों में भजन, कीर्तन और विशेष पूजाओं के लिए यह महीना खास माना जाता है। 20वीं सदी में जब राजवंशों का पतन शुरू हुआ, तो तंजौर और मदुरै जैसे शहरों से शास्त्रीय संगीत और नृत्य के कलाकार मद्रास की ओर जाने लगे। उस दौरान वहां संगीत सभाओं का आयोजन शुरू हुआ। 1901 में पार्थसारथी स्वामी सभा बनी, जो आज भी संगीत रसिकों के बीच लोकप्रिय है। फिर रसिका रंजनी सभा, म्यूजिक अकादमी, नारद गान सभा जैसी कई सभाएं उभर आईं। इनमें संगीत जगत के दिग्गज कला का प्रदर्शन कर वाहवाही बटोरते थे।
इन सभाओं में दिसंबर के आखिरी हफ्ते में संगीत समारोहों का आयोजन शुरू हुआ और धीरे-धीरे यह पूरे महीने का समारोह बन गया। अब चेन्नै में दिसंबर में संगीत उत्सव में लगभग 3,800 समारोह होते हैं। कई सभाओं में सुबह 6 बजे से कार्यक्रम शुरू होते हैं, जो रात 10 बजे तक चलते हैं।
कलाकारों का जमघट
20वीं सदी में मद्रास कर्नाटक संगीत का गढ़ बन गया और इसकी ख्याति बढ़ने लगी। 2017 में चेन्नै को संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के क्रिएटिव सिटीज नेटवर्क (यूसीएनएन) के रचनात्मक शहरों के नेटवर्क की सूची में शामिल किया गया।
अभिषेक रघुराम
कला समीक्षक विजय साई कहते हैं कि मद्रास संगीत उत्सव की दुनिया भर में कोई मिसाल नहीं है। वे कहते हैं, “यह हिंदुस्तान के सांस्कृतिक जगत का करिश्मा है। मैं हर साल दिसंबर में चेन्नै आकर आत्मा की बैटरी को रिचार्ज करके वापस जाता हूं। संगीत और नृत्य का ऐसा उत्सव संसार में कहीं और नहीं देखने को मिलेगा।” दुनिया भर के शास्त्रीय संगीत के रसिक दिसंबर और जनवरी में चेन्नै के संगीत सभाओं में आते हैं।
उत्तर-दक्षिण
कई वर्ष पूर्व जब पंडित बिरजू महाराज चेन्नै के दिसंबर उत्सव में शिरकत करने आए थे, तब मेरे साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि चेन्नै के हर कला में भक्ति मिश्रित है। उनके अनुसार एक वक्त मुंबई और कोलकाता में किसी वक्त कुछ 15-20 संगीत समारोह होते थे, जो अब खत्म हो चुके हैं। इसलिए मुझे चेन्नै आकर नृत्य पेश करने में मजा आता है क्योंकि यहां शास्त्रीय कलाएं आज भी आबाद हैं।”
श्रुति सागर
ऐसे ही एक बार जब मेरी बात बेगम परवीन सुल्ताना से हुई थी तब उन्होंने 1968 के दिसंबर संगीत महोत्सव को याद किया था। तब वे पहली बार मद्रास में गाने आई थीं। मद्रास के कृष्ण गान सभा में अग्रिम पंक्ति में डी.के. पट्टम्माल और एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी जैसी स्वर सरस्वतियां विराजमान थीं। उस शाम कार्यक्रम के बाद, मद्रास मानो परवीन सुल्ताना का दूसरा घर बन गया और वे यहां के रसिकों के ह्रदय में हमेशा के लिए बस गईं। उन्होंने कहा, “चेन्नै के श्रोतागण शास्त्रीय संगीत समझते हैं और सीखे हुए हैं।” पहले हर साल मद्रास म्यूजिक अकादमी में 31 दिसंबर को पंडित रविशंकर का सितारवादन होता था और रात के 12 बजते ही वे सबको नववर्ष की बधाई देकर अपने कार्यक्रम का समापन करते थे।
संगीत के सितारे
चेन्नै शायद हिंदुस्तान में एकमात्र ऐसा शहर है, जहां शास्त्रीय संगीतकारों का वैभव फिल्म स्टारों से कम नहीं। जयंती कुमारेश की वीणा, प्रियदर्शिनी गोविंद का नृत्य, विशाखा हरी की हरिकथा और कलाक्षेत्र की नृत्य नाटिकाओं के दीवाने हजारों है।
कर्नाटक संगीत जगत की युगल गायिकाएं रंजनी और गायत्री के कार्यक्रम का टिकट खरीदने के लिए श्रोता सुबह चार बजे से कतार में लग जाते हैं। इन बहनों के कार्यक्रमों में उनकी रागदारी का मुकाबला प्रशंसकों की तालियों की गर्जना से होती है। रंजनी और गायत्री बंबई से संगीत सीखकर अस्सी के दशक में मद्रास आईं और देखते ही देखते संगीत जगत में तूफान मचा दिया। उनको ये भी लगता है कि कोविड के बाद लोगों में सब्र काम हो गया है और लोग सब कुछ ऑनलाइन देखना और सुनना चाहते हैं। गायत्री के अनुसार ऊपरी स्तर के कुछ गिने चुने कलाकारों को छोड़ दें, तो आज कंसर्ट हॉल भरना आयोजकों के लिए मुश्किल हो गया है। वे कहती हैं, “90 के दशक में जब हम बहनों ने मद्रास में कार्यक्रम शुरू किए थे तब किसी भी सभा या मंदिर के हॉल में आराम से 100 लोग तो होते ही थे।”
भक्ति की बुनियाद
इस साल समारोह में कुछ विवाद भी हुआ। गायत्री कहती हैं, “अब संगीत के प्रति कलाकारों का रवैया भी बदल गया है। पहले यह एक अनुष्ठान था। अब कई कलाकार इसे मनोरंजन के तौर पर दिखने लगे हैं। ऊपर से राजनीति भी संगीत क्षेत्र को दीमक की भांति खाए जा रही है। पांच साल पहले तक कह सकते थे कि चेन्नै कर्नाटक संगीत का केंद्र है पर अब हालात बदल रहे हैं।”
विजय इस बात का अफसोस जताते हैं कि 100 साल में ही कर्नाटक संगीत इस कगार पर जा खड़ा है जहां कलाकारों को याद दिलाना पड़ रहा है कि शास्त्रीय संगीत भक्ति की बुनियाद पर खड़ी हैं। “गायन में मूल तत्व अहमियत रखता है। संत त्यागराज स्वामी को अपने वक्त में राजाओं की स्तुति गान के लिए भी बुलाया गया था मगर उन्होंने नर स्तुति करने से इनकार कर दिया था। अगर आप कर्नाटक संगीत से भक्ति निकाल दें, तो यह सिर्फ नुमाइशबाजी या गायकी का सर्कस कहलायेगा।”
शास्त्रीय कलाओं के रसिक
संगीत इतिहासकार और विशेषज्ञ वी. श्रीराम मानते हैं कि अमूमन शास्त्रीय कलाओं के रसिक विशिष्ट होते हैं। वे कहते हैं, “मेरा मानना है कि पिछले सौ साल में शास्त्रीय संगीत लोगों से दूर होता जा रहा है। पहले तिरुवारूर और तंजौर जैसे छोटे शहरों के मंदिरों में शास्त्रीय संगीत सुनाई पड़ता था। अब सारे कलाकार और कार्यक्रम चेन्नै में सिमट गए हैं। पिछले दशकों में जैसी आबादी बढ़ी है, शास्त्रीय संगीत के श्रोता नहीं बढ़े। उससे भी चिंताजनक यह कि कई दशकों में कलाकारों की फीस में बढ़ोतरी नहीं हुई है।”
रमन्ना बालचंद्रन
श्रीराम को आपत्ति है कि कलाकारों से मुफ्त में गाने को बोला जा रहा है। “आपको कलाकारों से यह अपेक्षा तो बिलकुल नहीं करनी चाहिए कि वे मुफ्त काम करें। जब एक प्याली चाय मुफ्त नहीं मिलती तो कलाकार जीवन भर की साधना का निचोड़ मुफ्त में क्यों दे। तीन दशक पहले इसी मुफ्तखोरी की वजह से तमिल नाटक का पतन हुआ। मुफ्त से कलाकार के आत्मसम्मान को क्षति पहुंचती है।”
लेकिन अब चेन्नै में जोश है। दुनिया भर के श्रोता यहां डेरा डाले बैठे हैं। सभाओं में रौनक है। दिग्गजों के साथ नई पीढ़ी भी मंच पर चमकने लगी है। रमणा बालचंद्रन, श्रुति सागर, चारुमति रघुरामन, अनंता कृष्णन और अभिषेक रघुराम जैसे युवा कलाकारों के हाथों में कर्नाटक संगीत का आने वाला कल सुरक्षित दिख रहा है। चेन्नै के आसमान में संगीत का सूर्य चमक रहा है। अभी शाम होने में देर है।
(लेखक पत्रकार और फिल्म विशेषज्ञ हैं)