निर्भया कांड के दौरान दिल्ली में न्यायिक सेवाओं की तैयारी कर रहीं सीमा कुशवाहा का अचानक बलात्कार विरोधी आंदोलन में शामिल होने से लेकर पीडि़ता की पैरवी करने तक का सफर बहुत साहसिक रहा है। आज की तारीख में बलात्कार पीडि़ताओं की कानूनी आवाज बन चुकी सीमा मानती हैं कि निर्भया की लड़ाई देश की आधी आबादी और खुद उनकी अपनी लड़ाई रही है। अभिषेक श्रीवास्तव से विस्तृत बातचीत के अंशः
आपने निर्भया का पहला ही केस लड़ा और जीता। क्या प्रेरणा रही इसके पीछे? कैसे अनुभव रहे?
वकालतनामा पर यह मेरा पहला केस था, लेकिन मैं 2006 से ही रजिस्टर्ड वकील हूं। मेरी लड़ाई हालांकि बचपन से ही शुरू हो चुकी थी। मैं गांव से आती हूं। वहां परिवार के भीतर भेदभाव को मैंने महसूस किया है। मेरे गांव में आज भी प्राथमिक विद्यालय नहीं है। गांव में नौंवीं पास करने वाली मैं पहली लड़की थी। बचपन से ही मेरा स्वभाव थोड़ा बागी किस्म का भी था। उसके कारण मैं निर्भया केस से खुद को रिलेट कर पाई। मेरे एक शिक्षक थे जगदीश त्रिपाठी जी। वे कहते थे कि जो लोग ऊपर पहुंचे हैं उन्होंने लीक को तोड़ा है। उससे मुझे प्रेरणा मिली। फिर कभी डर नहीं लगा। मैंने 17 दिसंबर, 2012 को ही तय कर लिया था कि इन दरिंदों को मैं फांसी पर चढ़वाऊंगी। वहीं से मेरा सफर शुरू हुआ।
दो साल हो गए फांसी हुए। महिलाओं के साथ हिंसा जस की तस है। क्या अब भी आप मानती हैं कि फांसी से कोई फर्क पड़ता है?
दूसरे देशों में फांसी की सजा एक निषेध के रूप में इस्तेमाल की जाती है। यहां फांसी की सजा से ज्यादा अहम उसके क्रियान्वयन की अवधि होती है। उसका असर ज्यादा पड़ता है। निर्भया जैसा जघन्य केस क्या सात साल तक चलना चाहिए था? यह तो समूची न्यायिक प्रक्रिया का मसला है। एक सिस्टम के तौर पर हम फेल हैं। अगर समयबद्ध न्याय मिल पाता तो उसका निश्चित रूप से फर्क पड़ता।
क्या देरी के लिए दूसरे पक्ष के वकील को दोषी माना जाए?
देखिए, दिल्ली हाइकोर्ट से फैसला आने के करीब 18 महीने बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला लिस्ट हुआ। इतनी अवधि में एसएलपी, रिव्यू, क्यूरेटिव, सब कुछ सुना जा सकता था। तो पहली गलती इस देरी में हुई। दूसरा पक्ष भी जानता था कि जितनी ज्यादा मामले में देरी होगी, उसे फांसी की सजा रोकने का आधार बनाया जा सकेगा। 2014 के शत्रुघ्न चौहान बनाम सरकार के मामले में साफ कहा गया है कि फांसी की सजा के मामले में मुजरिम को उसकी आखिरी सांस तक सुने जाने का अधिकार है। दूसरे पक्ष ने अलग-अलग रिव्यू, क्यूरेटिव और मर्सी याचिका के माध्यम से अंतिम रात तक डेथ वारंट को रोकने में इसका इस्तेमाल किया।
निर्भया केस में दूसरे पक्ष के वकील एपी सिंह थे। हाथरस केस में आप फिर उनके सामने हैं...
हाथरस केस से तो वे हट चुके हैं। अब नहीं हैं। जहां तक निर्भया केस की बात है, उसमें एपी सिंह की भी कोई गलती नहीं थी। प्रक्रियागत जितनी भी खामियां हैं, उन्होंने डिफेंस के लिए सबका दोहन किया था। मुजरिमों के सारे अधिकार एक साथ उन्होंने खर्च नहीं किए। एक-एक कर के सबका इस्तेमाल किया। जिस दिन पहला डेथ वारंट जारी हुआ, उस दिन किसी की भी मर्सी या क्यूरेटिव याचिका पेंडिंग नहीं थी। अब हुआ ये कि कोर्ट की एमिकस क्यूरी सीनियर एडवोकेट वृंदा ग्रोवर जी मुकेश की वकील बन गईं, जबकि उन्हें न्यूट्रल होना चाहिए था। मैंने इस पर कोर्ट रूम में ही आपत्ति जताई थी। वृंदा जी और एपी सिंह जी दोनों लोग शबनम बनाम केंद्र सरकार के केस का संदर्भ दे रहे थे। वृंदा जी का पक्ष था कि फांसी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में भुल्लर के एक केस लॉ की नजीर देते हुए फांसी की सजा के खिलाफ दलील दी थी जबकि ट्रायल कोर्ट को इसका अधिकार ही नहीं है। यह एक ऐसा बिंदु था जहां शबनम वाला केस लॉ और दिल्ली जेल मैनुअल का नियम एक-दूसरे के खिलाफ आ खड़ा हुआ। यहां मुझे दिल्ली जेल मैनुअल वाले संदर्भ का लाभ मिला और डेथ वारंट जारी कर दिया गया। इसके बाद 14 दिन का समय दिया गया। इसके बाद भी आर्टिकल 32 के तहत विनय की दया याचिका खारिज होने को दूसरे पक्ष ने चुनौती दे दी। फिर पवन पर भी 32 में इन्होंने पिटीशन लगाई। कुल मिलाकर अंत तक सारे अधिकारों का दोहन दूसरे पक्ष ने किया। यह सब प्रक्रिया का हिस्सा है और कानूनी है।
इसका मतलब कि मुजरिमों को बचा रहे दूसरे पक्ष की मंशा में कोई गड़बड़ी नहीं थी?
देखिए, पूरे भारतीय सिस्टम की जिम्मेदारी है कि जिसके साथ अपराध हुआ है उसको न्याय मिले। पुलिस और कोर्ट-कचहरी एक प्रोसीजर है। इस प्रोसीजर में कोई व्यक्ति अगर यह कहता है कि कोई कितना भी बड़ा अपराधी हो हम उसको बचाएंगे तो यह न्याय के पक्ष में नहीं है। हां, मौका सबको मिलना चाहिए। हमारा कानून आज भी अंग्रेजों के जमाने का है। पुलिस का रवैया आज भी एलीट को सपोर्ट करने वाला है। इसलिए झूठा भी फंसाया जा सकता है किसी को, तभी डिफेंस जरूरी है। लेकिन डिफेंस का वकील अगर यह कहने लगे कि मैं किसी भी मुजरिम को बचा लूंगा, तो क्या यह न्याय के हक में होगा?
छावला कांड में जो सुप्रीम कोर्ट ने तीनों मुजरिमों को बरी कर दिया, क्या आपकी राय में न्याय मिला पीडि़त को?
उस बेटी को न्याय नहीं मिला। दो चीजें हैं। वे अपराधी थे या नहीं, यह तय करना स्टेट की जिम्मेदारी थी, पुलिस की थी। अगर सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि जांच सही नहीं हुई तो गलती किसकी है? अगर जिला अदालत और हाइकोर्ट दोनों फांसी की सजा दे रही हैं और सुप्रीम कोर्ट मुजरिमों को बरी कर रहा है, तो सवाल न सिर्फ दोनों निचली अदालतों पर बल्कि पुलिस की जांच पर भी है। फिर सवाल उठता है अपराधी कौन है। दूसरी अहम बात ये है कि अगर डीएनए सैंपल मैच कर रहा है, तो कार के रंग वाला डिफेंस उससे बड़ा कैसे हो गया? अगर डीएनए के बजाय कार के रंग वाले डिफेंस के आधार पर मुजरिमों को लाभ का संदेह मिल रहा है तो इसका मतलब है कि जजमेंट सही नहीं है।
आपको लगता है कि छावला कांड का कोई राजनीतिक कोण भी है?
मैं इस पर कमेंट नहीं कर सकती हूं। हां, संविधान में इसे भी चुनौती देने की आजादी है। समीक्षा याचिका लगाई जा रही है। मुझे इतना तो लगता है कि अब इस मामले में फांसी की सजा नहीं होगी। डिफेंस के वकील इसी बात को आधार बनाएंगे कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ही इनको बरी कर दिया था। अब अगले साल यह लिस्ट होगा। फिर मामला और लंबा चलेगा। ज्यादा से ज्यादा कुछ हुआ तो बस उम्र कैद होगी।
अगर छावला और निर्भया कांड दोनों को समानांतर रख कर देखें, तो क्या आपको लगता है कि प्रचार और सामाजिक गोलबंदी का असर भी न्याय और दंड पर पड़ता है?
निर्भया केस में मैं जांच अधिकारी छाया शर्मा को सलाम करती हूं। उनकी जांच अपराधियों को फांसी तक पहुंचाने में निर्णायक रही है। छावला केस में जांच पर ही सवाल उठा है। इसलिए दोनों के अंतिम परिणामों में जांच एजेंसी की बहुत बड़ी भूमिका है। दूसरा, सामाजिक-राजनीतिक प्रचार से महिला अधिकारों पर एक विमर्श जरूर खड़ा हुआ, लेकिन विमर्श खड़ा होने से किसी को दंड नहीं मिलता। जब मैं अकेले भागदौड़ कर रही थी तब कोई मीडिया नहीं आया था।
समस्या कहां है, जांच प्रक्रिया में, कहीं और?
इच्छाशक्ति नहीं है। संवेदनशीलता नहीं है। इस देश की 49 प्रतिशत आबादी महिलाओं की है। जमीनी हकीकत यह है कि क्या ऐसी बेटियां नहीं मार दी गई होंगी जो ओलंपिक में जा सकती थीं, जो डॉक्टर-इंजीनियर बन सकती थीं? बेटियां केवल जेंडर भर नहीं हैं। वे देश की पूंजी हैं। केवल अलग जेंडर का होने की वजह से उनके अधिकारों का हनन हो रहा है तो उसकी रक्षा करना स्टेट की ड्यूटी है। महिला सुरक्षा गारंटी अधिनियम बनाया जाना चाहिए। सबसे जरूरी है महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाना, संपत्ति में उन्हें अधिकार दिया जाना।
निर्भया फंड तो बनाया था स्टेट ने एक हजार करोड़ रुपये का?
पूछा जाए इन लोगों से कि क्या किया उस पैसे का! दो साल तक निर्भया फंड से एक रुपया खर्च नहीं किया गया। निर्भया फंड से सखी वन स्टॉप सेंटर बनाए जाने थे सारे जिलों में। आज तक केवल 200 सेंटर बने हैं। जहां बनाए वहां कोई व्यवस्था ही नहीं है। कानून तो दे दिया महिलाओं को, लेकिन महिलाओं के पास प्राइवेट वकील को देने के लिए फीस नहीं है। कानूनी सेवा प्राधिकरण में सक्षम वकील नहीं हैं। महिलाओं का मुद्दा बुनियादी रूप से मानवाधिकार का मुद्दा है। चूंकि स्टेट के पास पावर है, सूचना फैलाने के साधन हैं, इसलिए बुनियादी इच्छाशक्ति की कमी स्टेट में है।
कानूनों की आड़ में फर्जी मुकदमे भी हो रहे हैं क्या? जैसे, मीटू वाले आरोप एफआइआर में नहीं बदले? उससे धारणा बनी कि महिलाएं गलत आरोप लगाती हैं?
मेरे पास भी फर्जी मुकदमे आए थे। मैंने नहीं लिए। सिर्फ इसलिए मैं किसी फर्जी केस को सपोर्ट नहीं कर दूंगी क्योंकि मैं महिला अधिकारों की हिमायती हूं। लिव-इन में तो सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट आ ही चुका है कि सहमति के साथ रहने पर यदि आपका टकराव हुआ तो आप रेप केस नहीं कर सकते। ऐसे प्रगतिशील बदलाव हो रहे हैं। अब कुछ केस फर्जी हैं भी तो उसके कारण आप कानून को नहीं बदल देंगे। मामला ऐसे में जांच एजेंसियों पर आ जाता है। मीटू वाले केस में आज से बीस साल पहले की चीजें आप कैसे साबित करेंगे। समाज का छुपा हुआ चेहरा बस दिखाना जरूरी था, जो इस माध्यम से सामने आया। एमजे अकबर के केस में 11 महिलाओं के आरोप थे, लेकिन उस जमाने में न तो कमरे में कैमरे होते थे न ही एंड्रॉयड फोन थे।
क्या बदलाव आए हैं बीते दस साल में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में?
अपराध की प्रकृति की बात करें, तो गैंगरेप बढ़ गए हैं। दूसरा, पोक्सो के मामले भी बढ़े हैं। यह भी संभव है कि निर्भया केस के बाद जिस तरीके से महिला अधिकारों को लेकर बात होना शुरू हुई, मामलों की रिपोर्टिंग बढ़ गई हो। मीटू में जो केस निकल कर आए, वे तो बहुत पुराने थे। आज रिपोर्ट इसलिए हो रहे हैं क्योंकि महिलाएं जागरूक हुई हैं। मीटू में भी सारी औरतें बाहर नहीं आ पाईं। जब हमारे रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के ऊपर आरोप लगे और उन्होंने अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर के खुद को बरी कर लिया, तो सोचिए आप कहां जाएंगे।
पुरुषों के लिए आपकी कोई सलाह?
पुरुष कुछ नहीं करें, बस स्वीकार्यता ले आएं अपने भीतर। महिलाओं के विचारों, प्रतिभा की स्वीकार्यता हो पुरुषों में। उसे वे मनुष्य मानें। एक व्यक्ति के रूप में पहचानें, केवल वस्तु न मानें। निश्चित तौर पर बदलाव होगा। सवाल हमारे ऊपर भी है कि जहां महिलाओं के खिलाफ जुर्म हो रहे हैं, वहां हम युवाओं को, पुरुषों को जोड़ पा रहे हैं? अपनी बात उन्हें समझा पा रहे हैं क्या?