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कश्मीर/बॉलीवुड: मुहब्बत की वादियां

पंडितों के पलायन की त्रासदी पर बनी द कश्मीर फाइल्स पर विवाद चरम पर लेकिन कभी बॉलीवुड के लिए कश्मीर की वादियों में सिर्फ प्यार ही प्यार के तराने गूंजते थे
कश्मीर के अच्छे दिनों की यादेः कश्मीर की कली फिल्म का एक दृश्य

इस जमीं से, आसमां से/फूलों के गुलस्तिान से/

जाना मुश्किल है यहां से/तौबा ये हवा है या जंजीर है/

कितनी खूबसूरत है ये तस्वीर है/ये कश्मीर है, ये कश्मीर है।

आनंद बख्शी ने 1982 में जब अमिताभ बच्चन अभिनीत बेमिसाल के लिए इस गीत की रचना की, तो लगा मानो वे बॉलीवुड की कश्मीर के प्रति पुरानी कृतज्ञता व्यक्त कर रहे हैं। अपनी खूबसूरती के लिए कश्मीर दशकों तक मुंबई के हर निर्माता-निर्देशक को अपनी ओर खींचता रहा। कश्मीर के संबंध में पाली हिल के पाशा शायद अमीर खुसरो से इत्तेफाक रखते थे कि ‘अगर धरती पर स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।’ कश्मीर लंबे समय तक बॉलीवुड के लिए स्वर्ग बना रहा। हिंदी सिनेमा गुलमर्ग में बर्फबारी के लुभावने दृश्यों, पहलगाम के हरे-भरे मैदानों या डल झील में शिकारे पर गीत के बगैर अपूर्ण था। साठ के दशक की शुरुआत से लगभग तीस वर्षों तक इसकी रमणीय वादियां हर दूसरी हिंदी फिल्म में दिखीं लेकिन दर्शकों को यह कभी उबाऊ नहीं लगीं।

परदे पर कश्मीर तब प्यार और सिर्फ प्यार का प्रतीक था, जहां प्रेमी युगल कभी चिनार के गिरते पत्तों के नीचे रोमांटिक गाने गाते, कभी शालीमार गार्डन में टहलते और कभी बर्फीली वादियों में एक-दूसरे पर बर्फ के गोले फेंकते। आज के माहौल में यह विश्वास करना कठिन हो सकता है लेकिन वे अपने प्यार की खातिर श्रीनगर में शंकराचार्य मंदिर की ऊंची सीढ़ियों पर भी खुशी-खुशी चढ़ते थे। 

बेशक, दर्शकों को ठिठुरती सर्दी में बर्फ के मैदान में प्रेमियों के एक-दूसरे से लिपटकर लुढ़कने के दुष्प्रभावों के बारे में पता होता था। वे इंतजार करते थे कि कब पाले की शिकार बेहोश नवयुवती को उसका आशिक मुंह से मुंह में सांस देकर पुनर्जीवित करेगा। इसके अलावा उसके पास कोई दूसरा चारा भी तो न था! उसके ट्रेवल गाइड ने नायक की ऊनी फिरन की जेब में न ब्रांडी की शीशी रखी थी, न नायिका को सलाह मिली थी कि प्रतिकूल मौसम में नैन-मटक्के के लिए निकलने से पहले वह कम से कम एक पश्मीना शॉल लपेट ले!

जब जब फूल खिले

जब जब फूल खिले फिल्म का एक दृश्य

फिर भी, दर्शकों को इससे कोई आपत्ति न थी। इससे उनका तो सुरम्य घाटी से हजारों किलोमीटर दूर किसी कस्बे के सीलन भरे थिएटर की बालकनी के लिए खरीदी गए टिकट का पैसा वसूल हो जाता था। भले ही वहां पसीने की धार बहानी पड़ती थी और टूटी कुर्सियों पर तीन घंटे तक खटमल ‘यलगार हो’ कहकर उन पर सामूहिक आक्रमण करते रहते थे। 

कश्मीर घाटी के साथ हिंदी सिनेमा का रोमांस वास्तव में ईस्टमैनकलर के साथ शुरू हुआ। शम्मी कपूर की जंगली (1961), जिसमें उन्होंने अपनी प्रेमिका सायरा बानो को लुभाने के लिए बर्फ से ढके पहाड़ से लुढ़कते हुए ‘याहू’ चिल्लाकर, दर्शकों को वहां की अनुपम सुंदरता दिखाकर अचंभित कर दिया। जल्द ही, उस दौर का हर बड़ा सितारा अपनी फिल्मों की शूटिंग के लिए कश्मीर जाने लगा। उस समय के कई लोकप्रिय सितारों जैसे, जॉय मुखर्जी और विश्वजीत की सफलता का श्रेय कश्मीर में फिल्माई गई रोमांटिक फिल्मों को दिया जा सकता है। आम तौर पर इनमें किसी रईस बाप की नकचढ़ी बेटी अपनी सहेलियों के साथ कश्मीर आती थी, जहां वह नायक से टकरा जाती थी। कभी कोई नकचढ़ा नायक किसी कश्मीर की कली को अपना दिल दे बैठता था। न जाने ऐसी कितनी रोमांटिक फिल्में बनीं जिनमें बंबई का कोई बड़ा सितारा नहीं बल्कि कश्मीर नायक था।     

यह चलन सत्तर के दशक में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के दौर में भी जारी रहा। यहां तक कि ‘शोमैन’ राज कपूर ने मेरा नाम जोकर (1970) की असफलता से उबरने के लिए अपनी अगली फिल्म बॉबी (1973) को कश्मीर में बड़े पैमाने पर शूट किया, जिसमें उन दिनों युवाओं में लोकप्रिय प्रेमगीत, “हम तुम एक कमरे में बंद हो” भी शामिल था। जिस गेस्ट हाउस में इस गाने की शूटिंग हुई वह बाद में कश्मीर का पर्यटन स्थल बन गया, ठीक वैसे ही जैसे स्विट्जरलैंड के कई पर्यटक स्थलों ने भारतीय सैलानियों को दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) की सफलता के बाद बड़ी संख्या में आकर्षित किया।

बॉबी का एक गाना हम तुम एक कमरे में बंद हों कश्मीर में ही फिल्माया गया

बॉबी का एक गाना हम तुम एक कमरे में बंद हों कश्मीर में ही फिल्माया गया

कश्मीर की प्राकृतिक सुंदरता को बॉलीवुड निसंदेह अनदेखा नहीं कर सकता था, लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इसकी मनोरम चोटियों और घाटियों ने तत्कालीन बॉलीवुड सितारों को बंबई की गर्मी से दूर होने का रास्ता सुझाया, विशेष रूप से सत्तर के दशक के मल्टी-स्टारर युग में, जब अधिकांश अभिनेता एक दिन में कई शिफ्ट में काम किया करते थे। उन दिनों कुछ दूरदर्शी निर्माता अपने सभी बड़े कलाकारों को परिवारों के साथ छुट्टी मनाने के बहाने कश्मीर ले जाते थे और इत्मीनान से अपनी फिल्मों की शूटिंग करते थे। बंबई में उन्हीं कलाकारों के डेट्स लेने में उन्हें नाकों चने चबाने पड़ते थे। व्यापार और आनंद का यह विलक्षण तालमेल दोनों पक्षों के लिए फायदे का सौदा साबित होता था। पहलगाम में कर्मा (1986) की शूटिंग के लिए सुभाष घई ने अपने सभी प्रमुख सितारों के साथ लंबी अवधि के लिए डेरा डाला और ऐसा उनके अधिकांश समकालीनों ने किया।

अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में सीमा पार से संचालित आतंकवादी गतिविधियों में क्रमिक वृद्धि ने कश्मीर के साथ बॉलीवुड के लंबे हनीमून के अंत की शुरुआत का संकेत दिया। कई सिनेमाघरों को आग के हवाले कर दिया गया और चारों तरफ भय का माहौल पैदा करने के लिए अलगाववादी गुटों ने बॉलीवुड फिल्मों का बहिष्कार करने की धमकी दी। कुछ ही वर्षों में, कश्मीर बॉलीवुड के लिए अशांत स्वर्ग में बदल गया। नतीजतन, शूटिंग के कारण चलने वाली हजारों लोगों की आजीविका बंद हो गई।

यह अफसोसनाक था क्योंकि अधिकतर कश्मीरी बॉलीवुड के सितारों को बिना शर्त प्यार और स्नेह देते थे। हर दूसरे शिकारेवाले के पास शम्मी कपूर या शर्मिला टैगोर की कहानी होती थी। चाहे वह मुस्लिम हो या पंडित, स्थानीय निवासी गर्व से बताते थे कि कैसे राजकुमार पहलगाम आकर बिना विग पहने घंटों गोल्फ खेलते थे। कुछ दावा करते थे कि दिलीप कुमार ने यहां की सुंदरता से प्रभावित होकर एक स्थानीय चरवाहे के नाम पर घाटी में घर बनवाया था क्योंकि किसी बाहरी को वहां संपत्ति खरीदने की कानूनी इजाजत नहीं थी।

मिशन कश्मीर

मिशन कश्मीर

घाटी में वर्षों चले संकट ने बॉलीवुड को कश्मीर का विकल्प तलाशने के लिए मजबूर किया। दुर्भाग्यवश, हिंसा की विभीषिका अपने सबसे खराब रूप में उसी दशक की शुरुआत में भड़की जब बॉलीवुड में रोमांटिक फिल्मों की वापसी हो रही थी और खान त्रयी का उदय हो रहा था। दाग (1974) और कभी-कभी (1976) जैसी फिल्में बनाने वाले कश्मीर के पुराने आशिक यश चोपड़ा ने भी नब्बे के दौर में अपनी फिल्मों के लिए स्विस आल्प्स और नीदरलैंड के ट्यूलिप गार्डन की ओर रुख किया।

उनके निर्देशक पुत्र, आदित्य चोपड़ा ने भी दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे की शूटिंग पूरे यूरोप में की। उसकी ऐतिहासिक सफलता ने अन्य निर्माताओं के बीच यूरोप जाने के लिए भगदड़-सी मचा दी। कश्मीरी पंडितों की हत्या और पलायन के साथ चरमपंथी हिंसा के कारण बॉलीवुड को धीरे-धीरे अपने पुराने स्वर्ग कश्मीर को बिसराना पड़ा। आज, कश्मीर के शिकारा मालिकों के पास आमिर, सलमान और शाहरुख खान के बारे में बताने के लिए उतनी कहानियां नहीं हैं, जितनी उनके पास बीते दिनों के सितारों के बारे में रही हैं।

आज भी बॉलीवुड की यादों से कश्मीर पूरी तरह मिट नहीं पाया है और अब कट्टरतावादी आख्यानों का हिस्सा बन गया। बाद के दौर में अधिकतर फिल्में घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के इर्द-गिर्द घूमती रहीं। इन फिल्मों में “दूध मांगो खीर देंगे, कश्मीर मांगो चीर देंगे” जैसे संवादों पर थिएटरों में तालियां बजीं। मणिरत्नम और विशाल भारद्वाज ने घाटी में उग्रवाद पर रोजा (1992) और हैदर (2014) जैसे गंभीर प्रयास किए, लेकिन अधिकतर फिल्मकारों ने इसे संजीदगी से चित्रित नहीं किया।

शिकारा का एक दृश्य

शिकारा का एक दृश्य

हालांकि, इस सब के बीच, कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा को केवल कुछ हद तक भूली-बिसरी फिल्मों में ही चित्रित किया गया था। मिशन कश्मीर (2000) जैसी विशुद्ध व्यावसायिक फिल्म बनाने वाले विधु विनोद चोपड़ा शिकारा (2020) लेकर आए, जो कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन की 30वीं वर्षगांठ पर बनाई गई एक प्रेम कहानी थी, लेकिन दर्शकों ने उसे खारिज कर दिया गया। विवेक अग्निहोत्री की हाल में प्रदर्शित कश्मीरी पंडितों की त्रासदी पर बनी विवादास्पद ब्लॉकबस्टर द कश्मीर फाइल्स घाटी या घाटी पर बनी किसी पूर्ववर्ती बॉलीवुड फिल्म से कई मायनों में जुदा है।

हैदर का एक दृश्य

हैदर का एक दृश्य

यह सच्चा इतिहास दर्शाती है या तथ्यों के साथ खिलवाड़ करती है, इस पर निर्भर करता है कि दर्शक किस पक्ष की कहानी को परदे पर देखना चाहते हैं। किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अभी बाकी है!

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