कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा पार्टी नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने से हुई किरकिरी के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, आखिरकार संगठन में बदलाव करने के लिए मजबूर हो गई। हालांकि उन्हें ऐसा करने में एक साल लग गए। बदलाव के बाद भी कार्यकारिणी समिति में कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया गया है। थोड़े-बहुत बदलाव से यह तो साफ है कि नेतृत्व ने न तो 23 वरिष्ठ नेताओं के मुद्दों को बहुत ज्यादा तरजीह दी है, और न ही निराश कार्यकर्ताओं में कोई जोश आने वाला है।
घंटों चली बैठक से पार्टी में सुधार का न तो कोई ब्लूप्रिंट निकला है और न ही कोई चुनावों में पार्टी के दोबारा जीत के रास्ते पर लौटने का फॉर्मूला सामने आया है। इसके उलट बदलावों से एक बार फिर नेहरू-गांधी परिवार की सर्वोच्चता साबित हुई है। यह भी साबित हो गया है कि नेतृत्व पर सवाल उठाने वाले 23 वरिष्ठ नेताओं का भविष्य भी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की दया पर ही टिका हुआ है। पूरे घटनाक्रम से एक बात और साबित हो गई है कि भले ही पार्टी की कमान संभालने में राहुल गांधी कोई जल्दी नहीं दिखा रहे हैं लेकिन पीछे से पार्टी वहीं चलाएंगे। संगठन में बदलाव के बाद सोनिया गांधी अपने इलाज के लिए राहुल गांधी के साथ अमेरिका चली गई हैं। अब दोनों अक्टूबर की शुरुआत में भारत लौटेंगे।
जाहिर है, संसद के मौजूदा सत्र के दौरान सोनिया और राहुल गांधी दोनों ही मौजूद नहीं हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार को कोविड के बढ़ते मामलों, चीन विवाद, गहराते आर्थिक संकट पर घेरने और विपक्षी दलों के नेताओं के साथ समन्वय बनाने की जिम्मेदारी अधीर रंजन चौधरी, गौरव गोगोई, गुलाम नबी आजाद, जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह सहित दूसरे नेताओं के कंधे पर है। सूत्रों का कहना है सोनिया और राहुल अमेरिका से लौटने के बाद पार्टी में कई अहम बदलाव करेंगे। कार्यकारिणी समिति के तीन दर्जन से ज्यादा विभाग, सेल, समितियां और उप-समूह हैं, जो फिलहाल कुछ भी नहीं कर रहे हैं, उन सबमें बदलाव की तैयारी है। एक वरिष्ठ नेता ने आउटलुक को बताया कि “पत्र लिखने वाले नेताओं से सोनिया और राहुल किस तरह निपटने का प्लान बना रहे हैं, यह पार्टी की आंतरिक समितियों में हुए बदलावों से पता चलेगा।” असल में पत्र लिखने वाले वरिष्ठ नेताओं में ज्यादातर इन आंतरिक विभागों, समितियों आदि के या तो प्रमुख हैं या फिर सदस्य हैं।
पत्र लिखने वालों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले गुलाम नबी आजाद पार्टी के कम्युनिकेशन स्ट्रैटेजी ग्रुप सहित दो प्रमुख पैनल में शामिल हैं। इसी तरह उनके साथ हस्ताक्षर करने वाले आनंद शर्मा पांच विभागों और समितियों में शामिल हैं। इनके अलावा वीरप्पा मोइली, पृथ्वीराज चह्वाण, मुकुल वासनिक, संदीप दीक्षित, कपिल सिब्बल, रेणुका चौधरी, मिलिंद देवड़ा, विवेक तन्खा भी विभिन्न पैनल में हैं। मनीष तिवारी चार विभागों और समितियों के सदस्य होने के साथ-साथ मार्च में सोनिया गांधी द्वारा बनाए गए 11 सदस्यीय सलाहकार समूह में भी शामिल हैं। ऐसे में अमेरिका से लौटने के बाद सोनिया गांधी क्या सहिष्णुता दिखाते हुए इन नेताओं पर कुछ नरमी बरतेगी या फिर उन्हें पूरी तरह दरकिनार कर देंगी, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन कार्यकारिणी में हुए बदलाव ने सोनिया के इरादों का मिला-जुला संकेत दे दिया है। पत्र लिखने वाले नेताओं में कपिल सिब्बल को छोड़कर ज्यादातर नेताओं ने अब बदलावों पर सार्वजनिक तौर पर कुछ कहना छोड़ दिया है। वासनिक और जितिन प्रसाद ने तो नई जिम्मेदारियां मिलने पर खुशी भी जताई है।
पार्टी में सुधार की मांग करने वाले समूह का अब यह कहना है कि वे अभी सोनिया गांधी के अगले कदम का इंतजार कर रहे हैं। नेतृत्व द्वारा जो बदलाव किए गए हैं, वह अभी सांकेतिक से ज्यादा कुछ नहीं है। इन बदलावों का उद्देश्य रिफॉर्म की जगह नेताओं को आपस में बांटना है।
हाल के वर्षों में कांग्रेस में गुटबाजी का सबसे अहम कारण यह रहा है कि कार्यकारिणी से लेकर महासचिव, राज्यों का प्रभार जैसी जिम्मेदारियां ज्यादातर उन नेताओं को मिली हैं, जो नेहरू-गांधी परिवार के चहेते हैं। अहम बात यह है कि पत्र लिखने वाले 23 नेताओं में से ज्यादातर इसी तरह चुने गए थे, अब वे इसी प्रक्रिया में बदलाव की बात कर रहे हैं। हालांकि खुले विरोध के बाद सोनिया गांधी ने जो बदलाव किए हैं, वह भी पुराने तरीके से ही किए गए हैं। ऐसे में नए चेहरे क्या गुल खिलाएंगे, उस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन उनका पुराना रिकॉर्ड कोई अच्छा नहीं रहा है। इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
पत्र लिखने वालों में शामिल एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने आउटलुक को बताया “इन बदलावों का केवल एक ही मकसद होना चाहिए, क्या इसके जरिए पार्टी दोबारा चुनाव जीतने के रास्ते पर लौटेगी? लेकिन दुर्भाग्य से इसका जवाब नहीं है।” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, “इस समय देखिए राज्यों का प्रभार किनके पास है, अजय माकन राजस्थान के प्रभारी हैं, पर उन्होंने दिल्ली में पार्टी की कैसे लुटिया डुबोई यह सबको पता है। इसी तरह कर्नाटक के प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला हैं, जो पार्टी के मुख्य प्रवक्ता होते हुए भी लगातार दो बारे चुनाव हार गए हैं। ऐसे में इन नेताओं को देखकर कार्यकर्ताओं में कैसे आत्मविश्वास भरेगा।”
कांग्रेस पार्टी की एक और बात पर जो आलोचना होती है कि वह अभी भी अपनी पारी खेल चुके नेताओं पर भरोसा करती है जबकि जमीन पर कई ऐसे युवा नेता हैं जो लोगों को प्रेरित कर सकते हैं। सोनिया गांधी ने इस असंतुलन को कम करने के लिए कई वरिष्ठ नेताओं को हटाकर संदेश देने की कोशिश की है। इसके तहत कार्यकारिणी के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा, आजाद, मल्लिकार्जुन खड़गे, अंबिका सोनी, लुईजिन्हो फलेरो जैसे नेताओं को महासचिव पद से हटा दिया गया है।
हालांकि इस बदलाव से पत्र लिखने वाले नेता बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं। उनका कहना है, “पुराने नेताओं को हटाकर नए नेताओं को जिम्मेदारी देने का नियम बनाया गया है तो ओमन चांडी (आंध्र प्रदेश के प्रभारी) और हरीश रावत (पंजाब के प्रभारी) को अहम जिम्मेदारी देने का क्या मतलब है?” बदलावों से साफ है कि पार्टी जहां कमजोर स्थिति में है, वहां युवाओं को जिम्मेदारी दी गई है। समस्या यह है कि नए नेता अपनी योग्यता साबित करने के लिए संगठन से ज्यादा राहुल गांधी के प्रति वफादारी दिखाएंगे।
महासचिवों की नई सूची में जितेंद्र सिंह (असम), मणिक्कम टैगोर (तेलंगाना), देवेंद्र यादव (उत्तराखंड), विवेक बंसल (हरियाणा), रजनी पाटिल (जम्मू-कश्मीर), राजीव शुक्ला (हिमाचल प्रदेश), जितिन प्रसाद (पश्चिम बंगाल, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह), दिनेश गुंडु राव (तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और गोवा) को राज्यों की जिम्मेदारी दी गई है। जितेंद्र सिंह के पास इसके पहले ओडीशा का प्रभार था, लेकिन चुनावों में बुरी हार के बावजूद राहुल गांधी से निकटता के कारण उन्हें अहम जिम्मेदारी दी गई है। इसी तरह विवेक बंसल राजस्थान में अशोक गहलोत के खिलाफ विद्रोह करने वाले सचिन पायलट के साथ खड़े थे। उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देते हुए महासचिव बनाया गया है। आजाद की जगह हरियाणा का प्रभार भी उन्हें मिला है। इसके अलावा उन्हें कार्यकारिणी में भी जगह मिली है। वहीं टैगोर और यादव ने अपनी जगह पिछले एक दशक से मेहनत करके पाई है। इसी तरह शुक्ला ने कभी चुनाव नहीं लड़ा है।
जितिन प्रसाद को बड़ी जिम्मेदारी मिलने पर गांधी परिवार के समर्थक यह कह रहे हैं कि सोनिया और राहुल के मन में पत्र लिखने वालों के खिलाफ दुराग्रह नहीं है। हालांकि पार्टी के एक सूत्र का कहना है, “असल में प्रसाद को वनवास दिया गया है। बंगाल में विधानसभा चुनाव नजदीक है। सभी को मालूम है कि पार्टी वहां बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में राहुल-प्रियंका ने बड़ी चालाकी से प्रसाद को अपने गृह प्रदेश (उत्तर प्रदेश) से दूर कर दिया है।” इसी तरह पत्र लिखने के बावजूद मुकुल वासनिक को कार्यकारिणी में न केवल बरकरार रखा गया है बल्कि उनका मध्य प्रदेश प्रभारी का पद भी बनाए रखा गया है। वे सोनिया गांधी के सहयोग के लिए बनाई गई छह सदस्यीय समिति में भी शामिल हैं। इस समिति में ए.के. एंटनी, अहमद पटेल, अंबिका सोना, के.सी. वेणुगोपाल, रणदीप सुरजेवाला को भी जगह मिली है। हालांकि यह समिति स्थायी नहीं रहेगी।
सोनिया गांधी ने इस बार 51 सदस्यीय कार्यकारिणी का विस्तार कर उसे 57 सदस्यीय कर दिया है। कार्यकारिणी में सुधार की वकालत करने वाले आजाद, आनंद शर्मा, वासनिक और प्रसाद की जगह बनी हुई है। इसी तरह वीरप्पा मोइली, भूपिंदर हुड्डा (उनके पुत्र दीपेंदर हुड्डा विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में बने रहेंगे), पृथ्वीराज चह्वाण, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, शशि थरूर को कार्यकारिणी में जगह नहीं मिली है। जबकि सलमान खुर्शीद, जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह, मीरा कुमार, प्रमोद तिवारी, देवेंद्र यादव, मनीष चतरथ, भक्तचरण दास, राजीव शुक्ला जैसे नेताओं को डॉ. मनमोहन सिंह, अंबिका सोनी, अहमद पटेल जैसे पुराने वफादारों के साथ कार्यकारिणी में जगह मिली है। सबसे चौंकाने वाली एंट्री तारिक अनवर की है, जो 1999 में शरद पवार के साथ सोनिया गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए पार्टी छोड़ गए थे। अनवर पिछले साल दोबारा कांग्रेस में आए हैं। उन्हें न केवल महासचिव बनाकर केरल और लक्षद्वीप का प्रभार दिया गया है बल्कि कार्यकारिणी में भी रखा गया है। इसके अलावा केंद्रीय चुनाव समिति का भी पुनर्गठन किया गया है।
जाहिर है, लेटर बम के बाद ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस में कुछ आमूल-चूल बदलाव होंगे। लेकिन अभी तक के बदलावों से यही लग रहा है कि बड़े बदलावों से ज्यादा पत्र लिखने वालों के पर कतरे गए हैं, जिसका उद्देश्य यही है कि वे सोनिया गांधी से सुलह कर ले और पार्टी को जो नुकसान हुआ है, उसे कुछ हद तक संभाल लिया जाए।