अभी डेढ़ महीने भी नहीं हुए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्यसभा में बहुमत न होने की विवशता जता रहे थे। उन्होंने जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में जाने से पहले 26 जून को कहा, “हमारा सदन में बहुमत नहीं है, इसलिए हमें आपके पास हाथ जोड़कर आना पड़ता है।” भाजपा इसी मजबूरी की वजह से पिछले पांच साल से अपने सबसे अहम वादों में एक अनुच्छेद 370 खत्म न कर पाने की दुहाई देती रही है। लेकिन पांच अगस्त को कुछ ऐसा हुआ जिसकी उम्मीद बहुत से लोगों को नहीं थी। नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद विपक्षी दलों के सहयोग से कश्मीर की तकदीर का फैसला कर दिया और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल 2019 को आसानी से पारित करा लिया। बिल के समर्थन में 125 वोट, जबकि विरोध में 61 वोट पड़े। खास बात यह थी कि सरकार को इसके लिए बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी, तेलुगुदेशम जैसे विरोधी दलों का न केवल समर्थन मिला, बल्कि बीजू जनता दल, वाइएसआर कांग्रेस जैसे तटस्थ दलों का भी समर्थन हासिल हो गया। यही नहीं, एनडीए की सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) और तृणमूल कांग्रेस ने भी वोटिंग के दौरान अनुपस्थित रह कर सरकार की राह आसान कर दी। इसके बाद बेहद आसानी से सरकार ने लोकसभा में भी 351 और 72 के मत विभाजन से विधेयक पारित करा लिया।
असल में कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने का दांव ऐसा था, जिसका कई राजनैतिक दल चाह कर भी विरोध नहीं कर पाए। खास तौर से ऐसे दल जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धुर विरोधी हैं। उनकी इस मजबूरी को तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के बयान से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा, “हम इस बिल का समर्थन नहीं कर सकते और न ही इसके विरोध में वोट कर सकते हैं। सरकार ने जो किया है, वह असंवैधानिक है।” कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद जिस तरह से कश्मीर को छोड़कर देश के दूसरे हिस्से में लोगों का समर्थन मिला, उससे राजनैतिक दल कोई जोखिम नहीं लेना चाहते हैं। अगले दो साल में हरियाणा, दिल्ली, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसी को देखते हुए कई राजनीतिक दलों ने संभल कर अपना दांव चला है।
यहां तक कि विधेयक के विरोध में खुलकर सामने आने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी कई सुर निकलकर सामने आ गए हैं। खास तौर से पार्टी के युवा नेता कश्मीर का पुनर्गठन करने और अनुच्छेद 370 में संशोधन किए जाने का समर्थन कर रहे हैं। इस फेहरिस्त में राहुल गांधी के करीबी ज्योतिरादित्य सिंधिया, हरियाणा के दीपेंद्र हुड्डा और महाराष्ट्र के प्रमुख नेता मिलिंद देवड़ा शामिल हैं। सार्वजनिक तौर पर किरकिरी होती देख कांग्रेस कार्यकारिणी ने छह अगस्त को देर रात बैठक की। इसमें सरकार के कदम को असंवैधानिक बताते हुए निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया गया। कांग्रेस नेता इस बात को समझ रहे हैं कि सरकार के कदम का खुलकर विरोध करना भारी पड़ सकता है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, “जमीनी हकीकत जो भी हो, पार्टी के नेताओं को सार्वजनिक रूप से असहमति जताने वाले बयान नहीं देने चाहिए। ऐसा करने से पार्टी की छवि को धक्का लगता है। अगर किसी मुद्दे पर असहमति है तो उस पर पार्टी के भीतर चर्चा करनी चाहिए।”
इसी तरह की ऊहापोह वाली स्थिति आम आदमी पार्टी के साथ हो गई है। पार्टी ने बिल का समर्थन कर अपने उस स्टैंड के उलट ऐक्शन लिया है, जिसमें वह राज्यों को स्वायत्तता देने की बात करती है। जम्मू-कश्मीर को अब दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया गया है। वहां पर अब लेफ्टिनेंट गवर्नर का शासन होगा। यह ठीक उसी तरह है जैसी शासन प्रणाली अभी दिल्ली में है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इसी का विरोध करते आए हैं। पार्टी का कहना है, “दिल्ली और पुदुच्चेरी की तुलना जम्मू-कश्मीर से नहीं की जा सकती है। पूर्ण कश्मीर का दो तिहाई पाकिस्तान और चीन के कब्जे में है। पिछले एक साल में कश्मीर में घुसपैठ की 150 से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। ऐसे में पार्टी देश और जनहित के अनुसार फैसला करती है।”
इस मामले में सबसे बड़ा सरप्राइज बसपा का विधेयक को समर्थन देना रहा है। इस मुद्दे पर पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और मायावती के भतीजे आकाश आनंद का कहना है, “हमने राष्ट्रीय हित को देखते हुए सरकार का समर्थन किया है। जम्मू-कश्मीर आरक्षण बिल पारित होने से वहां के दलितों को फायदा मिलेगा।” बीजू जनता दल, वाइएसआर कांग्रेस और टीआरएस का समर्थन कोई आश्चर्यजनक नहीं था, क्योंकि तीन तलाक और आरटीआइ विधेयक पर समर्थन के बाद इनसे यह उम्मीद पहले से की जा रही थी।
कांग्रेस विपक्षी दलों को अपने साथ क्यों नहीं ले पाई, इस पर कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ नेता का कहना है, “पार्टी के पास देने को क्या है कि ये दल उसके साथ आएं। भारतीय जनता पार्टी संख्या बल हासिल करने के लिए हर असंवैधानिक रास्ता अपना रही है। अभी तक पार्टी ने जो काम कर्नाटक, गोवा और अरुणाचल प्रदेश में किया, वही अब राज्यसभा में कर रही है।” इस पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव भाटिया कहते हैं, “पार्टी के लिए देशहित हमेशा ऊपर रहा है। अब जो भी लोग पार्टी के साथ जुड़ रहे हैं, वह विचारधारा से प्रभावित होकर ऐसा कर रहे हैं।”
सरकार के विरोध में खड़े होने वाले दल कांग्रेस, पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, द्रमुक, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने इस विधेयक को संविधान की आत्मा के खिलाफ बताया। कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने के मुद्दे को पार्टियां पूरी तरह से राजनैतिक नफा-नुकसान के चश्मे से देख रही हैं। इसीलिए धुर-विरोधी भी भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। हालांकि इस ऐतिहासिक कदम से कश्मीर का भविष्य क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन फिलहाल तो भाजपा ने अपने पक्ष में माहौल बना ही लिया है।
बहरहाल, जम्मू-कश्मीर जैसे व्यापक और ऐतिहासिक मुद्दे को राजनैतिक नफा-नुकसान के पलड़े में तौलना स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया की निशानी नहीं है। इसी वजह से ये आशंकाएं घर करने लगी हैं कि न्यायपूर्ण और विवेकसंपन्न रवैया राजनैतिक बिरादरी से दूर होता जा रहा है।