पता नहीं, बुजुर्ग आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी की मौत ने झकझोरा या नहीं, लेकिन अरसे बाद सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह की प्रासंगिकता पर सवाल उठा और कई हाइकोर्टों से यूएपीए, एनएसए जैसे कानूनों के दुरुपयोग पर तीखे फैसले आए तो सुलगते सवाल ज्वाला की तरह फूट पड़े। बेशक, हाल के कुछ वर्षों में असहमति और असंतोष को दबाने की खातिर इन कानूनों के दुरुपयोग के मामले बेहिसाब बढ़े हैं, लेकिन क्या यह किसी खास पार्टी की समस्या है? अलग-अलग राज्यों की पड़ताल में तो कोई साधु नहीं दिखता। इसकी नजीर देखिए:
उत्तर प्रदेश
हाल के वर्षों में बढ़े मामले
उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) ने इसी महीने कहा कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर दो सदस्यों की समिति बनाई गई है, जो यूएपीए और एनएसए के तहत दर्ज सभी मामलों की समीक्षा करेगी। दरअसल, इसमें घोषणा करने वाली कोई बात नहीं क्योंकि समिति बनाने की बात तो कानून में ही है। बल्कि सवाल तो यह होना चाहिए कि अभी तक सरकार ने समिति क्यों नहीं बनाई। योगी आदित्यनाथ के 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद यूएपीए के तहत दर्ज मामले लगातार बढ़े हैं (देखें बॉक्स)। समिति गठित करने की घोषणा के चंद रोज बाद ही मथुरा के कोर्ट ने पत्रकार सिद्दीक कप्पन और तीन अन्य को जमानत देने से मना कर दिया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने पिछले साल अक्टूबर में इन्हें गिरफ्तार किया था।
कप्पन को तब गिरफ्तार किया गया जब वे 19 साल की दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की विस्तृत रिपोर्ट के लिए हाथरस जा रहे थे। इस ‘अपराध’ के लिए कप्पन के खिलाफ आइपीसी की विभिन्न धाराओं के अलावा यूएपीए की धारा 124ए (राजद्रोह) के तहत मामला दर्ज कर लिया गया। वे 7 अक्टूबर से जेल में हैं। बीच में सुप्रीम कोर्ट ने 90 साल की बीमार मां को देखने के लिए उन्हें पांच दिन की अंतरिम जमानत दी थी। कप्पन की मां का 18 जून को केरल के मलप्पुरम में देहांत हो गया और वे अंतिम संस्कार के लिए भी न जा सके।
प्रदेश में 2019 में 498 लोगों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया। इससे पहले समाजवादी पार्टी की सरकार के आखिरी दो वर्षों में सिर्फ 38 लोग यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए थे। प्रदेश में राजद्रोह, एनएसए, आपराधिक नियम संशोधन कानून 1932 और सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने से रोकने वाले 1984 के कानून (पीडीपीपीए) का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हुआ है। प्रदेश के एक पूर्व पुलिस महानिदेशक ने नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर बताया, “सरकार के खिलाफ बोलने वालों पर यूएपीए जैसे कानून के तहत कार्रवाई करना दुर्भाग्य से सामान्य बात हो गई है। समीक्षा समिति अगर वास्तविक साक्ष्यों की जांच करने के बजाय सरकार के रवैये का ही बचाव करेगी तो ऐसी समिति बनाने का भी कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यूएपीए के ज्यादातर मामलों में साक्ष्य बेहद कमजोर होते हैं, इसलिए बहुत कम मामलों में सजा हो पाती है।”
पुनीत निकोलस यादव
बिहार-झारखंड
भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले निशाने पर
रांची के मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी की न्यायिक हिरासत में मौत ने झारखंड में विरोध प्रदर्शन तेज कर दिया है। कई स्वयंसेवी संगठन और राजनीतिक दल यूएपीए के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू करने के लिए कमर कस रहे हैं। 23 जुलाई को चंद्रशेखर आजाद की जयंती पर पीयूसीएल ने स्टैंड विद स्टेन, फ्रेंड्स एंड फैमिली ऑफ भीमा कोरेगांव, एनएपीएम, पीपुल्स वॉच, सीजेपीसी और झारखंड जनाधिकार सभा जैसे संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया। पीयूसीएल के राज्य सचिव अरविंद अविनाश ने बताया कि 15 से 28 अगस्त तक सोशल मीडिया कैंपेन भी चलाया जाएगा। ये संगठन स्टेन स्वामी की मृत्यु के मुद्दे पर एकजुटता दिखाने के लिए दस राजनीतिक दलों के साथ एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के लिए एक साझा रणनीति पर भी चर्चा करेंगे।
मानवाधिकार मामलों के विशेषज्ञ अधिवक्ता शैलेश पोद्दार का कहना है कि सरकार के विरोध को अक्सर राजद्रोह बात दिया जाता है। वे कहते हैं, “आप किसी एक शासन को दोष नहीं दे सकते। इसलिए ऐसे मामलों में दोष सिद्ध होने की दर मुश्किल से दो से तीन प्रतिशत है।” एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार, दोष सिद्ध करने की दर कम होने के प्रमुख कारण, कानून को लागू करने में ढिलाई, प्रशिक्षित अधिकारियों की कमी, काम की अधिकता और संसाधनों की कमी है।
2016 में स्टेन स्वामी की तैयार एक रिपोर्ट के अनुसार, यूएपीए के 97 फीसदी मामलों में आरोपियों के माओवादी संबंध के आरोप साबित नहीं हो सके। इनमें बड़ी संख्या में आदिवासी थे। रिपोर्ट में इस बात का विवरण दिया गया था कि कैसे पुलिस ने नक्सली होने के आरोप में निर्दोष ग्रामीणों को जेल में डाल दिया। हालांकि वे केवल भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे या कुछ जमीनी स्तर के राजनीतिक कार्यकर्ता थे जो लोगों को भाजपा के खिलाफ वोट करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।
उदाहरण के लिए, गिरिडीह के 34 साल के सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता जीतन मरांडी को 'कट्टर नक्सल' बताकर जेल भेज दिया गया था। बाद में उनकी पत्नी को भी हटिया स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। वे हैदराबाद में मानवाधिकार सम्मेलन में भाग लेने जा रही थीं। इसी तरह, पश्चिमी सिंहभूम के दो कृषि श्रमिकों लखन और महादेव को भी इस कानून के तहत जेल में डाल दिया गया। राज्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
झारखंड में अब भी बड़ी संख्या में ऐसे मामले ट्रायल की मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं। पिछली रघुवर दास सरकार ने खूंटी में 150 से अधिक लोगों के खिलाफ ट्रायल की अनुमति दी थी। हेमंत सोरेन सरकार ने मंजूरी वापस लेने का वादा किया था लेकिन ज्यादातर मामलों में कानूनी प्रक्रिया अभी जारी है। इस साल जून में गिरिडीह के डिप्टी कमिश्नर ने सरकार को अनिल और अजय महतो सहित 11 नक्सलियों के खिलाफ यूएपीए लगाने का प्रस्ताव भेजा था, जिन पर क्रमशः एक करोड़ और 25 लाख रुपये का इनाम था।
झारखंड की तरह बिहार में भी यूएपीए के अधिकांश मामले संदिग्ध नक्सलियों के खिलाफ दर्ज किए गए हैं। लेकिन कुछ उल्लेखनीय अपवाद भी हैं। 2019 में बाहुबली विधायक अनंत सिंह के घर से एके-47 और अन्य हथियार जब्त करने के बाद बिहार पुलिस ने उन पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया था। उस वक्त वे जदयू के विधायक थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मतभेद के चलते अब वे राजद के साथ हैं।
नवीन कुमार मिश्र
छत्तीसगढ़
आदिवासियों पर निशाना
राज्य में सैकड़ों आदिवासियों पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि कई आदिवासी तो कानून से भी अनजान हैं। पिछले पांच वर्षों में छत्तीसगढ़ पुलिस ने यूएपीए के तहत 21 मामले दर्ज किए, जिनमें अधिकांश 2018 में दर्ज किए गए। बुरकापाल में हुए सबसे बड़े माओवादी हमले के बाद यूएपीए के तहत 120 आदिवासियों पर मामला दर्ज किया गया। अप्रैल 2017 के माओवादी हमले के कुछ दिनों बाद 120 आदिवासियों को हिरासत में लिया गया और जेल भेज दिया गया, जहां सुकमा के बुरकापाल में सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन के 25 जवानों पर घात लगाकर हमला किया गया था। हमले के बाद सुकमा से जिन 37 आदिवासियों को हिरासत में लिया गया, उसमें बुरकापाल गांव के सरपंच मुचाकी हांडा का भाई भी शामिल है।
हांडी कहते हैं कि गांव में रहने वाले हर पुरुष को माओवादी के रूप में आरोपी बनाया गया था। हममें से जो लोग शहरों में थे, वे किस्मत वाले थे। मेरे गांव से 37 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें 7 किशोर उम्र के हैं। किशोरों को 18 महीने की जेल के बाद रिहा कर दिया गया जबकि बाकी की किस्मत लटकी हुई है क्योंकि आज तक मुकदमा शुरू नहीं हुआ है। मई 2017 में यूएपीए और अन्य आइपीसी धाराओं के तहत हिरासत में लिए गए 120 आदिवासियों में से 18-25 साल के 50 आदिवासी हैं। इनके परिवारों के लिए यूएपीए का कोई विशेष अर्थ नहीं है। उन्हें बस इतना पता है कि उनके परिजन माओवादियों के नाम पर जेल में हैं।
राज्य पुलिस के रिकॉर्ड के अनुसार पिछले 6 वर्षों में सबसे अधिक यूएपीए के मामले 2018 में दर्ज किए गए थे। उस वक्त राज्य में यूएपीए के 10 मामले दर्ज किए गए थे। 2015 से मई 2021 तक राज्य पुलिस ने यूएपीए के कुल 21 मामले दर्ज किए गए हैं। एक्टीविस्ट का दावा है कि छत्तीसगढ़ में सैकड़ों आदिवासियों पर यूएपीए अधिनियम के तहत दर्ज मामाला विवादित है।
बुरकापाल मामले में 60 से ज्यादा आरोपियों की पैरवी कर रहे वकील संजय जायसवाल ने कहा, ‘‘सिर्फ बुरकापाल का ही मामला नहीं है, बस्तर इलाके में ही यूएपीए के तहत 2000 से ज्यादा लोगों के खिलाफ मामला दर्ज है। पुलिस अदालत में आरोप तय नहीं कर पाई है इसलिए मुकदमा लंबित है। इस अधिनियम के तहत हिरासत में लिए गए लोगों के पास वास्तव में कोई विकल्प नहीं है, कोई जमानत नहीं है और सजा की दर बहुत कम है।’’ इसके तहत 2 प्रतिशत से कम लोगों को सजा मिल पाती है।
विष्णुकांत तिवारी
पश्चिम बंगाल
तृणमूल भी कम दोषी नहीं
आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी की न्यायिक हिरासत में हुई मौत के बाद राष्ट्रपति को 10 विपक्षी नेताओं द्वारा लिखे गए पत्र में यूएपीए को 'दमनकारी' कानून बताया गया है। लेकिन गौर चक्रवर्ती, मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब के बाद भारत में दूसरे व्यक्ति हैं, जिन पर यूपीए-1 सरकार ने 2008 में संशोधित यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया था। उनका मानना है कि हस्ताक्षर करने वालों में से तीन नेता, कांग्रेस की सोनिया गांधी, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी और माकपा के सीताराम येचुरी को यह कहने का हक नहीं है क्योंकि उनकी सरकारों ने भी लोगों की आजादियां छीनी हैं।
उनका कहना है कि अगर यह कानून दमनकारी है तो उनकी सरकारों के हाथ क्यों रंगे हैं? यह कानून तो कांग्रेस ने ही बनाया और माकपा ने पहली बार पश्चिम बंगाल में इसका इस्तेमाल किया और टीएमसी ने माकपा के कारनामों को जारी रखा। माकपा और टीएमसी के तहत पुलिस ने 2009 से पश्चिम बंगाल में इस के तहत 100 से अधिक लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है।
चक्रवर्ती की गिरफ्तारी ऐसे समय में हुई थी जब माओवादियों ने दक्षिण बंगाल में पश्चिम मिदनापुर, झाडग़्राम और पुरुलिया जिलों के बड़े क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया था। उस वक्त उन्होंने पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ एक जन आंदोलन का नेतृत्व किया था। देबनाथ को भांगर पॉवर ग्रिड प्रोजेक्ट के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से किए जा रहे प्रदर्शन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार किया गया था। उन्हें जमानत मिलने से पहले पांच महीने जेल में बिताने पड़े। अभी तक भांगर आंदोलन से जुड़े आठ लोगों के खिलाफ यूएपीए के मामले दर्ज हैं और वे सभी जमानत पर हैं।
ममता बनर्जी सरकार ने वाम मोर्चा सरकार के तरीकों को जारी रखा। 2012 में सरकार ने कोलकाता में झुग्गी-झोपडिय़ों को बेदखल करने के खिलाफ आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली एक कार्यकर्ता देबलीना चक्रवर्ती के खिलाफ यूएपीए लगा दिया था। अभिषेक मुखर्जी एक अन्य व्यक्ति हैं जिन्हें ममता बनर्जी सरकार ने माओवादी नेता होने का आरोप लगाते हुए यूएपीए की धाराओं के साथ जेल में डाल दिया था। उन्होंने कहा कि बनर्जी और येचुरी उक्त पत्र में "मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं"। सितंबर 2012 में गिरफ्तार होने के बाद उन्होंने डेढ़ साल जेल में बिताया।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2014 और 2017 के बीच पश्चिम बंगाल में यूएपीए के तहत 36 मामले दर्ज किए गए जिनमें 102 गिरफ्तारियां हुईं। हालांकि, इनमें कुछ मामले एनआइए ने भी दर्ज किए थे।
राज्य में 2009-11 के दौरान यूएपीए के तहत बहुत अधिक मामले दर्ज किए गए। तब राज्य में माओवादी आंदोलन चरम पर था। बंगाल के सबसे बड़े मानवाधिकार समूह, एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (एपीडीआर) के उपाध्यक्ष रंजीत सूर के अनुसार, बंगाल की जेलों में अब भी 72 राजनीतिक कैदी हैं, जिन पर भाकपा (माओवादी) से जुड़े होने का आरोप है। उनमें से ज्यादातर पर यूएपीए के तहत धाराएं लगाई गई हैं।
बुद्धदेब महतो का मामला लें, जो एक विचाराधीन कैदी है। उनकी उम्र अभी 30 साल से थोड़ी ही ज्यादा है। वह फरवरी 2010 से जेल में हैं। वह गंभीर रूप से बीमार है उनके दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं और उन्हें नियमित डायलिसिस की जरूरत है।" वर्तमान में, राज्य में 36 विचाराधीन कैदी हैं, जिन पर राज्य पुलिस ने यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया था और 2010 से जेल में हैं।
प्रोसुन चट्टोपाध्याय को अक्टूबर 2009 में गिरफ्तार किया गया था और यूएपीए की विभिन्न धाराओं के तहत उन पर मामले दर्ज किए गए थे। उनको निचली अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, लेकिन 2018 में उच्च न्यायालय ने सजा की अवधि कम कर दी थी। उन्होंने आरोप लगाया है कि टीएमसी सरकार ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए यूएपीए का इस्तेमाल किया। उन पर माओवादी नेता किशनजी का सहयोगी होने का आरोप लगाया गया था। चट्टोपाध्याय कहते हैं, "यूएपीए की विभिन्न धाराओं के तहत आरोपित कई लोग, जिनमें ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस त्रासदी के आरोपी भी शामिल हैं, टीएमसी में शामिल होने के बाद जमानत लेने में कामयाब रहे। मनोज महतो, असित महतो और अजीत महतो जैसे उदाहरण सबके सामने हैं।"
कोलकाता से स्निग्धेंदु भट्टाचार्य
ओडिशा
भूमि आंदोलनकारियों को जेल
उस घटना के एक दशक से ज्यादा बीत जाने के बाद भी, प्रतिमा दास उस दिन को याद कर कांप जाती हैं। 2008 में पुलिस ने उन्हें यूएपीए और राजद्रोह कानून के तहत गिरफ्तार किया था। लेकिन 2010 में ओडिशा की इस वकील को दोनों ही मामलों में बरी कर दिया गया। साबित हो गया कि उन्हें माओवादी दिखाने का प्रयास झूठा था। मुआवजे के लिए अदालत में मामला दायर करने वालीं नाराज दास पूछती हैं, “उन दो वर्षों के दौरान मुझे और मेरे परिवार को जो आघात और अपमान सहना पड़ा उसकी भरपाई कौन करेगा?” प्रतिमा की तरह, अथमलिक के एक्टीविस्ट तपन मिश्रा को यूएपीए के तहत माओवादियों के साथ कथित संबंधों के चलते गिरफ्तार किया गया। बरी होने से पहले उन्हें 18 महीने जेल में बिताने पड़े।
राज्य में यूएपीए लगाने का एकमात्र वाजिब मामला अल कायदा के साथ कथित संबंधों के लिए अब्दुर रहमान की गिरफ्तारी का था। राष्ट्रीय राजधानी में गिरफ्तार एक संदिग्ध आतंकी से पूछताछ के बाद दिसंबर, 2015 में दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ ने ओडिशा पुलिस की मदद से कटक के बाहरी इलाके से इस मौलवी को गिरफ्तार किया था। उसके बैंक खाते में संदिग्ध लेनदेन हुए थे, जिसे सीज कर लिया गया। तांगी में अवैध रूप से चलाए जा रहे उसके मदरसे को बंद कर दिया गया। उसमें 80 छात्र थे, जिनमें से अधिकांश पड़ोसी राज्य झारखंड के थे। सबको वापस भेज दिया गया।
हाल के दिनों में इस खतरनाक कानून के तहत ओडिशा में ज्यादा मामले दर्ज नहीं हुए हैं। एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार 2019 तक पांच साल में यूएपीए के तहत सिर्फ 10 मामले दर्ज किए गए और छह लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें पांच की गिरफ्तारी 2019 में हुई। 2017 और 2018 में न कोई मामला दर्ज किया गया न कोई गिरफ्तार हुआ। लेकिन अभी कुछ ही समय पहले यूएपीए के तहत सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें अधिकांश दक्षिणी ओडिशा के आदिवासी थे जो अपने भूमि अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। नागरिक अधिकार संगठन गणतांत्रिक अधिकार सुरक्षा संगठन (जीएएसएस) के महासचिव देब रंजन कहते हैं, “हमारे रिकॉर्ड के अनुसार, जब नारायणपत्तना में भूमि अधिकार आंदोलन 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' चरम पर था तब 2010-11 और 2013-14 के बीच यूएपीए के तहत 300 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया था। सबको बाद में अदालत ने बरी कर दिया।”
मानवाधिकार कार्यकर्ता बिश्वप्रिय कानूनगो कहते हैं, “पुलिस जब यूएपीए लगाती है, तब वो अच्छी तरह जानती है कि कोर्ट में मामला टिक नहीं पाएगा। फिर भी असंतोष को दबाने और न्याय के लिए आवाज उठाने वालों को परेशान करने के लिए ऐसा किया जाता है। यूएपीए जैसे कानून की लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।”
संदीप साहू
केरल
पिनराई सरकार पर धब्बा
केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने मुंबई के एक अस्पताल में आदिवासी एक्टीविस्ट स्टेन स्वामी की मौत पर दुख व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, “न्याय का उपहास।” लेकिन क्या यूएपीए को खत्म करने के मुख्य समर्थकों में से एक वामपंथी दल, क्या अपने उपदेश पर ही अमल करते हैं? केरल में माकपा के नेतृत्व वाले वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) के कार्यकाल के आंकड़ें दावों से मेल नहीं खाते। जून में विधानसभा सत्र के दौरान मुख्यमंत्री की स्वीकारोक्ति के अनुसार, केरल में 25 मई 2016 से 19 मई 2021 के बीच यूएपीए के तहत कुल 145 मामले दर्ज किए गए थे। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि राज्य के पुलिस प्रमुख ने आठ मामलों में सरकार से मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी, लेकिन अब तक केवल तीन को मंजूरी मिली है। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि आतंकवाद विरोधी कानून के तहत दर्ज मामलों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन समीक्षा समिति की उपस्थिति लोगों को कुछ राहत देती है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ यूएपीए के दुरुपयोग की चौतरफा आलोचना के बाद 2017 में पहली पिनराई सरकार ने एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन सदस्यीय समीक्षा समिति का गठन किया था। 2016 में चार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राज्य पुलिस ने राष्ट्रगान के तथाकथित अनादर पर कार्रवाई की थी। इस पर सरकार को आम जनता की भी नाराजगी का सामना करना पड़ा था। कड़ी प्रतिक्रिया के बाद माकपा सरकार ने वादा किया कि 2010 के बाद से राज्य में यूएपीए के तहत दर्ज सभी मामलों की समीक्षा के लिए समिति बनाई जाएगी। लेकिन एनआइए के दर्ज मामलों पर यह लागू नहीं होगा। पुलिस ने समीक्षा समिति की सिफारिशों पर यूएपीए के तहत 42 आरोप वापस ले लिए।
उच्च न्यायालय के वकील हरीश वासुदेवन का कहना है कि यूएपीए के दुरुपयोग को एक हद तक रोका जा सकता है क्योंकि समीक्षा समिति की मंजूरी के बिना पुलिस आरोप पत्र दायर नहीं कर सकती है। वे कहते हैं, “राष्ट्रीय स्तर पर, वामपंथी दल इस पर सहमत हैं कि यूएपीए समाप्त कर दिया जाना चाहिए। राज्य सरकार केंद्र के बनाए कानून के खिलाफ ज्यादा कुछ नहीं कर सकती। इसलिए उन्होंने कानून के दुरुपयोग की जांच के लिए एक समीक्षा समिति का गठन किया। किसी अन्य राज्य में यह व्यवस्था नहीं है।” हालांकि वासुदेवन का कहना है कि केरल में भी कम्युनिस्ट सरकार यूएपीए का व्यापक दुरुपयोग कर रही है। वे युवा छात्रों एलन शुएब और थाहा फजल के मामले का हवाला देते हैं, जिन पर राज्य पुलिस और एनआइए ने यूएपीए के तहत आरोप लगाया है। पुलिस ने दोनों को नवंबर 2019 में कोझीकोड से प्रतिबंधित माओवादी संगठन के साथ कथित संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया था। दोनों माकपा के सक्रिय सदस्य थे, तो मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया। पार्टी को लेखकों, कार्यकर्ताओं सहित समाज के बड़े वर्ग की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा। पार्टी का भी एक वर्ग छात्रों के समर्थन में आया, लेकिन मुख्यमंत्री ने पुलिस का पक्ष लिया। एनआइए ने मामले को अपने कब्जे में ले लिया और दोनों 10 महीने से अधिक समय तक जेल में रहे। सितंबर 2020 में एनआइए की विशेष अदालत ने दोनों को जमानत दे दी।
उच्च न्यायालय के वकील आइजैक संजय का कहना है कि विशेष अदालत के जमानत देने से साबित हो गया कि सरकार का रुख गलत था। संजय कहते हैं, “यूएपीए के प्रावधानों का ज्यादातर इस्तेमाल उन नागरिकों के खिलाफ किया जा रहा है जिनका आतंकवाद से कोई संबंध नहीं होता। किसी के खिलाफ बाद में आरोप हटाए जाते हैं, तो पुलिस को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।” मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्व नक्सली नेता के. अजिता का कहना है कि सरकार को राज्य में काले कानून का इस्तेमाल न करने के लिए स्पष्ट नीति लानी चाहिए। वे कहती हैं, “वामपंथी दल राष्ट्रीय स्तर पर यूएपीए को खत्म करने की मांग कर रहे हैं। उन्हें पहले केरल में ऐसा करना चाहिए।” हालांकि सीपीएम नेता और राज्यसभा सांसद एलमाराम करीम ऐसे आरोपों को खारिज करते हैं। वे कहते हैं, “यूएपीए खत्म करने को लेकर पार्टी दोहरा चरित्र नहीं रखती। राष्ट्रीय और राज्य, दोनों स्तर पर हमारा एक ही स्टैंड है।” करीम का कहना है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में समीक्षा समिति कानून का दुरुपयोग रोकती है।
राजनीतिक टीकाकार एन.एस. माधवन बिना किसी सबूत के दो युवाओं की गिरफ्तारी को पहली पिनराई सरकार के चंद काले धब्बों में से एक बताते हैं। वे कहते हैं, “यह वामपंथी सरकार ने किया जो बहुत निराशाजनक था।” पिछले चार वर्षों में 'कथित माओवादियों' के मुठभेड़ में मारे जाने को भी वे पुलिस की मनमानी बताते हैं। 2016 और 2019 के बीच पुलिस ने कम से कम सात लोगों को मारा, जिससे सरकार के खिलाफ भारी नाराजगी है। माधवन कहते हैं, “यूपी या बिहार की तरह पुलिस ने कह दिया कि उन लोगों ने फायरिंग की और हमें उन्हें मारना पड़ा।”
प्रीता नायर
कर्नाटक
जांच की भी जहमत नहीं
बीते महीने कर्नाटक हाइकोर्ट ने पिछले साल पूर्वी बेंगलूरू में हुए दंगों से संबंधित मामले में यूएपीए के तहत गिरफ्तार 115 व्यक्तियों को जमानत दी थी। अगस्त 2020 में हिंसा के बाद इन्हें गिरफ्तार किया गया था। नवंबर में ये लोग जमानत के लिए निचली अदालत गए। एनआइए ने निर्धारित 90 महीनों के भीतर जांच पूरी नहीं की थी। एजेंसी ने समय बढ़ाने के लिए आवेदन किया जो उसे मिल भी गया। इसलिए सबकी जमानत अर्जी खारिज कर दी गई। आरोपियों ने इस आधार पर हाइकोर्ट का रुख किया कि जांच एजेंसी को अतिरिक्त समय देने से पहले निचली अदालत ने उनकी बात नहीं सुनी, न ही उन्हें आवेदन की प्रति मिली और न ही वे सुनवाई के वक्त मौजूद थे। जून में हाइकोर्ट ने निचली अदालत के निर्णय को रद्द कर दिया और सबको जमानत दे दी।
बेंगलूरू के केजी हल्ली और डीजे हल्ली इलाकों में हुई हिंसा में यूएपीए लगाना दुर्लभ उदाहरण है। इससे पहले कर्नाटक में हुए दंगों में कभी इसका इस्तेमाल नहीं किया गया। एक विधायक के भतीजे के फेसबुक पर एक कथित आपत्तिजनक पोस्ट लिखने के बाद बेंगलूरू में दंगा भड़का था। इसमें सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्यों पर आरोप लगा था।
कर्नाटक के पूर्व सरकारी वकील बीटी वेंकटेश पिछले दो दशकों में कई मामलों में यूएपीए लागू किए जाने को याद करते हैं। इनमें 2005 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस पर आतंकवादी हमला, 2007 का आतंकवाद मामला जिसमें हम्पी का एक कश्मीरी व्यक्ति शामिल था और 2008 का बेंगलूरू ब्लास्ट केस शामिल हैं। उन्होंने कहा, “मैं 2008 के संशोधन के बहुत पहले से इन मामलों को देख रहा हूं। यूएपीए में जमानत मिलना मुश्किल है। यूएपीए लगते ही व्यक्ति को दोषी मान लिया जाता है।” बेंगलूरू में अल्टरनेटिव लॉ फोरम के संस्थापक सदस्य रह चुके एडवोकेट नारायण अरविंद का मानना है कि राजद्रोह मामले में जमानत मिलना अपेक्षाकृत आसान है। वे कहते हैं, “यूएपीए में जमानत मिलना लगभग असंभव है।”
अजय सुकुमारन
आंध्र प्रदेश
एक भी मामले में सजा नहीं
अमूमन आंध्र प्रदेश में यूएपीए का इस्तेमाल 2008 से ही किया जा रहा है, लेकिन तब से दायर मामलों में से केवल एक में मुकदमा पूरा हो पाया और उसमें भी आरोपी बरी हो गया। एक अन्य मामले में चार्जशीट दाखिल की गई थी। इन दोनों मामलों के अलावा किसी अन्य मामले में चार्जशीट तक दाखिल नहीं हो पाई। सामान्य तौर पर राज्य में ज्यादातर पूर्वी गोदावरी, विशाखापत्तनम और विजयनगरम जिलों में माओवादियों और उनसे सहानुभूति रखने वालों पर यूएपीए लगाया जा रहा है। ये वे इलाके हैं जहां घने जंगल और ओडिशा से सटी सीमा होने के कारण उग्रवाद को पनपने को आसान मौका मिलता है।
2016 से अकेले विशाखापत्तनम जिले में यूएपीए के तहत 150 लोगों के खिलाफ 450 मामले दर्ज किए गए थे। उनमें से अधिकांश आदिवासी हैं। उनमें से कुछ माओवादियों से सहानुभूति भी रखने वाले हैं। मानवाधिकार मंच (एचआरएफ) के कार्यकर्ता गुट्टा रोहित बताते हैं "आदिवासी माओवादियों और सुरक्षाबलों के बीच पिस रहे हैं। उनके लिए दोनों की बैठकों में भाग लेना अनिवार्य हो गया है। दोनों पक्षों की बैठकों के लिए भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ती है।"
ऐसे ही एक माओवादियों की बैठक में 150 लोग शामिल हुए थे। उन पर यूएपीए के तहत मामले दर्ज किए गए। इनमें से 40 माओवादियों की बैठकों में भाग लेने या उन्हें भोजन उपलब्ध कराने में शामिल थे। विशाखापत्तनम में रहने वाले एक एचआरएफ कार्यकर्ता कृष्णा कहते हैं, ''केवल माओवादी और उनके हमदर्द ही नहीं जिनके खिलाफ यूएपीए लगाया जा रहा है। पुलिस दूसरों के खिलाफ भी कानून का दुरुपयोग कर रही है। सीपीएम के 2 सदस्यों और वाईएसआरसीपी पार्टी के 6 सदस्यों के खिलाफ भी यूएपीए लगाया गया। दिलचस्प बात यह है कि वाईएसआरसीपी के वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी, अपने पूर्ववर्ती से अलग नहीं हैं। वह ऐसा तब कर रहे है, जब उनके अपने सहयोगी पूर्ववर्ती तेलुगु देशम सरकार द्वारा यूएपीए के शिकार हुए हैं। जगन मोहन रेड्डी के जून, 2019 में सत्ता में आने के बाद से 20 से अधिक मामले दर्ज किए जा चुके हैं।
हाल ही में आंध्र प्रदेश में करीब 90 लोगों के खिलाफ यूएपीए के दो मामले दर्ज किए गए थे। ये दोनों मामले नवंबर, 2020 में दायर किए गए थे। एक विशाखापत्तनम जिले मंचिंगपुट थाने में और दूसरा गुंटूर जिले के पिदुगुरल्ला थाने में। मुंचिंगपुट में 87 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था, जिनमें से लगभग 45 विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता थे जो दशकों से सार्वजनिक रूप से काम कर रहे थे। जगनमोहन रेड्डी सरकार ने राजनीतिक रूप से अस्थिर गुंटूर जिले के पिदुगुराला में 25 लोगों के खिलाफ 27 मामले दर्ज किए हैं। ये ऐसे लोग हैं जो दशकों से सार्वजनिक तौर पर काम कर रहे हैं। मुंचिंगपुट मामले में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनमें बी. अंजम्मा, आर. राजेश्वरी, ए. अन्नपूर्णा, एम. श्रीनिवास राव, जे. कोटेश्वर राव, पी. नागन्ना शामिल हैं। पी. नागन्ना को छोडक़र, सभी सार्वजनिक रूप से विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता हैं।
दिलचस्प बात यह है कि मुंचिंगपुट मामले में, पी. नागन्ना को छोडक़र, सभी को एनआईए अदालत ने जमानत दे दी है। पिदुगुरल्ला मामले में सभी को जमानत मिल गई थी। मुंचिंगपुट मामले और पिदुगुरल्ला मामले के दर्जनों अन्य आरोपियों ने राज्य उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और उसने आदेश दिया कि उनके खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। इस बीच, जैसे ही एनआईए ने मंचिंगपुट मामले को अपने हाथ में लिया, उसने 31 मार्च, 2021 को आंध्र और तेलंगाना में 30 कार्यकर्ताओं के घरों पर छापा मारा है। गिरफ्तार किए गए सभी लोगों से पूछताछ अभी भी जारी है, जो आरोपी सूची में नहीं है उन्हें जांच में शामिल होने के लिए एनआईए से नोटिस मिल रहा है।
राज्य में यूएपीए का उपयोग या दुरुपयोग शुरू हो चुका है। कार्रवाइयों से साफ है कि माओवादियों और उनके हमदर्दों के खिलाफ जिसमें ज्यादातर आदिवासी शिकार हो रहे हैं। इसके अलावा मौजूदा सरकार कानूनी रूप से संचालित मानव अधिकार संगठनों संगठनों को भी निशाना बना रही है। इन संगठनों के लगभग 50-60 कार्यकर्ताओं पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया जा चुका है।
एम.एस. शंकर
तमिलनाडु
अपेक्षाकृत सीमित मामले
तमिलनाडु में यूएपीए का इस्तेमाल राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने आइएसआइएस समर्थकों के खिलाफ और राज्य पुलिस ने ज्यादातर माओवादियों के खिलाफ किया है। 2008 से 2021 तक राज्य पुलिस ने यूएपीए के तहत केवल 98 मामले दर्ज किए। इनमें नौ मामले एनआइए को सौंप दिए गए।
एनआइए सूत्रों का कहना है कि पिछले पांच वर्षों में तमिलनाडु से आइएसआइएस के संदिग्धों के खिलाफ 27 मामले दर्ज किए गए हैं और 40 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। अक्टूबर 2019 में एनआइए के आइजी आलोक मित्तल ने खुलासा किया कि एनआइए ने अब तक 127 लोगों को गिरफ्तार किया है, जिनके आइएसआइएस से संबंध पाए गए थे। गिरफ्तार लोगों में 33 तमिलनाडु, 19 उत्तर प्रदेश, 17 केरल और 14 तेलंगाना के हैं।
सबसे अहम मामला 8 जनवरी 2020 को कन्याकुमारी-केरल सीमा पर एक चेक पोस्ट पर विशेष पुलिस उप-निरीक्षक विल्सन की हत्या का था। उस सिलसिले में छह आरोपियों को महाराष्ट्र से गिरफ्तार किया गया था। एनआइए ने छह लोगों- अब्दुल शमीम, वाई. तौफीक, खाजा मोहिदीन, महबूब पाशा, एजस पाशा और जफर अली को आरोपी बनाया है। उन पर हत्या सहित भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की विभिन्न धाराओं के साथ यूएपीए और भारतीय शस्त्र अधिनियम के कानून लगाए गए।
आरोपी के केरल और फिर महाराष्ट्र भाग जाने के बाद राज्य पुलिस ने मामले को एनआइए को सौंप दिया था। उसके बाद जनवरी 2021 में एनआइए ने विल्सन मामले में एक अन्य वांछित व्यक्ति सिराजुद्दीन को चेन्नै हवाई अड्डे पर गिरफ्तार किया, जब उसे कतर से निर्वासित कर दिया गया था। विल्सन की हत्या के बाद वह फरार हो गया था और कतर भाग गया था।
एनआइए की सबसे बड़ी धर-पकड़ जुलाई 2