इस बार 71वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई, तो बहस सर्वश्रेष्ठ अभिनेता शाहरुख खान में उलझ गई। इससे उसी श्रेणी में साझा कर रहे अभिनेता विक्रांत मैसी की चर्चा दब गई। उल्लोझुक्कू के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार पाने वाली उर्वशी ने यह कह कर उत्तर-दक्षिण की खाई बढ़ा दी कि क्षेत्रीय भाषा की अनदेखी हुई है। हिंदी श्रेणी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार कटहल को मिला। राजनीति, मीडिया, पुलिस और समाज की परतों को हास्य के जरिए सामने रखती इसके लेखक अशोक मिश्रा से पुरस्कार मिलने पर आकांक्षा पारे काशिव ने बातचीत की। अंशः
कटहल का विषय अलग है, इस बारे में कैसे सोचा?
फिल्म के डायरेक्टर तथा मेरे बेटे यशोवर्धन मिश्रा ने खबर पढ़ी थी कि एक सांसद के घर से दो कटहल चोरी हो गए। उन्होंने मुझे बताया कि कटहल खोजने के लिए पुलिस लगा दी गई है। मुझे कहानी पसंद आई और हम इस पर रिसर्च करने के लिए बुंदेलखंड गए। छतरपुर में हमें एक युवा इंस्पेक्टर लड़की मिली। उसने हमें जो कहानी सुनाई, उसी से हमने फिल्म की शुरुआत की है।
स्क्रीन प्ले भी आपने लिखा?
अमूमन मैंने अब तक जितने भी स्क्रीन प्ले लिखे हैं, वह अकेले ही लिखे हैं। यह पहली बार हुआ कि मैंने और यशोवर्धन दोनों ने मिल कर इसे लिखा है।
कहानी व्यंग्य के जरिए कहने का विचार क्यों आया?
व्यंग्य में गहरी से गहरी बात कह सकते हैं। व्यंग्य मेरा जॉनर भी है। मैं वेल डन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर भी लिख चुका हूं।
आजकल हास्य फूहड़ता के बहुत करीब पहुंच गया है। आप इससे कैसे बच पाते हैं?
सही है कि आजकल फूहड़ता हास्य से ऊपर हो गई है। सभ्य तरीके से लोगों को हंसाना वाकई चुनौती होता जा रहा है। फूहड़ता आसान होती है इसलिए आसान तरीका अपना लिया जाता है। मैं कोशिश करता हूं कि व्यवस्था पर हास्य के जरिए ही चोट करूं। जैसे समर फिल्म में दलित अत्याचार है। गंभीर विषय था, लेकिन मैंने स्क्रीन प्ले ऐसा बनाया कि लोग हंसते-हंसते उसे देखते हैं। फिल्मों में हंसी का पुट हो, तो निराशा में डूबे को राहत मिलती है।
बेटे के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
कई बार अच्छा लगा कि जब चाहें बात कर सकते हैं। ट्यूनिंग अच्छी रहेगी। कई बार मतभेद हुई। लेकिन जब आप क्रिएटिव काम करते हैं, तो दूसरे के विचार को सुनना और उसे जोड़ना जरूरी होता है। उसे पूरी तरह निर्देशन का काम करना था, इसलिए कहानी को देखने की उसकी नजर बिलकुल अलग थी। मैं सिनेमा को पारंपरिक साधन मानता हूं और उसके अनुसार ही स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था, लेकिन यशोवर्धन ने मॉर्डन तड़का लगाया।
कहानी कैमरे की नजर में अलग हो जाती है, क्या ऑन द स्पॉट कुछ बदलाव हुए?
कलाकारों ने कहानी को ठीक वैसे ही लिया, जैसी पटकथा थी।
नायिका का नाम महिला बसोर है, उसे दलित दिखाने के पीछे कोई खास मकसद?
कहानी में नए डाइमेंशन के लिए ऐसा किया। दलितों को लेकर जो विमर्श है, उसे थोड़ा बल मिले। वर्ग विभाजन दिखाने के लिए अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ी।
फिल्म में खोजी पत्रकार भी है, इसकी जरूरत क्यों पड़ी?
कारण बड़ा मजेदार है। हम महोबा गए थे। वहां हमें अनुज नाम का एक स्थानीय पत्रकार मिला। उससे हमें शहरी और ग्रामीण पत्रकारों के बीच की दूरी भी पता चली। फिल्म में हमने उसका नाम भी नहीं बदला वही रखा।
कास्टिंग ने भी कहानी को उठाने में बड़ी भूमिका निभाई?
बहुत ज्यादा, क्योंकि उन्हीं लोगों की वजह से फिल्म में वास्तविकता आई। सभी कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया। चाहे वह सान्या मल्होत्रा हों, विजय राज हों, राजपाल यादव हों, अनंत जोशी हों। अभिनय अच्छा न हो तो कहानी स्क्रीन पर मर जाती है। एक्टरों की काबिलियत ही कहानी को अलग दिशा में ले गई।
नया क्या कर रहे हैं?
एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हैं। एक स्क्रिप्ट यशोवर्धन और उनकी पत्नी नियति जोशी लिख रहे हैं। दो-तीन चीजें हैं पाइपलाइन में। अगर मैं कुछ नहीं लिख रहा होता है, तो मैं ड्रामा लिखने लगता हूं। मुझे मार्जिनल लोगों की कहानी पसंद है क्योंकि छोटे लोगों की कहानी कोई नहीं कह रहा है। अभी मैंने खड़ूस नाम से एक ड्रामा लिखा है, जो एक दर्जी की कहानी है।
पुरस्कार मिलने से चीजें आसान हो जाती हैं?
बिलकुल। लोग आपको पहचानने लगते हैं। अपॉइंटमेंट मिलने में आसानी हो जाती है। लेकिन क्रिएटिवीटी की राह बिलकुल आसान नहीं है। यशोवर्धन के लिए बड़ी उपलब्धि है कि उसकी पहली ही फिल्म पर नेशनल अवॉर्ड मिला। हालांकि मेरे लिए यह बड़ा कठिन था। मुझे जब नेशनल अवॉर्ड मिला तो जो छोटे-छोटे काम में करता था, वो बंद हो गए, क्योंकि लोगों को लगने लगा था कि अब मैं ज्यादा पैसे मांगूंगा।
ओटीटी का क्या फायदा मिल रहा है?
ओटीटी आने से राइटर की वैल्यू बढ़ी है। प्रोफेशनिज्म बढ़ गया है। पैसे समय पर मिलने लगे हैं।