उनके पास क्या था और क्या नहीं इसका हिसाब-किताब लगाया जाए, तो यही बात निकल कर आएगी कि उनका सबसे बड़ा गुण आत्मविश्वास था। यह इकलौती चीज थी, जिसे लिए वे डीलक्स ट्रेन से हरियाणा छोड़ मुंबई पहुंचे। कुछ बन जाने की जिद में जिस शहर में वे पहुंचे थे, उसके बारे में उन्होंने मुझसे एक बार कहा था, “मुंबई कंज्यूमर सोसाइटी है और इसमें जीने की सबसे बड़ी शर्त है अपने हुनर, योग्यता को बाजार में बेच पाना। छोटे बाजार में छोटी कीमत, बड़े बाजार में बड़ी कीमत! सोचो, कौन-सा गुण है तुम्हारे पास जिसकी बाजार में ऊंची कीमत मिल सकती है? जिस शहर में कामयाब होना चाहते हो, वहां खुद को गन्ने की तरह निचोड़ डालो। जूहु में जो पानवाला है, वह जबरदस्त पान बेचता है। यह उसका स्लॉट है। वर्ली में भुट्टे वाला है उसका अपना स्लॉट है। यू नो (ये उनका तकिया कलाम था), रद्दी वाले भी यहां बड़े आदमी बने हैं यार! यहां पर हर आदमी का कोई स्लॉट है जो उसने बनाया है। एक स्लॉट मुझे मिल गया कॉमेडियन का जो मैंने एक्सेप्ट किया। अगर मैं एक्सेप्ट नहीं करता तो मुझे तरक्की नहीं मिलती। लेकिन मैंने एक्टिंग की, राइटिंग की, डायरेक्शन किया, प्रोडक्शन किया। टेलीविजन पर भी काम किया, रेडियो पर भी किया और हां, निर्माता करीम मोरानी की इवेन्ट कंपनी के लिए मैंने इंग्लैंड में वह शो भी डायरेक्ट किया, जिसमें कई फिल्म स्टारों ने अपनी परफार्मेंस दी थी। एक्टर के तौर पर डेविड धवन के साथ 16 फिल्में कीं। दीवाना मस्ताना (1997) का पप्पू पेजर का किरदार हो या कुंजबिहारी हो। हसीना मान जाएगी (1999) में ‘आइए तो सही, चलिए तो सही, बैठिये तो सही’ ये सब मेरे खुद के इम्प्रोवाइज किए हुए संवाद हैं। दीवाना मस्ताना का ‘झंटुले झटकदास’ एक फोटोग्राफर को कहा करते थे। वहीं से मैंने लिया, ‘ऐ झंटुले झटक, ज्यादा मत मटक और मेरी बात गले में सटक।’ मेरे किरदार में पप्पू पेजर हो या मुत्तुस्वामी हो, आज तक लोकप्रिय है।”
वे कहते थे, “मैक्सिम गोर्की की एक अच्छी लाइन है, अपने आप में अपनी लियाकत में यकीन रखो। कलाकार वह है, जो अपने आप में यकीन रखे और अपनी लियाकत में यकीन रखे। मैंने शौकत आजमी के साथ एक प्ले में उनके पति का रोल किया था, वह एक मतकमाऊ बाप का रोल था, जो बेटी से पैसे लेता है। तब मैं 24-25 साल का था। उसमें एक डायलॉग था जो उस प्ले में बेटी का रोल कर रही साधना सिंह के डायलॉग के जवाब में था, ‘मम्मी समझाती क्यों नहीं डैडी को, ये कुछ नहीं कर रहे है न ही कुछ करना चाहते, पता नहीं क्या काम में लगे रहते हैं, इनको नाकामयाबी ही मिलनी है।’ तो शौकत आजमी बड़ा दमदार संवाद बोलती हैं, जिसे मैंने अपनी जिंदगी का उसूल बना रखा है, ‘बेटी, इसे करने दो ये जो करना चाहता है, आदमी को अगर नाकामयाब ही होना है तो कम से कम उस काम में हो जिसे वह दिल से करना चाहता है।’ यह असल में जिंदगी का फलसफा है। इतने किरदार करने के बाद भी आज भी मुझे काम से बड़ा लगाव है।”
उनके साथ मेरी कई यादें हैं। देर रात मैं और जावेद अख्तर साहब एक बार मुंबई के पांच सितारा होटल के पोर्च में अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहे थे। इतने में होटल की लॉबी से सतीश कौशिक और बोनी कपूर भी अचानक वहां आ गए। हम लोगों में दुआ-सलाम हुई। मैंने सतीश कौशिक जी से मुखातिब होते हुए पूछा, आप यहां कैसे? उन्होंने बताया कि एक फिल्म फायनेंसर से मीटिंग करने आए हैं। मैंने चकित होकर कहा, अभी! तो उन्होंने कहा, ‘स्ट्रगल कभी खत्म नहीं होता।’
सतीश कौशिक के पिताजी सेल्समैन थे। उनको याद करते हुए एक बार उन्होंने कहा था, “जब उन पर अलजाइमर्स का पहला अटैक हुआ तो हम सब भाइयों ने उनसे कहा बाबूजी अब घर से बाहर कहीं नहीं जाओगे। उनका ट्रैवल का काम था। बाहर जाओगे तो थकान होगी। तब वे कहने लगे, बेटा, मैं जब बाहर निकलता हूं तो मुझे थकान नहीं होती। मुझे घर बैठे-बैठे थकान होती है। वही बात मुझमें है। यू नो, मुंबई महानगरी का एक ही मंत्र है, यहां बैठे रहने वाले का नसीब बैठा रहता है, लेटे रहने वाले का नसीब लेटा रहता है और चलने वालों का नसीब चलता रहता है। इस शहर में आए हो तो लगातार चलते रहो।”
यह जो चलने का कॉन्फिडेंस था, वही लेकर सतीश कौशिक मुंबई पहुंचे। फिर चाहे जाने भी दो यारो (1983) की स्क्रिप्ट पर काम करना हो या 24-25 साल की उम्र में एक जवान बेटी के बाप का रोल करना हो, दूरदर्शन के लिए 100 रुपये प्रति एपिसोड में स्क्रिप्ट राइटिंग करना हो या मिस्टर इंडिया (1987) में कैलेंडर बन जाना हो, सतीश कौशिक सदा चलते रहे। उससे पहले भी, मुंबई पहुंचकर बनारसीलाल अरोड़ा की टेक्सटाइल कंपनी में कपड़ों के बिल बनना हो, कपड़ा टेम्पो में लदवाना हो और स्टेशन भेजना हो या बाद में सलमान खान जैसे बड़े सितारे की फिल्म का निर्देशन करना हो, सतीश कौशिक कभी रुके नहीं, कभी थमे नहीं। मंडी (1983) फिल्म में काम मांगने के लिए वह श्याम बेनेगल के दफ्तर में नायर हॉस्पिटल से मिली अपनी किडनी में फंसे स्टोन का एक्सरे लेकर आत्मविश्वास की बदौलत ही सीधे धमक गए थे। फोटो मांगे जाने पर उन्होंने कहा था, “श्याम बाबू, मेरे फेस का तो पता नहीं, पर एक्स रे साथ लाया हूं। मैं अंदर से बड़ा गुड लुकिंग हूं।” सुनते ही श्याम बाबू ने उन्हें एक रोल दे दिया।
मिस्टर इंडिया की सक्सेस पार्टी पर उन्होंने अपने भाई ब्रह्मदेव कौशिक और अशोक कौशिक को पहली बार बंबई बुलाया था। वे फिल्मी दुनिया को देखकर अवाक रह गए, बोले कि हमको कभी तू कुछ बताता नहीं, देख पूरी फिल्म इंडस्ट्री आई है यहां पर। सतीश कौशिक और उनके भाइयों की आंखों में आंसू आ गए। ये वही भाई थे जो दिल्ली में डीलक्स ट्रेन से बंबई जाते हुए उन्हें समझा रहे थे कि भाई, मान जा, मत जा बंबई। तब सतीश ने जवाब दिया था, “जाने दो, भाईसाहब, मेरे को अब अपना फ्यूचर वहीं बनाना है।”
उसके बाद सतीश कौशिक ने सिर्फ अपना फ्यूचर ही मुंबई में नहीं बनाया, बल्कि उससे आई हुई समृद्धि से अपने पूरे परिवार का फ्यूचर बना डाला।
सतीश कौशिक से जब पहली बार मेरा परिचय हुआ था तो मैंने उनसे पूछा, आपसे कैसे मिला जा सकता है? उन्होंने अपना ईमेल आइडी देते हुए कहा आप कभी भी इस पर मेल कर सकते हैं। मैंने कहा सर, मैं कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं करता। दिल का करता हूं। तब उन्होंने कहा, फिर तो आप हमारी ही बिरादरी के आदमी हो। इसके बाद उनसे जो रिश्ता बना, उसे मरते दम तक उन्होंने वैसा ही रखा। न वे कभी फिल्मी सितारा बने न कभी ग्लैमर की चमक में खोए। उनसे मिलने पर ग्लैमर की हल्की झलक मिलती थी। बात करते वक्त हमेशा ऐसा लगता था किसी अपने से गुफ्तगू कर रहे हैं।
अब वैसी महफिलें कभी उनके साथ नहीं होंगी जो उनके साथ ठहाके से शुरू होकर ठहाके के साथ खत्म होती थी और हर चेहरे पर एक मुस्कराहट छोड़ जाती थी। सतीश कौशिक अपने काम की वजह से हमेशा याद रखे जाएंगे पर वे भारतीय सिनेमा में जिस आम आदमी के प्रतिनिधि और चेहरा थे, उस जगह को भर पाने में शायद बहुत वक्त लगेगा। उनकी याद आते ही एक मुस्कराहट और खिलखिलाहट जो हमारे चेहरे पर आती है, वह उनके जिंदा होने का सबूत है, भले ही वे अब हमारे बीच नहीं हैं।
(अरविंद मण्डलोई जावेद अख्तर की हाल में प्रकाशित जीवनी, जादूनामा के लेखक हैं। दिवंगत अभिनेता सतीश कौशिक उनके मित्र थे)