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जनादेश 2022/पिछड़ा-दलित: दो दशक बाद सूखती धारा

अरसे बाद ये चुनाव नतीजे ओबीसी और दलित राजनीति के कमजोर होने के संकेत, इस वर्ग के नेताओं की धार हुई कुंद
मायावती की निष्क्रियता ने इस बार सभी को चौंकाया

हालिया चुनाव नतीजे क्या सियासत के किसी नए रंग का संकेत दे रहे हैं? क्या सामाजिक न्याय यानी पिछड़ा, दलित राजनीति का नब्बे के दशक में उदय अब अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है? क्या किसान, मजदूर, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और पहचान की राजनीति भी आखिरी सांसें गिन रही है? दरअसल, इस राजनीति के लिए सबसे अहम सूबे उत्तर प्रदेश में 2022 के चुनाव नतीजों के बाद पिछड़े और दलित नेताओं की कोई बात नहीं हो रही है। नब्बे के दशक के बाद कुछेक अपवादों (राजनाथ सिंह और रामप्रकाश गुप्ता के छोटे-छोटे कार्यकाल को छोड़कर) के अलावा ऐसा कभी हुआ कि मुख्यमंत्री की गद्दी पर कोई पिछड़ा या दलित नेता न रहा हो। तो, क्या भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग ने सामाजिक न्याय की धारा को कुंद कर दिया है?

इसके विपरीत पांच साल पहले 2017 तक जब भाजपा अपनी सोशल इंजीनियरिंग के बूते सत्ता में पहुंची थी तो उसकी कतार में ढेरों पिछड़े और दलित नेता थे। तब पार्टी ने अपने प्रदेश अध्यक्ष केशवदेव मौर्य को चेहरा बनाया था और चारों तरफ कयास यही था कि किसी पिछड़े के सिर ही ताज सजेगा। लेकिन वह नहीं हुआ। उसके बदले कट्टर हिंदुत्व के पैरोकार योगी आदित्यनाथ को कुर्सी मिली। इस बार केशव मौर्य खुद चुनाव हार गए हैं। दरअसल पिछड़े-दलित नेता भाजपा में इस अभियान के बाद पहुंचे थे कि यादव और जाटव जैसी दबंग जातियां आरक्षण का लाभ ले लेती हैं। लेकिन भाजपा सरकार ने आरक्षण को लेकर कुछ नहीं किया। इसी का लाभ लेकर अखिलेश यादव ने पिछड़े नेताओं को जोड़ने की कोशिश की। इसी प्रक्रिया में स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान जैसे नेता ऐन चुनाव के पहले सपा में आए। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य और धरम सिंह सैनी चुनाव हार गए और पिछड़ों में वह एकता नहीं हो पाई, जिसका नतीजा चुनावों में साफ दिखा। भाजपा ने इस बार लाभार्थी कार्ड से पिछड़ों को अपने पाले में रखने का जतन किया। यहां तक कि भाजपा के पाले में रहे पिछड़ा-दलित नेताओं की भी सामाजिक न्याय की धार कुंद हो गई है।

अखिलेश को लगातार जनता के मुद्दे उठाने होंगे

अखिलेश को लगातार जनता के मुद्दे उठाने होंगे

सबसे बुरी हालत तो दलित राजनीति की दिख रही है। अस्सी और नब्बे के दशक में लगातार दलितों और अति पिछड़ी जातियों को गोलबंद करके कांशीराम और मायावती की बहुजन समाज पार्टी तो यह कहलाने लायक भी नहीं बची है कि वह अब अपने को राज्य में गंभीर दावेदार कहलाने का दावा कर सके। यह आज की शायद सबसे बड़ी सियासी गुत्‍थी है कि मायावती ने क्यों इस कदर अपने को समेट लिया। यहां तक कि चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी भी कुछ खास नहीं कर पाई। अखिलेश यादव ने पिछड़ी जातियों को जरूर एक मंच पर जुटाने की कोशिश की, लेकिन दलितों को साथ लाने की खास परवाह नहीं की। वे भाजपा को चुनाव प्रचार में जोरदार चुनौती देते दिखे। लेकिन उनके मुद्दों में भी सामाजिक न्याय की धारा की खनक थोड़ी ही थी।

तो, क्या पिछड़ा, दलित सियासी धाराओं और उसी से जुड़ी पहचान की राजनीति के लिए भी ये चुनावी नतीजे खतरे की घंटी बजा रहे हैं, जैसे वामपंथी राजनीति सीधी ढलान पर दिखती है (इकलौते वाम शासित राज्य केरल में वाम मोर्चे की राजनीति भी मोटे तौर पर क्षेत्रीय अस्मिता की धारा की ओर बढ़ चली है)? पिछड़ी और दलित जातियों की सियासत यूं तो आजादी के आंदोलन के वक्त ही आकार ले चुकी थीं लेकिन उनमें जोरदार जल प्रवाह नब्बे के शुरुआती दशक में मंडल आयोग की रपट के लागू होने से आया था। करीब दो दशक तक इन धाराओं की उपेक्षा कम से कम हिंदी प्रदेशों में संभव नहीं दिख रही थी। अखिलेश का जाति जनगणना कराने और आरक्षण को बचाने का दांव भी काम नहीं आया।

यही नहीं, पंजाब में पहला दलित मुख्यमंत्री देने का कांग्रेस का दांव भी कारगर नहीं हुआ, जबकि वहां देश में सबसे अधिक 32 प्रतिशत दलित आबादी है। चरणजीत चन्नी खुद दो चुनाव क्षेत्रों से हार गए, जिन्हें हराया आम आदमी पार्टी के दलित उम्मीदवार ने। आम आदमी पार्टी भी दलित धारा की सियासत नहीं करती। तो, यह सवाल मौजूं है कि क्या पिछड़ा, दलित धाराएं सियासत बदलकर किसी और धारा में अपनी पहचान खोज रही हैं? कोई कह सकता है कि यूपी में मुफ्त राशन और कानून-व्यवस्था की कथित सख्ती का अफसाना काम आया मगर सवाल फिर भी कायम है। अगर यह एक चुनाव का असर है तो देखें आगे क्या होता है।

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