महामारी कोविड-19 ने देश के सामाजिक और आर्थिक जीवन को पटरी से उतार दिया है। इसे फिर से पटरी पर लाने की जो कोशिशें हो रही हैं, उनमें दीर्घकालिक और स्पष्ट सोच की कमी झलक रही है। केंद्र और राज्य सरकारें पुख्ता योजना लेकर नहीं चलेंगी, तो स्थिति को सुधारने में ज्यादा दिक्कतें खड़ी हो जाएंगी। असल में देश कई मोर्चों पर पहले से ही लड़ रहा था। मसलन, देश में सरकार के फैसलों के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे, विश्वविद्यालयों में छात्रों के प्रदर्शनों का जैसे सिलसिला चल पड़ा था। आर्थिक मोर्चे पर दशकों की सबसे कमजोर विकास दर से देश जूझ रहा था और बेरोजगारी भी कई दशकों के सर्वोच्च स्तर पर थी। इस तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच देश और दुनिया को महामारी ने घेर लिया। जनवरी में देश में पहला कोरोनावायरस संक्रमित मरीज आया और 27 मई को भारत में संक्रमित लोगों की संख्या डेढ़ लाख पार कर गई। नए संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में हम दुनिया के पहले चार देशों में पहुंच गए। यह संकेत है कि आने वाले दिन काफी चुनौतीपूर्ण हैं। आम आदमी के लिए तो नतीजे भयावह हो सकते हैं।
देश में 25 मार्च से लागू लॉकडाउन के चार चरण पूरे होने जा रहे हैं। इस दौरान कई तरह के फैसले हुए और लॉकडाउन में ढील देने का दौर चल रहा है। जीवन और जीविका को पटरी पर लाने की कवायद तेज हो गई है। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि हमने दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन लागू किया, जिसकी जरूरत नहीं थी। अलबत्ता, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सख्त लॉकडाउन से देश में संक्रमण के बड़े फैलाव को रोकने में मदद मिली। यह विवाद जारी रहेगा लेकिन कुछ तथ्य साफ इशारा करते हैं कि हमने पुख्ता रणनीति बनाने में काफी समय गंवाया। लॉकडाउन समेत तमाम फैसलों पर कई दूसरे सवाल भी उठे। मसलन, सरकार चला रहे नेताओं और नौकरशाहों ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि देश में करोड़ों गरीब लोगों का इस लॉकडाउन में क्या होगा, अचानक बेरोजगार हो गए लोग अपने घरों से दूर कैसे रहेंगे।
यह बात भी साफ होती जा रही है कि महानगरों और शहरों में अचानक कमाई और बेहतर सरकारी मदद के अभाव में मजदूरों को भारी कष्ट झेलना पड़ा। राज्य सरकारों के शेल्टर होम में रखे गए गरीब लोगों और उनके परिवारों को उस तरह की सुविधा नहीं मिली, जिसकी दरकार थी। यही वजह है कि लॉकडाउन के बढ़ते चरणों ने उन्हें बेचैन कर दिया और वे पैदल या जो भी वाहन मिला, उसके जरिए अपने गांव-घरों को निकल पड़े। इस दौरान बड़ी संख्या में लोगों की जान गई। इस गलती को सुधारने के लिए सरकार ने श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाने का फैसला किया। शुरू में इसके किराये को लेकर तमाम गलतफहमियां हुईं और जमकर राजनीति भी हुई। उसके बाद ट्रेनों के संचालन को लेकर जो खामियां सामने आई हैं, उनका जवाब रेल मंत्री से भी देते नहीं बन रहा है। ट्रेनों के संचालन, उनके गलत गंतव्य तक पहुंचने से लेकर ट्रेनों में खाने और पीने के पानी की अव्यवस्था की तसवीरें लोगों को विचलित कर रही हैं।
दूसरी ओर, राज्यों और केंद्र के बीच आर्थिक मदद से लेकर कई दूसरे मसलों पर असहमति लगातार सामने आ रही है। लॉकडाउन के तहत आर्थिक गतिविधियां शुरू करने, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और हवाई यात्रा को शुरू करने के मसले पर कई तरह के विरोधाभास देखने को मिले। हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री के साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कई बैठकें हुईं। कैबिनेट सचिव ने भी मुख्य सचिवों के साथ बैठकें कीं और कई फैसले राज्यों पर छोड़े गए।
केंद्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज भी घोषित किया। लेकिन इस पैकेज में आर्थिक मदद कम, नीतियों में बदलाव और आर्थिक सुधारों पर ज्यादा फोकस है। इसके साथ ही इसमें आत्मनिर्भरता अभियान का नया मंत्र जोड़ दिया गया है। हमें इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि इस समय देश की अर्थव्यवस्था एक बड़े संकट में है। ऐसे में, जब घरेलू और विदेशी दोनों स्तरों पर भारी निवेश की जरूरत है, अव्यावहारिक नीतियों पर ज्यादा फोकस नहीं होना चाहिए। आर्थिक उदारीकरण की वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौर में जरूरत से ज्यादा संरक्षणवादी नीतियों से देश का भला होने वाला नहीं है।
इसलिए मौजूदा परिस्थिति में एक स्पष्ट ठोस योजना की दरकार है जो महामारी से लोगों के जीवन को सुरक्षित रख सके और जीवन के साथ जीविका को भी पटरी पर ला सके। लॉकडाउन का चौथा चरण समाप्ति के करीब है और अब रणनीति एकदम सटीक होनी चाहिए क्योंकि जहां कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ते जा रहे हैं वहीं केंद्र-राज्यों के बीच स्पष्ट योजना का अभाव दिख रहा है। भारत एक संघीय ढांचे वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था है और महामारी के इस दौर में केंद्र और राज्यों के साथ ही राजनीतिक स्तर पर भी यह तालमेल दिखना चाहिए, जो महामारी और आर्थिक संकट से देश को कामयाबी दिला सके।