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अनिश्चितता में राजनीति

महामारी पर काबू पाने की रणनीतियां नाकाम, स्वास्‍थ्य ढांचा चरमराया, सरकारों के बीच तालमेल के बदले बेइंतहा लापरवाहियां हुईं उजागर। लोग महामारी और आर्थिक बदहाली से पस्त
आजकल

इस समय देश अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है। वैश्विक महामारी कोविड-19 ने हर आदमी के अंदर एक भय और अऩिश्चितता की स्थिति पैदा कर दी है। भय इस बात की कि महामारी पर काबू पाने के लिए बनाई गई रणनीति हवा होती दिख रही है, क्योंकि हर रोज कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों का आंकड़ा नया रिकॉर्ड बना रहा है। मौत और रोजाना संक्रमण के मामले में हम दुनिया के शीर्ष देशों में पहुंच गए हैं। फिर, जहां दुनिया के अधिकांश देशों में लॉकडाउन के दौरान संक्रमण पर नियंत्रण पाया गया, हमारे देश में संक्रमण की रफ्तार तेज होती गई। ऐसे में, अब चरणबद्ध तरीके से अनलॉक चल रहा है यानी सामाजिक और आर्थिक जीवन की तमाम गतिविधियां सामान्य दिनों की तरह खोली जा रही हैं। लेकिन चिंताजनक पहलू यह है कि देश की राजधानी दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में संक्रमण तेजी से फैल रहा है, जबकि केंद्र और राज्य सरकारों की स्वास्थ्य सुविधाएं चरमराती दिख रही हैं। निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं पर तो कई तरह के सवाल हैं। अनाप-शनाप पैसे मांगने की शिकायतें आम हैं। हालात ये हैं कि हर रोज मरीजों को अस्पताल में बिस्तर न मिलने, बेहतर इलाज की कमी, टेस्ट न होना और टेस्ट रिपोर्ट आने में देरी की शिकायतें आ रही हैं। कई मामलों में मरीज अस्पतालों के चक्कर लगाते सड़कों पर ही दम तोड़ दे रहे हैं। मतलब सारा स्वास्‍थ्य ढांचा नाकाम हो चुका है और लोगों को राम भरोसे छोड़ दिया गया है।

लेकिन नेताओं के मामले में रिपोर्ट भी तेजी से आ रही है और इलाज भी बेहतर तरीके से हो रहा है। ऐसी घटनाएं आम लोगों के साथ सरकार के दोहरे रवैए का सबूत बन रही हैं। लापरवाही का आलम दिल दहला देने वाला है। इससे आम लोगों में भय और अनि‌श्चितता की स्थिति पैदा हो रही हैं। शुरू के दिनों में जिस टीम इंडिया की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी, वह तालमेल गायब होता दिख रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केवल दिल्ली के लोगों के इलाज की बात करते हैं, तो उप-राज्यपाल उनके फैसले को पलट देते हैं। दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सामुदायिक संक्रमण फैलने की बात करते हैं, मगर केंद्र सरकार अभी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में जहां केंद्र और राज्यों की सभी एजेंसियों को एकजुट होकर महामारी पर काबू पाने की रणनीति बनाकर काम करना चाहिए था, वहां आरोप-प्रत्यारोप और नाकामियां छुपाने की कोशिशें ही ज्यादा दिख रही हैं। इस सवाल का जवाब कोई देने को तैयार नहीं है कि 24 मार्च से लागू लॉकडाउन के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं को तैयार करने का काम क्यों नहीं किया गया? सवाल यह भी है कि ऐसी कौन-सी खामियां रह गईं, जिनके चलते लॉकडाउन में संक्रमण पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका?

यही नहीं, जिस तरह राज्य और जिले अचानक बार्डर सील कर दे रहे हैं, वह आम लोगों के लिए संकट का सबब बन रहा है। विडंबना देखिए कि इस पूरे संकटकाल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, जो खुद भी चिकित्सक हैं, की कोई बड़ी भूमिका नहीं दिख रही है, जबकि केरल जैसे राज्य में कोविड संकट से निपटने में वहां की स्वास्थ्य मंत्री देश में एक मिसाल कायम कर दी है।

महामारी के इस संकट में कई तरह की त्रासदी भी देश के लोग, खासकर गरीब और श्रमिक भुगत रहे हैं। गरीब मजदूरों का अपने घरों को लौटने का संकट देश दशकों तक महसूस करेगा। देर से ही सही, सुप्रीम कोर्ट को भी इस बारे में आदेश जारी करना पड़ा। फिर, केंद्र सरकार के अधिवक्ता ने न्यायालय में जैसे सरकार का पक्ष रखा, वह बेहद गैर-जिम्मेदाराना और केंद्र की लापरवाही का जीता-जागता सबूत था।

उधर, आर्थिक मोर्चे पर हालात भयावह बने हुए हैं। करोड़ों लोगों का रोजगार चला गया है, नौकरियां जा रही हैं, लेकिन सरकार के माथे पर कोई शिकन नहीं है। हो सकता है कि उसे इसके राजनीतिक नुकसान की कोई चिंता न हो। अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है, यह बात अब मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी मान ली है। सरकार ने जो 20 लाख करोड़ रुपये का तथाकथित पैकेज घोषित किया गया था, उसकी हकीकत धीरे-धीरे खुल गई है। लेकिन जिस तरह संकट में मौका ढ़ूंढ़ने के बयान दिए जा रहे हैं, उसी तर्ज पर पैकेज को आत्मनिर्भर भारत की चाशनी में डुबो दिया गया है। कुछ लोग चीन के उत्पादों के बहिष्कार का झंडा बुलंद कर रहे हैं। जिन राज्यों की सरकारें अपने मजदूरों को काम नहीं दे पा रही हैं और जिसके चलते वे दूसरे राज्यों में जाते हैं, वे राज्य सरकारें चीन से निकलने वाली कंपनियों को लुभाने के अव्यावहारिक बयान जारी कर रही हैं।

 लेकिन इन सबके बावजूद राजनीति शुरू हो गई है। बिहार चुनाव के लिए वर्चुअल रैली भाजपा कर ही चुकी है। राज्यसभा के चुनावों के लिए जोड़तोड़ चरम पर है, जो यह दर्शाता है कि राजनीतिक दलों को सत्ता की चिंता ज्यादा है। जहां तक देश के आम लोगों का सवाल है, महामारी से खुद को बचाए रखने के लिए ‘घर में रहें, सुरक्षित रहें’ की बात तो सच है, लेकिन जीवन बचाने के लिए जिस जीविका की जरूरत है उसके लिए तो उसे बाहर निकलना ही होगा।

 

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