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विज्ञापन विवाद: संदेश पर संदेह

हाल में कई विज्ञापन सोशल मीडिया पर जबरदस्त ट्रोल हुए, लेकिन विशेषज्ञ इन्हें बदलते समाज का आईना मानते हैं
समय के साथ विज्ञापनों में भी बदलाव आता है

अभिनेत्री बिपाशा बसु मुस्कुराती हुई पेट के बल गद्दे पर लेटी हैं। उन्होंने सिर्फ अंतःवस्त्र पहन रखे हैं। सौष्ठव शरीर वाले डीनो मोरिया सिर्फ शॉर्ट्स पहने उनके ऊपर झुके हुए हैं। वे दांतों से बिपाशा का अंडरवियर उतारने की कोशिश कर रहे हैं। तस्वीर से मंद-मंद आते सेक्स के भाव को नजरअंदाज करना मुश्किल है। वह साल 1998 था। 1991 में उदारीकरण के बाद बदलाव की बयार पूरे देश में बह रही थी। उन्हीं दिनों स्विस इनरवियर ब्रांड कैडिला ने इस देश पर ‘विज्ञापन बम’ छोड़ा। विज्ञापन देखकर अनेक महिला संगठनों की भृकुटियां तन गईं। बाद में विज्ञापन वापस ले लिया गया। भारत के उभरते मध्यवर्ग को भी ब्रांड पसंद नहीं आया और कंपनी के प्रोडक्ट जल्दी ही गायब हो गए। लेकिन प्रचार के लिए सेक्स के इस्तेमाल वाला वह ‘बोल्ड और ब्यूटीफुल’ विज्ञापन एक उदाहरण के तौर पर हमारी यादों में रह गया।

अब 2021 में आते हैं। कहते हैं कि यह नया भारत है। नियम बदल गए हैं और सोशल मीडिया एजेंडा तय करता है। देश-विदेश में लोकप्रियता हासिल कर चुकी डाबर इंडिया ने पिछले दिनों फेम क्रीम के विज्ञापन के जरिए रचनात्मकता और समावेशी धर्म को दिखाने की कोशिश की। उस विज्ञापन में दो महिलाओं को आपस में करवा चौथ का त्योहार मनाते दिखाया गया। एक महिला दूसरे के चेहरे पर ब्लीच लगा रही है और दोनों एक दूसरे को छलनी से देख रही हैं।

सोशल मीडिया पर इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। कुछ लोगों ने तो इसे प्रोग्रेसिव बताकर कंपनी की प्रशंसा की। लेकिन उससे कहीं ज्यादा लोग नाराज थे। उनका कहना था कि डाबर समलैंगिकता को बढ़ावा दे रही है और यह विज्ञापन हिंदू धर्म और हिंदू त्योहारों का मजाक है। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने चेतावनी दी कि दो युवतियों का आपस में करवा चौथ का व्रत खोलने का विज्ञापन तत्काल हटाया जाए। उन्होंने पुलिस महानिदेशक विवेक जौहरी को भी मामले की जांच करने और कंपनी के न मानने पर वैधानिक कार्रवाई के निर्देश दिए। डाबर ने तत्काल विज्ञापन वापस लिया और बिना शर्त माफी भी मांगी। ‘मेड इन इंडिया’ के इस आइकॉनिक ब्रांड ने कहा कि वह विविधता, समावेश और समानता का समर्थन करती है, उसका मकसद किसी मान्यता, प्रथा, परंपरा या धर्म को ठेस पहुंचाना नहीं था।

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हाल के दिनों में ऐसे कड़े विरोध का सामना करने वाली डाबर अकेली कंपनी नहीं है। लोगों का गुस्सा शांत करने के लिए माफी मांगने और विज्ञापन वापस लेने वाली भी यह पहली कंपनी नहीं। हाल ही टायर बनाने वाली कंपनी सिएट के एक विज्ञापन पर तब विवाद हो गया जब एक भाजपा सांसद ने कहा कि यह हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला है। उस विज्ञापन में बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान लोगों से सड़कों पर नहीं बल्कि कॉलोनी के भीतर पटाखे छोड़ने की सलाह दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर आमिर खान को हिंदू विरोधी तक का तमगा दे दिया गया।

फैशन डिजाइनर सब्यसाची मुखर्जी को मंगलसूत्र का विज्ञापन तब वापस लेना पड़ा जब नरोत्तम मिश्रा ने 24 घंटे का अल्टीमेटम देते हुए कहा कि विज्ञापन न हटाया गया तो वे सब्यसाची को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस भेजेंगे। विज्ञापन वापस लेते हुए मुखर्जी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि समाज के एक वर्ग को बुरा लगा, इसके लिए मैं काफी व्यथित हूं।

कपड़ों के ब्रांड फैब इंडिया पर दबाव इतना बढ़ा कि उसे भी विज्ञापन वापस लेना पड़ा। वह विज्ञापन भारत की विविधता को दर्शाने वाला था और उसे बड़ा ही सोच समझकर कलात्मक तरीके से तैयार किया गया था। कंपनी ने त्योहारी कलेक्शन को जश्न-ए-रिवाज नाम दिया था और यही बात दक्षिणपंथियों को नागवार गुजरी। ब्रांड पर आरोप लगा कि वह हिंदुओं के दीप पर्व का ‘अब्राहमीकरण’ कर रही है। आलोचना के बाद फैब इंडिया ने विज्ञापन वापस लिया और कहा कि वह दिवाली कलेक्शन नहीं था।

इस तरह सोशल मीडिया पर इन दिनों नई तरह की बहस छिड़ गई है। कुछ लोग ऐसे प्रमोशन को अनुचित मानते हैं तो इंडस्ट्री के विशेषज्ञ सोशल मीडिया के जरिए ट्रोल किए जाने को लक्षित और एजेंडा के तहत किया गया हमला बताते हैं। विरोधी सोशल मीडिया पर कंपनी, उसके प्रोडक्ट या किसी सेलेब्रिटी का बहिष्कार करने के लिए हैशटैग का इस्तेमाल करते हैं। जिस तरह फिल्म रिलीज होने से पहले सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट देता है, उसी तरह कुछ लोग चाहते हैं कि विज्ञापनों को मंजूरी देने के लिए कोई सरकारी समिति बने। विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनियां इसलिए झुकती हैं क्योंकि उन्हें अपनी छवि और ब्रांड की फिक्र होती है।

जाने-माने विज्ञापन फिल्म निदेशक प्रहलाद कक्कड़ कहते हैं, “विज्ञापन इसलिए वापस लिए जाते हैं क्योंकि ब्रांड डरे हुए हैं। विवाद में पड़ने से उनकी नकारात्मक छवि बनती है। वे यह खतरा नहीं उठा सकते। पेप्सीको जैसे बड़े अंतरराष्ट्रीय ब्रांड ने भी माइकल जैक्सन को ब्रांड एंबेसडर से तत्काल हटा दिया था जब किसी ने जैक्शन के खिलाफ बाल यौन शोषण का मामला दर्ज कराया।” लेकिन कक्कड़ चेतावनी भरे लहजे में कहते हैं कि अगर ट्रोल इसी तरह जारी रहा तो विज्ञापन प्रोग्रेसिव नहीं रह जाएंगे।

बीते वर्षों में भारतीय विज्ञापनों को उनके कॉनसेप्ट और दूरदर्शिता के लिए काफी ख्याति मिली है। प्रॉक्टर एंड गैंबल ने 2017 में विक्स के विज्ञापन में वास्तविक ट्रांसजेंडर (हिजड़ा) गौरी सावंत और उनकी गोद ली हुई बेटी को दिखाया था। मसान फिल्म से मशहूर हुए नीरज घेवन का निर्देशित वह विज्ञापन सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और लाखों लोगों के दिलों को छू गया। विज्ञापन में ट्रांसजेंडर के अधिकारों और गोद लिए जाने के बारे में संदेश था, जो एक पत्रकार की रिपोर्ट पर आधारित था। एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय में समलैंगिक सेक्स को अपराध ठहराने वाले उपनिवेशकालीन कानून को रद्द कर दिया। वह देश के समलैंगिक समुदाय के लिए जीत का ऐतिहासिक क्षण था।

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डिजिटल मीडिया वेबसाइट शी द पीपुल की संस्थापक शैली चोपड़ा कहती हैं कि विज्ञापन किसी संदेश के लिए माध्यम का काम करते हैं। इनमें लोकप्रिय विचारों को बदलने की क्षमता होती है। वे कहती हैं, “हमें बिना डरे और अधिक विज्ञापन बनाने चाहिए। अस्सी के दशक में विज्ञापनों में महिलाओं को महज एक सामग्री के तौर पर दिखाया जाता था। अब जब महिलाएं अपने दम पर खड़ी हो रही हैं तो वे अपनी बात कहने लगी हैं तथा ज्यादा की मांग कर रही हैं।”

हालांकि सिर्फ प्रोग्रेसिव दिखने के लिए कोई बात कहना अलग बात है। दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थकों को लगता है कि एक वर्ग ऐसा है जिसे हिंदुओं और हिंदुत्व को अपमानित करने में आनंद आता है। पिछले साल टाटा समूह के ज्वैलरी ब्रांड तनिष्क को एक विज्ञापन वापस लेना पड़ा था। उसमें एक मुस्लिम परिवार अपनी हिंदू बहू की गोदभराई कर रहा था। विज्ञापन की सोशल मीडिया पर काफी आलोचना हुई। 2019 में हिंदुस्तान यूनिलीवर के ब्रांड सर्फ एक्सेल को भी तथाकथित रूप से हिंदुओं की भावनाएं आहत करने के लिए ट्रोल किया गया। उस विज्ञापन में एक लड़की अपने मुस्लिम दोस्त को होली के हुड़दंग के बीच बिना दाग के मस्जिद पहुंचने में मदद करती है। इसी साल फैशन ब्रांड के तौर पर मशहूर मान्यवर मोहे पर हिंदू विवाह रीति को नीचा दिखाने का आरोप लगा। उसके विज्ञापन में बॉलीवुड अभिनेत्री आलिया भट्ट कन्यादान की परंपरा पर सवाल करती हैं। उन दिनों मान्यवर का बायकॉट करने की अपील वाला हैशटैग काफी वायरल हुआ।

इस तरह के विवाद खड़ा करने वाले विज्ञापनों के पीछे विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल षड्यंत्र देखते हैं। वे कहते हैं, “यह सस्ती लोकप्रियता है। अतीत में भी ऐसा हुआ है। कंपनियों को आखिरकार माफी मांगनी पड़ी। हर समुदाय की संवेदनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।”

सोशल मीडिया ने विज्ञापनों का नैरेटिव पूरी तरह बदल दिया है। यह किसी भी ब्रांड को अपना प्रोडक्ट कम से कम खर्च में दिखाने का प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है। लेकिन उसी सोशल मीडिया ने बड़े पैमाने पर उनकी आलोचना का रास्ता भी बना दिया है। ट्रोल करने वाले न सिर्फ भद्दी टिप्पणियां करते हैं, बल्कि जान से मारने की धमकी भी देते हैं। चुनिंदा विज्ञापनों के खिलाफ ऑनलाइन अभियान के पीछे प्रह्लाद कक्कड़ को एक पैटर्न नजर आता है। वे कहते हैं, “ट्रोलिंग इतने व्यवस्थित और नियंत्रित तरीके से होती है कि उसे स्वाभाविक नहीं कह सकते। यह लक्षित होता है क्योंकि उसके पीछे एजेंडा है। ब्रांड की साख बचाने के लिए विज्ञापन हटाने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता।”

ऐसे समय जब देश में वैचारिक ध्रुवीकरण हो रहा है, मध्य-वाममार्गी लोग विज्ञापनों के खिलाफ इस अभियान को भारत की बहुलतावादी और समावेशी प्रकृति पर हमला मानते हैं। अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय संयोजक सदफ जफर कहती हैं, “सामाजिक विज्ञापन हमेशा से बनते रहे हैं। मुझे लगता है कि वे सिनेमा की तुलना में अधिक प्रभावी होते हैं।” वे गूगल के विज्ञापन का उदाहरण देती हैं, जिसमें दो युवा सर्च इंजन का इस्तेमाल करके अपने दादा को मिलवाते हैं। उनके दादा विभाजन के दौरान अलग हो गए थे। जफर कहती हैं, “वह बड़ा ही खूबसूरत विज्ञापन था। उसमें दोस्ती की बात कही गई है जो सीमा के पार तक जाती है।”

तमाम विवादों के बावजूद कुछ विज्ञापन ऐसे भी हुए हैं जिन्हें वैश्विक स्वीकार्यता हासिल हुई है। उदाहरण के लिए कैडबरी चॉकलेट ब्रांड का विज्ञापन। दो मिनट से कुछ ज्यादा के विज्ञापन में शाहरुख खान आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करते हैं और स्थानीय किराना स्टोर को अपनी दुकान के लिए अपने साथ मुफ्त में विज्ञापन बनाने की अनुमति देते हैं। ‘नॉट जस्ट ए कैडबरी ऐड’ (सिर्फ कैडबरी का विज्ञापन नहीं) शीर्षक वाले उस विज्ञापन में छोटे दुकानदारों की मदद करने की कोशिश की गई है, जिनका धंधा कोविड-19 महामारी के दौरान चौपट हो गया था।

कैडबरी आइकॉनिक विज्ञापनों के लिए जानी जाती है। उसका 1994 में लॉन्च किया गया डेयरी मिल्क का विज्ञापन आज भी लोगों को याद है, जिसमें एक पंक्ति है ‘क्या स्वाद है जिंदगी में।’ मूल विज्ञापन में एक लड़की क्रिकेट मैच में अपने पुरुष साथी की सफलता पर खुश होती है। इस विज्ञापन के नए स्वरूप में एक लड़के को अपनी महिला साथी की जीत पर जश्न मनाते दिखाया गया है। नया विज्ञापन देश की बदलती संवेदना पर भी टिप्पणी है, क्योंकि  यहां महिलाओं की उपलब्धियों की खुशी बहुत कम मनाई जाती है।

मुंबई के विज्ञापन फिल्म निर्माता कार्तिक भूपल रामनाथकर कहते हैं, “मेरे विचार से प्रोग्रेसिव विज्ञापन तब बनते हैं जब किसी विषय पर प्रकाश डालने की जरूरत पड़ती है। पिछड़ेपन को दिखाने वाले विज्ञापनों पर लोगों की राय अलग हो सकती है। कुछ को वह पिछड़ा तो कुछ को प्रेरणादायी लग सकता है।” कक्कड़ के अनुसार कौन कैसे सोचता है यही बात मायने रखती है। वे कहते हैं, “आज के ब्रांड लीडर में बदलाव को दिखाने का साहस है। जैसे दुल्हन गोरी न होने पर भी उसे स्वीकार करना, या मां की दूसरी शादी को बेटी की मंजूरी या फिर दो अलग धर्मों के लोगों के बीच शादी।”

विज्ञापन जगत से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि सामाजिक कायदे हर पीढ़ी के साथ बदलते हैं, और समाज की जरूरतों के मुताबिक विज्ञापनों में भी बदलाव आता है। इनमें नस्लवाद या लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियों को खारिज करने की कोशिश होती है। आज के विज्ञापनों में भी वही हो रहा है। विज्ञापन हमेशा हकीकत को ही दिखाएंगे, कड़ा विरोध होने के बावजूद।

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