समाज में रोज बलात्कार हो रहे हैं। कानून उन्हें रोक नहीं पा रहा है। इसका हल आपकी नजर में क्या हो सकता है?
निर्भया केस के बाद पोक्सो आया, बलात्कार कानून में संशोधन हुआ। फास्ट ट्रैक कोर्ट बनी, स्पेशल कोर्ट बनी, दिल्ली में कैमरे लगे, लेकिन घटनाएं नहीं रुकीं। इसकी जरूरत नहीं थी। कानून तो पहले से ही 376 और उसकी उपधाराओं के रूप में था। उनमें भी सजाएं होती थीं, लेकिन नए कानूनों का दुरुपयोग ज्यादा हुआ है। नकली केस की संख्या बढ़ गई। कानून पर्याप्त तब भी था, अब भी है। जब तक हम अपने सामाजिक ढांचे को मजबूत नहीं करेंगे; जब तक लोग अपने लड़के-लड़कियों को बौद्धिक, शारीरिक और मानसिक स्तर पर सशक्त नहीं करेंगे, तब तक घटनाएं नहीं रुकेंगी। महानगरों के माता-पिता पैसे के लिए वैश्विक हो चुके हैं। वे अपने बच्चों को छोड़ देते हैं। सारा जोर दो कमरे से तीन कमरे का फ्लैट लेने, बड़ी गाड़ी लेने में लग जाता है। ऐसे में असली धन यानी बच्चे का पतन हो जाता है। हमारे समाज की परंपरा थी कि धन गया तो कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य गया तो कुछ गया। चरित्र गया तो सब कुछ चला गया। हमारी ऐसी भावना रही है देश की और लोग इस पर चले भी हैं।
जिम्मेदार कौन है?
टेक्नोलॉजी, आधुनिकता, पाश्चात्य सभ्यता, माता-पिता, स्कूली शिक्षा। जिस दिन हमारे मीडिया, बाबा, नेता, जनप्रतिनिधि, माता-पिता, स्कूल के प्रबंधन इस बात को स्वीकार कर लेंगे, बलात्कार रुक जाएगा। इस देश में डेढ़ अरब लोगों की भीड़ है। घरों में बलात्कार हो रहे हैं सबसे ज्यादा। कौन जिम्मेदार है? हमारी आपकी इच्छाशक्ति, हमारा अपना चरित्र।
न टेक्नोलॉजी को पीछे ले जाया सकता है, न स्कूली शिक्षा का विकल्प है...
स्कूली शिक्षा में नैतिक शिक्षा को बढ़ा दीजिए। मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि नैतिक शिक्षा देने से जेल की भीड़ घटेगी। स्कूल एक ऐसा साधन है जहां आप बच्चे को मजबूत कर सकते हैं। स्कूल अच्छे होंगे, तो अस्पताल, कोर्ट, जेल, थाने, सब कम हो जाएंगे। अच्छा समाज बनेगा।
पिछले आठ साल से स्टेट को अलग चाल, चरित्र और चेहरे वाली पार्टी चला रही है। फिर कुछ बदला क्यों नहीं?
इच्छाशक्ति नहीं है उनमें। केवल बोलने की शक्ति है, करने की नहीं है। जैसे चुनाव के लिए एक साल पहले तैयारी कर ली जाती है, ऐसे ही देश के लिए तैयारी क्यों नहीं की जाती है? चुनाव को टाल दें। कह दें कि अभी हम देश के लिए कुछ नहीं कर पाए साहब, समय चाहिए। पांच साल में दो साल काम करते हैं ये लोग, बाकी समय चुनाव की तैयारी करते होते हैं। क्यों जनता का पैसा फूंक रहे हो?
मतलब वैचारिक रूप से सरकार सही है, केवल इच्छाशक्ति का मामला है?
वैचारिक रूप से तो सब सही होते हैं। बाबाओं पर केस लगे हैं। क्या वे वैचारिक रूप से गलत हैं? क्या उनके सत्संग में गलत बोला जाता है कुछ? वैचारिक तो सब कुछ सही ही होता है। कर्म गलत होते हैं।
आपने कोई प्रयास किया है इस दिशा में?
हमने सोशल मीडिया के गलत कंटेंट को बैन करवाने का प्रयास किया। अब दुख क्या है? सरकार के खिलाफ कोई लिख दे, कोई यूट्यूब चैनल दिखा दे, तो उस पर खटाक से देशद्रोह लग जाता है, वो बंद हो जाता है। उसे ब्लॉक कर दिया जाता है। जो समाज सरकार को बनाता है, उस समाज की रक्षा के लिए जब हम ऐसे पीआइएल डालते हैं कि समाजविरोधी कंटेंट को रोकिए, तो अटॉर्नी जनरल कहते हैं कि हम इसे रोक नहीं सकते क्योंकि ये बाहर से संचालित होता है। जब अनुराग ठाकुर अपने पर आते हैं, तो पचासों चैनल रोक दिए जाते हैं लेकिन समाज की बात आते ही कहते हैं कि बाहर का मामला है।
आप भी कुछ नारीवादियों की तरह फांसी की सजा के खिलाफ हैं, लेकिन आप मुजरिमों की पैरवी भी करते हैं। आपके और उनके तर्क में फर्क क्या है?
यह देश महात्मा गांधी का है, जो हमारे राष्ट्रपिता रहे। उनका अहिंसा का सिद्धांत तो दुनिया मानती है। फांसी की सजा अप्राकृतिक है। हिंसक है। भगवान जीवन देता है, वही जीवन ले। यही नैतिकता भी है और अंतरराष्ट्रीय कानून भी है- 198 देशों में फांसी की सजा खत्म कर दी गयी है। आतंकवादियों को आपने फांसी की सजा दी, आतंकवाद खत्म हुआ क्या?
हाथरस से लेकर निर्भया और राम रहीम तक तमाम मामलों में आपने मुजरिम की पैरवी की। इसके पीछे कौन सी समझदारी है?
कोई सिद्धांत नहीं, प्रोफेशन है बस। जो आ गया उसके लिए हम काम करते हैं। पीडि़त के लिए भी लड़ते हैं, लेकिन ऐसे मामलों में आप लोगों की कलम नहीं चलती। जैसे गायत्री मिशन में डॉ. प्रणव पांड्या और डॉ. शैल के ऊपर रेप केस और पोक्सो में मैं शिकायतकर्ता साध्वी की ओर से लड़ा था। यहां द्वारका में एक बच्ची का रेप हुआ था। पोक्सो का केस था। जज साहब ने कहा कि शादी करा दो। मैं सुप्रीम कोर्ट तक गया था उसमें।
पोक्सो और निर्भया कानून के नाम पर जिन फर्जी मुकदमों की बात की है आपने, उसका कोई डेटा है आपके पास?
आदमी के झूठे फंसने का डेटा कहीं नहीं मिलेगा। पुरुष के लिए कौन बोल रहा है इस देश में? क्या पुरुष के लिए किसी पॉलिटिकल एजेंडे में कहीं कुछ लिखा है? डेढ़ सौ से पौने दो सौ पुरुष प्रतिदिन इस देश में आत्महत्या कर रहे हैं। रिश्तों में, दफ्तरों में, शादियों में दुखी पुरुष रोज मर रहे हैं। ऐसे लोग फौजी हैं, मीडिया के हैं, वकील हैं, व्यापारी हैं। पुरुष जब सुसाइड करता है तो उसके परिवार वाले कुछ हंगामा नहीं करते। कोई एफआइआर नहीं करवाते। जब संविधान सबको समानता का अधिकार देता है लिंग के आधार पर, तब भेदभाव क्यों? पुरुषों के लिए जीना अब बड़ा मुश्किल हो गया है।