Advertisement

बदलते रिश्तों का चितेरा

स्मृति
गिरिराज किशोर

हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकार गिरिराज किशोर साहित्य की दुनिया में खामोशी से रहे और 83 वर्ष की आयु में 9 फरवरी, 2020 को खामोशी से यह दुनिया छोड़कर चले गए। दिल्ली में 14 फरवरी को आयोजित उनकी शोकसभा भी खामोशी से बीती। एक-दो हिंदी आलोचकों को छोड़कर कोई हिंदी लेखक उन्हें श्रद्धांजलि देने नहीं पहुंचा। अलबत्ता कई वरिष्ठ गांधीवादी मौजूद थे।

गिरिराज किशोर शिष्ट और सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी थे। पिछले करीब पच्चीस साल से उनके साथ मेरी मित्रता थी। इस दौरान मैंने कभी उन्हें क्रोध या ऐंठ में नहीं देखा। उनका जन्म मुजफ्फरनगर के एक बड़े जमींदार परिवार में हुआ था। लेकिन उस सामंती पृष्ठभूमि का असर उनके व्यक्तित्व पर नहीं दिखता था। वे एक खांटी आधुनिक भारतीय थे और लोकतांत्रिक मूल्यों में पूरा विश्वास रखते थे। वे आइआइटी कानपुर के कुलसचिव (रजिस्ट्रार) रहे, जहां उन्हें हिंदी का आदमी होने के चलते काफी परेशान किया गया। वे निलंबित भी किए गए, अदालत से मुकदमा जीत कर बहाल हुए और आइआइटी कानपुर में रचनात्मक अध्ययन केंद्र स्थापित कराने में सफल हुए। सादगी और सरलता उनकी रचनाओं का भी गुण है।

उन्‍होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध और आलोचना विधाओं में लेखन किया है। लंबे समय तक साहित्य, आलोचना और विचार की पत्रिका ‘अकार’ का संपादन भी किया। ‘अकार’ के संपादकीयों से उनके राजनीति संबंधी रुझान और दृष्टिकोण का भी पता चलता है। अलबत्ता उनकी पहचान और प्रतिष्ठा कथाकार के रूप में रही है।

उनके उपन्यासों और कहानियों में समाज और व्यक्ति के बनते हुए रिश्तों की जटिल प्रकृति का चित्रण मिलता है। आधुनिक युग में समाज और व्यक्ति के रिश्ते की प्रकृति स्थिर नहीं होती। समय के एक खंड में समाज और व्यक्ति के रिश्ते जिन रूपों में बनते हैं, उन्हीं के आधार पर आगे के समाज और व्यक्ति का निर्माण होता चलता है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। गिरिराज किशोर की कथा-रचना-प्रक्रिया में समाज अैर व्यक्ति के बनते हुए रिश्ते के विविध रूपों और उनमें निहित संभावनाओं को चित्रित किया गया है। उनकी यह कथा-रचना-प्रक्रिया उन्हें अपने समकालीनों के बीच विशिष्ट पहचान प्रदान करती है। यही कारण है कि गिरिराज किशोर के किसी भी उपन्यास या कहानी में रचनात्मक अनुभव का ठहराव या दोहराव नहीं मिलता। ढाई घर उपन्यास, जिस पर उन्हें 1992 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला, उनकी उपन्यास कला का बेहतरीन नमूना है। उन्‍होंने स्वयं कहा है, “मुझे समाज और मनुष्य, मनुष्य और मनुष्य तथा व्यक्ति और प्रतिष्ठान के बदलते रिश्ते हमेशा आकर्षित करते रहे हैं। कहानी हो या नाटक या उपन्यास या लेख, मैं इन बदलते रिश्तों को निरंतर सामने लाने की कोशिश करता रहा हूं। मेरी इच्छा हमेशा बदलते रिश्तों का गायक बने रहने की रही है।”

अक्सर ऐसा होता है कि लेखक अपने रचनात्मक जीवन के उत्तरकाल में या तो दोहराव का शिकार होता है या वह किसी दार्शनिक-आध्यात्मिक वाद का प्रतिपादन करने लगता है। वैसे में समाज और व्यक्ति के परस्पर संघात से सृजित कला-वस्तु उनकी रचनाओं में नहीं मिलती। ऐसा लगता है, गिरिराज किशोर ने अपने को इस स्थिति से बचाने के लिए अपने रचना-कर्म के उत्तरकाल में पहला गिरमिटिया (1999) की रचना की। यह गांधी के दक्षिण अफ्रीका में बिताए बीस वर्षों के जीवनकाल पर बृहद्काय जीवनीपरक उपन्यास है। इसमें मोहनदास के गांधी बनने की प्रक्रिया का चित्रण किया गया है। उपन्यास-कला की दृष्टि से पहला गिरमिटिया जीवनीपरक उपन्यास की विधा को एक नया आयाम देता है। इस उपन्यास के प्रकाशित होते ही गिरिराज किशोर एकबारगी साहित्य-जगत की चर्चा के केंद्र में आ गए। इस कृति पर व्यास सम्मान मिला। गिरिराज किशोर ने मुझे बताया था कि जब वे यह उपन्यास लिखने के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर गए तो मुलायम सिंह यादव ने उनकी आर्थिक मदद की थी।

एक बातचीत में उन्होंने मुझे बताया कि अब वे डॉ. राममनोहर लोहिया के जीवन पर आधारित उपन्यास लिखना चाहते हैं। इस दिशा में उन्होंने कुछ शोध-कार्य भी शुरू किया था। ऐसा लगता है पहला गिरमिटिया लिखने के बाद भी वे गांधी के आकर्षण से बाहर नहीं निकल पाए। हिन्द स्वराज (1909) की रचना के सौ साल पूरा होने पर उन्होंने गांधी को फांसी दो (2009) नाटक की रचना की। उसके बाद वे कस्तूरबा की तरफ उन्मुख हुए और उनके जीवन पर आधारित बा (2016) उपन्यास लिखा। इस उपन्यास में कस्तूरबा का निजी व्यक्तित्व तो उभर कर आया ही है, उस व्यक्तित्व के आलोक में गांधी का भी एक भिन्न रूप देखने को मिलता है।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से ही अंग्रेजी समेत सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में गांधी के जीवन और विचारों का चित्रण हुआ है। यह देखना रोचक होगा कि उपनिवेशवादी दौर की रचनाओं में आए गांधी, आजादी के दौर की रचनाओं में आए गांधी और आज के नवउपनिवेशवादी दौर की रचनाओं -पहला गिरमिटिया, गांधी को फांसी दो, बा- में आए गांधी के बीच क्या समानता और भिन्नता है? नए आलोचकों और शोधार्थियों को यह तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए। हमारे बीच से खामोशी से चले गए गिरिराज किशोर को श्रद्धांजलि देने का यह भी एक तरीका हो सकता है!

Advertisement
Advertisement
Advertisement