इस समय समूची दुनिया और हमारा देश कोविड-19 महामारी से जीतने की जंग लड़ रहा है। इसके लिए सबसे प्रभावी कदम के रूप में 25 मार्च से लागू 21 दिन के लॉकडाउन को अब सरकार ने 3 मई तक बढ़ा दिया है। अब लॉकडाउन 40 दिन का हो गया है। कुछ राज्यों में इसकी अवधि अधिक होगी, क्योंकि वहां 22 मार्च के ‘जनता कर्फ्यू’ या उसके एकाध दिन पहले से ही लॉकडाउन लागू कर दिया गया था। यह लॉकडाउन दुनिया में सबसे बड़ा और सख्त माना जा रहा है, इसलिए इसकी कीमत भी हमें दूसरों से ज्यादा चुकानी पड़ रही है। भविष्य में भी कीमत चुकाने का यह दौर जारी रहेगा, क्योंकि देश में चुनिंदा क्षेत्रों को छोड़कर तमाम आर्थिक गतिविधियां ठप हो गई हैं।
पहले लॉकडाउन की अवधि के बीच में ही प्रधानमंत्री ने अपना नारा ‘जान है तो जहान है’ से बदलकर ‘जान भी जहान भी’ कर दिया। देश के लोगों, खासकर सबसे गरीब और कमजोर वर्ग पर बेरोजगारी और भुखमरी की मार कुछ हद तक दिखने लगी थी। कामकाजी आबादी के इस 90 फीसदी वर्ग के पास न कोई सामाजिक सुरक्षा है, न आर्थिक सुरक्षा। इसलिए प्रशासनिक मशीनरी और नेताओं को समझना चाहिए था कि लॉकडाउन के मायने देश की सारी जनता के लिए एक से नहीं होते। किसी संपन्न शहरी इलाके और हाउसिंग सोसायटी में रहने वाले मध्य वर्ग और बेहतर आय स्रोत वाले लोगों के मुकाबले गरीबों, प्रवासी मजदूरों और कामगारों के लिए लॉकडाउन के मायने अलग हैं। यही वजह है कि लॉकडाउन की अवधि बढ़ाए जाने के साथ ही मुंबई और सूरत जैसे शहरों में प्रवासी मजदूरों के धैर्य ने जवाब दे दिया। वे अपने गांव-घर जाने की मांग के साथ सड़क पर उतर आए। इस तरह के वाकये केंद्र और राज्य सरकारों के देश के हर आदमी का खयाल रखने के दावों की भी पोल खोलते हैं। लगभग भुखमरी और पैसे की तंगी झेल रहे गरीब तबके से जुड़ी खबरें लगातार बढ़ रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 अप्रैल के संबोधन में कहा कि यह तबका उनका परिवार है और उनका उन्हें सबसे अधिक खयाल है, लेकिन जमीनी हकीकत अलग है।
सोशल डिस्टेंसिंग या लोगों के मेलजोल या आवाजाही रोकने की रणनीति इसलिए भी सही कही जा सकती है क्योंकि हमारे पास चिकित्सा संसाधन और ढांचागत सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं। पहले 21 दिन के लॉकडाउन ने केंद्र और राज्य सरकारों को बीमारी के किसी बड़े खतरे में तब्दील होने के पहले तैयारियां करने और इसके हॉटस्पॉट चिह्नित करने का मौका दिया है। लेकिन सही स्थिति का आकलन करने के लिए देश के अधिकांश राज्यों में टेस्ट की संख्या बहुत सीमित है। अभी तक हम प्रति दस लाख लोगों में केवल 176 टेस्ट के औसत पर ही आ पाए हैं जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 8,900 टेस्ट का है।
दूसरी ओर, महामारी और लॉकडाउन के चलते अर्थव्यवस्था भीषण संकट में फंस गई है। अभी तक सरकार की तरफ से तो कोई आधिकारिक आकलन नहीं आया है लेकिन वैश्विक संस्थाओं के आकलन चिंता बढ़ाने वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) का कहना है कि चालू साल में भारत की जीडीपी वृद्धि दर गिरकर 1.9 फीसदी रह जाएगी, विश्व बैंक ने इसके 1.6 से 2.8 फीसदी के बीच रहने का अनुमान लगाया है। आइएमएफ के मुताबिक, 2020 में विश्व अर्थव्यवस्था तीन फीसदी सिकुड़ जाएगी। बार्कलेज रिसर्च का कहना है कि 2020 में भारत की विकास दर शून्य हो जाएगी तो ‘नोमुरा’ ने शून्य से भी आधा फीसदी नीचे जाने का अनुमान जारी किया है। एक रिसर्च संस्थान का आकलन है कि एक सप्ताह के लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था का नुकसान करीब 26 अरब डॉलर का है। सरकार ने 15 अप्रैल को जो गाइडलाइन जारी की हैं, उनमें शर्तों के साथ 20 अप्रैल से चुनिंदा आर्थिक गतिविधियां खोलने की बात है। विशेषज्ञों का मानना है कि आम आदमी के साथ ही कृषि और इकोनॉमी के दूसरे क्षेत्रों के लिए आठ से दस लाख करोड़ रुपये के पैकेज की फौरन जरूरत है। दुनिया के अधिकांश देशों ने काफी बड़े और समग्र पैकेज घोषित किए हैं, लेकिन हमारी सरकार ने कोई खास पैकेज का ऐलान नहीं किया है। राज्यों को जीएसटी और अन्य मदों में देय राशि भी पूरी तरह मुहैया नहीं करा पा रही है, ताकि वे महामारी से जंग में कुछ सबल हो सकें।
जिस हाल में हमारी अर्थव्यवस्था पहले से ही पहुंच गई थी, इस झटके के बाद उसे मंदी से बचाना काफी मुश्किल है। कुछ विशेषज्ञ इसे 1979-80 के दौर जैसी बता रहे हैं, तो दुनिया में 1930 की महामंदी का हवाला दिया जा रहा है। इससे पहले कि हम इस पर गौर करते, एक दूसरी ही कोशिश शुरू हो गई। जिस तरह से कई जगहों पर अल्पसंख्यकों पर हमले, उनके कारोबारी हितों पर चोट और एक अस्पताल में कोविड-19 के मरीजों को धर्म के आधार पर बंटे वार्ड में रखने की खबरें आई हैं, वह महामारी से लड़ने में देश की एकजुटता को कमजोर करने वाली हैं। इस मोर्चे पर सरकार को सख्ती अपनानी चाहिए और इस तरह के विभाजन पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए।
@harvirpanwar