मेरी मां को 2007-08 के दौरान कैंसर का पता चला था। ग्वालियर में एक कैंसर हॉस्पिटल है डॉ. बीआर श्रीवास्तव का, जिनके यहां हमने उनको दिखाया था। उन्होंने ऑपरेशन किया और बोले कि अब मां को घर ले जाओ क्योंकि ये बचेंगी नहीं जबकि पहले उन्होंने कहा था कि सब ठीक हो जाएगा। हम मन मार के उन्हें ले आए। कुछ दिन बाद मम्मी घर के नियमित कामधाम में लग गईं और ऐसे ही सब चलता रहा। हमें आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर ने तो दस-पंद्रह दिन ही उनके बचने का कहा था लेकिन देखने में तो ऐसा कुछ लग नहीं रहा, उलटे वे रिकवर हो रही थीं।
हमने कुछ और डॉक्टरों से सलाह ली। उनकी राय थी कि या तो ऑपरेशन गलत हुआ है या बीमारी गलत डायग्नोज हुई है। इसलिए हमें सेकंड ओपीनियन लेना चाहिए। बहुत दबाव के बाद हम लोग मुंबई में टाटा मेमोरियल गए। वहां के डॉक्टरों का कहना था कि ऑपरेशन गलत हुआ है। उनका कहना था कि इस कैंसर का ऑपरेशन ग्वालियर में संभव ही नहीं था। हमें तब जाकर सीधे-सीधे फ्रॉड समझ में आया। बहरहाल, इसके बाद टाटा में ऑपरेशन हुआ और मां तीन साल तक जिंदा रहीं। मेरी लड़ाई यहीं से शुरू हुई। बहुत बाद में जाकर मैंने मां का ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर श्रीवास्तव और उनकी दोनों बेटियों के खिलाफ व्यापम घोटाले में एफआइआर करवाई। इस बीच की पूरी कहानी एक संयोग से शुरू हुई।
दरअसल, मैं ग्वालियर में आरएसएस की मेडिकल शाखा का काम देखता था। लौट कर आने पर मेडिकल के कुछ दोस्तों से बात हुई। उनका कहना था कि मेडिकल में कुछ अयोग्य लोग मौजूद हैं, लेकिन वे आते कैसे हैं यह उन्हें नहीं पता था। संयोग कहिए कि मेडिकल शाखा में मेरी मुलाकात एक मेडिकल छात्र से हुई जो 2009 बैच का सातवां टॉपर था। उसका नाम ब्रजेंद्र रघुवंशी था। उसके पिता देवेंद्र रघुवंशी आरएसएस में संगठन मंत्री थे और ये लोग विदिशा के रहने वाले हैं। मुझे लगता था कि टॉपर है तो तेज होगा ही, लेकिन वह पहले ही इम्तिहान में फेल हो गया। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। इसके बाद वह आरएसएस के प्रचारकों के पास दौड़ने लगा। उस समय नरोत्तम मिश्र के भाई आनंद मिश्र जीवाजी युनिवर्सिटी में रजिस्ट्रार हुआ करते थे। संघ के जिला प्रचारक थे खगेंद्र भार्गव। उन्होंने ब्रजेंद्र से कहा कि विस्तारक जी को लेकर आनंद मिश्र के पास चले जाना। विस्तारक जी मतलब मैं। और मुझे ही पता नहीं था कि मामला क्या है, मिलने क्यों जाना है। चूंकि ऊपर से कहा गया था तो मैं उसे लेकर चला गया। वो अंदर से मिलकर आया तो उसने बताया कि भाई साहब ने बोला है पुनर्मूल्यांकन में पास करवा देंगे। हुआ भी वही। तब धीरे-धीरे मुझे संदेह हुआ। फिर मैंने अनाम शिकायतें दर्ज करवानी शुरू कीं, कि मेडिकल में फर्जी मुन्नाभाई हैं। मैंने तो 2009 बैच की ही शिकायत की थी चूंकि उसके पहले का मुझे कुछ मालूम नहीं था। 2011 में एक जांच कमेटी मध्य प्रदेश शासन ने गठित की। इस कमेटी ने मध्य प्रदेश के 111 फर्जी छात्रों की पहचान की जिसमें ग्वालियर के 36 छात्र थे। इनमें ब्रजेंद्र रघुवंशी का नाम भी शामिल था।
उसके पिता ने उसे एक स्कीम बताई- अगर उसके जैसे और मुन्नाभाई निकल आए, अगर 111 के एक हजार हो जाते हैं, तो सरकार बहुमत के आगे झुक जाएगी। इसके लिए मेरी मदद से आरटीआइ लगवा के और फर्जी मुन्नाभाई निकलवाने को उन्होंने कहा। मैंने पूछा कि डरने की क्या जरूरत है, कोर्ट में केस करते हैं कि तुम्हारा नाम गलत आया है और बदनाम किया गया है। तब जाकर इसने पूरी कहानी बताई कि ऐसा नहीं था। उसका सेलेक्शन उसके पापा ने करवाया था। जब उसका पेपर हो रहा था, तब वह भोपाल के डीबी मॉल में बैठकर फिल्म देख रहा था। मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ।
फिर उसने मुझे अपनी योजना बताई- मैं पीजी कर लूंगा, फिर हम लोग अस्पताल डालेंगे, आपके नाम से गरीब लोगों को लाएंगे, उनका फ्री इलाज दिखाएंगे और उनकी किडनी, लिवर निकाल के बेचेंगे। मेरे दिमाग में आया कि इसके साथ रह के सिस्टम को जब तक समझेंगे नहीं, तब तक सिस्टम क्रैक नहीं होगा। उसको भी लगा कि इसकी मां बीमार है, इसको पैसे की जरूरत है और लोकल लड़का भी है, तो साथ ले लो। फिर इसने मुझसे कई आरटीआइ लगवाई जिससे और भी फर्जी मुन्नाभाई लोग सामने आए। इसके पीठ पीछे मैं लगातार शिकायतें भी दर्ज करवा रहा था। इसको कुछ पता नहीं था। इसके बाद 2011 में पीएमटी के दौरान मैं पूरे फर्जीवाड़े का गवाह बना। निजी कॉलेजों में सीट बेचने का पूरा फर्जीवाड़ा मेरे सामने हुआ। इसके खिलाफ पहली एफआइआर मैंने ही करवाई। अक्टूबर आते-आते इन लोगों को आखिर पता लग ही गया कि मैं ही शिकायत करवा रहा हूं।
उन्होंने मुझे बहुत बुरी तरह धमकाया। मैं थाने पहुंचा, तो उलटा मुझे ही धमका कर वापस भेज दिया गया और एफआइआर नहीं ली गई। चार दिन बाद इन्होंने मुझे एक ट्रैप में फंसाकर मेडिकल कॉलेज बुलाया और हॉस्टल में ले जाकर रूम नंबर 16 में बंद कर दिया। फिर उन्होंने मेरी बहुत पिटाई की और दबाव में कागज पर अंगूठे के निशान लगवाए। इस बीच एक लड़की के सहारे उन्होंने मुझे फंसाने की भी कोशिश की, लेकिन किसी तरह मैं बच गया। मैं एकदम मरने की स्थिति में आ गया था। एक भला लड़का था उसी हॉस्टल में, उसने मेरे परिचित एक सीनियर को कॉल कर के सारी स्थिति बतला दी। उन्होंने जब लड़कों को धमकाया, तो मुझे सड़क किनारे ले जाकर फेंक दिया गया। मैं ट्रॉमा सेंटर में भर्ती हुआ। वहां भी जान से मारने की धमकी मिली। फिर अदालत में भी इनके वकीलों ने मुझे धमकी दी, लेकिन मेरी लड़ाई चलती रही।
मैं व्यापम घोटाले में इकलौता आदमी हूं जिसकी सरकार और पुलिस ने पूरे एक साल तक कैमरे से रिकॉर्डिंग की। मेरे साथ सुरक्षा के लिए एक पुलिसवाला रहता है। सरकार ने उसके साथ एक कैमरामैन को तैनात कर दिया था। मेरे खिलाफ बहुत सारे आरोप लगाए गए थे। उसके बाद निगरानी शुरू हुई। मैंने जब इसकी वैधता पर सवाल उठाए तब कहा गया कि मैं साइकिल से चलते-चलते गायब हो जाता हूं और कैमरे में कैद नहीं हो पाता हूं। उन्होंने मुझे आदमी ही नहीं छोड़ा। अखबार ने मुझे मिस्टर इंडिया लिख दिया। जब खबर मीडिया में आई तो सारे अधिकारियों ने इनकार कर दिया कि किसी ने ऐसा आदेश दिया था। फिर मैं अदालत गया। अदालत ने अगली तारीख पर कैमरा मंगवाया, तो कैमरा गायब हो गया। आज तक मेरी शिकायत लंबित है। उस समय मध्य प्रदेश के एडीशनल एडवोकेट जनरल थे एमपीएस रघुवंशी। उन पर भी मेरे आरोप थे। उन्होंने मुझे धमकी दी थी। उन्होंने मुझे कहा कि तुम रोड पर चलते हो, रोड पर एक्सिडेंट बहुत होते हैं, संभल कर चलना। इनके खिलाफ भी मेरी शिकायत लंबित है। आप इतने बड़े वकील हो। अगर मेरे आरोप गलत थे तो मेरे खिलाफ एक्शन ले लेते।
मुझे आज भी सुरक्षा मिली हुई है, इसके बावजूद मेरे ऊपर कुल 19 बार हमले हुए हैं। सिक्योरिटी होते हुए भी 13-14 बार हमले हुए। सारी घटनाएं मैंने रिपोर्ट करवाईं। अभी तो मेरे पिताजी पर भी हमला हो गया। वे स्कूटी से ऑफिस जा रहे थे। कोई मार के निकल गया। पुलिस उसे पकड़ ही नहीं पाई। पिछले एक साल से मैं बीमार चल रहा हूं इसलिए हमले तो नहीं हुए लेकिन बीमारी से मरते-मरते बचा। मेरे दोनों हाथ और फेफड़ों का ऑपरेशन हुआ था। अभी भी मेरा इलाज चल ही रहा है। असल में पिछले साल 25 अप्रैल को मैं बीमार हुआ। पहले वायरल हुआ, फिर पेट में, फेफड़ों में इनफेक्शन हुआ। हार्ट में पानी भर गया। हालत जब ज्यादा बिगड़ गई, वेंटिलेटर पर आ गया, तब परिवार के लोगों ने 15 अगस्त को दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में भर्ती करवाया। वहीं ऑपरेशन हुआ। मेरा दायां हाथ तो इतना ज्यादा इनफेक्टेड हो गया था कि काटने की नौबत आ गई थी। उसका पांच बार ऑपरेशन हुआ था।
ये लड़ाई मैंने जब शुरू की थी तब 19 साल का था। आज 33 साल का हो चुका हूं। आज भी व्यापम में सौ से ज्यादा शिकायतें ऐसी हैं जिन्हें छुआ नहीं गया और पचास से ज्यादा ऐसी शिकायतें हैं जिनमें जांच पूरी हो चुकी है लेकिन एफआइआर दर्ज होना बाकी है। इनमें दस-पंद्रह तो मेरी ही होंगी। खुद एडीजी एसटीएफ सुधीर कुमार शाही ने टिप्पणी की है कि मेरे द्वारा लगाए आरोप प्रथम दृष्ट्या सही पाए गए हैं। इसके बाद कौन सी जांच बच जाती है?
व्यापम की लड़ाई अकेले आशीष चतुर्वेदी या आनंद राय की लड़ाई नहीं है। मेरी जमीन किसी ने नहीं ले ली। यह मध्य प्रदेश के हर उस व्यक्ति की लड़ाई है जिसका परिवार इससे प्रभावित है। जो भी कहता है कि व्यापम की लड़ाई खत्म हो गई है, समझो उसका मोरल खत्म हो चुका है।