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नजरबंदी में बेबस मौत

2011 के बाद से असम के नजरबंदी केंद्रों में विदेशी घोषित किए गए कम से कम 26 लोग मौत के शिकार हो चुके हैं
असम पेचः दुलाल चंद्र पॉल की मौत का विरोध करते लोग

नामः दुलाल चंद्र पॉल

उम्रः 65 वर्ष

मृत्युः 13 अक्टूबर, 2019

राष्ट्रीयताः अज्ञात

 

यह मेहनती किसान बिलकुल अपने पिता राजेन्द्र पॉल की तरह असम में ही पैदा हुआ और पला-बढ़ा। मध्य असम के तेजपुर शहर के पास एक गांव का यह परिवार अपनी जड़ों और पुरखों के बारे में साफ-साफ और फौरन बताने में भी पीछे नहीं रहता। फिर भी, दुलाल पॉल की 13 अक्टूबर को गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में मौत हुई तो वे बिना देश के आदमी थे। उन्हें भारत में अवैध रूप से रह रहा विदेशी घोषित किया जा चुका था और एक नजरबंदी शिविर में डाल दिया गया था। उनके 28, 25 और 14 वर्ष उम्र के तीन बेटों की भी नियति यही है और उनका भाग्य भी अनिश्चितताओं में डोल रहा है। उन तीनों के नाम भी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में नहीं आ पाए हैं, जिसे असम और उसके बाहर कई लोग राज्य में अवैध विदेशियों की पहचान का पवित्र दस्तावेज मानते हैं। लेकिन पॉल की पत्नी सुरक्षित हैं, वे भारतीय हैं, उनका नाम बेहद महत्वपूर्ण एनआरसी सूची में है।

इस बुजुर्ग की मौत तो राज्य में बांग्लादेश से आए प्रवासियों से निपटने की कोशिशों के लंबे इतिहास में महज एक फुटनोट सरीखा ही है, जिसकी खुली सीमा असम से लगती है। लेकिन उनकी मौत सिर्फ इकलौती या अपवाद भर नहीं है। ऐसे कम से कम 25 तथाकथित ‘बांग्लादेशी’ नजरबंदी शिविरों में अपनी जान गंवा चुके हैं, जो असम में ऐसे मामलों पर फैसला सुनाने वाले अर्ध-न्यायिक विदेशी न्यायाधिकरणों से गैर-भारतीय बताए जाने के बाद इस नियति को प्राप्त हुए। यही नहीं, इन न्यायाधिकरणों से संदिग्‍धों को असम के छह नजरबंदी शिविरों में भेजने और अदालतों द्वारा उन स्‍त्री-पुरुषों को नागरिकता साबित कर देने पर रिहा कर देने के मामले भी प्रचुर हैं। इस दौरान कैदी जीवन की त्रासदी उन्हें बेजार किए रहती है। क्या किसी को इसकी फिक्र है? लगता तो नहीं।

न्यायाधिकरण गलतियां करते हैं और ये गलतियां इतनी ज्यादा हैं कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का तो यही आरोप है। हर बार जब ऐसे मामले उजागर होते हैं तो गुस्सा, दुश्चिंता, हताशा, संदेह फिजा में भर जाता है। पॉल के रिश्तेदार भी ऐसी ही भावनाओं के झंझावात में हैं। उन्हें इस बात का दोष भी भला कैसे दिया जा सकता है कि उन्होंने पॉल के शव को लेने से मना कर दिया और कहा कि बांग्लादेश भेज दो। आखिर, मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने परिवार को मुकदमे में कानूनी सहायता देने का आश्वास दिया, तो मृत्यु के नौ दिन बाद पॉल का अंतिम संस्कार हो सका।

पॉल के भतीजे साधन परिवार के गुस्से और दर्द को कुछ इस तरह बयान करते हैं। वे कहते हैं, “वे जिंदा थे तो उन्हें विदेशी बताया गया और नजरबंद रखा गया। मृत्यु के बाद अधिकारी हम पर एक विदेशी का शव लेने का दबाव बनाने लगे।” इतने से उनका गुस्सा और तंज नहीं मिटा। “इसका मतलब क्या है? जिंदा थे तो विदेशी थे और मरने के बाद भारतीय हो गए?”   

कौन विदेशी है और कौन नहीं, मानो यह ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों की रेत की ‌दियारों की तरह बदलता रहता है। यह उन तमाम परिवारों की गोलबंदी की वजह बन गया है, जिनके प्रियजन नजरबंदी केंद्रों में हैं या फिर उस नरक में मौत के ‌शिकार हो चुके हैं, जहां भोजन पर भी संकट है और बुनियादी सुविधाएं तो नदारद ही हैं। सरकारी रेकॉर्ड के अनुसार 2011 से अब तक राज्य के छह नजरबंदी केंद्रों में कम से कम 26 लोग मौत के शिकार हो चुके हैं।    

ये मौतें लोगों की चेतना को झंझोड़ती तो हैं, लेकिन इन लोगों को असामयिक अंत की ओर धकेलने वाला मुद्दा बहिरागत बनाम खिलोनजिया या देसी बेहद भावनात्मक उबाल वाला है। यह मुद्दा वोट जुटाता है। सो, आश्चर्य नहीं कि राजनैतिक पार्टियां इसे लपक रही हैं। ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के प्रमुख बदरुद्दीन अजमल ने मौतों को अमानवीय और दुखद बताया और सरकार से समाधान के लिए कदम उठाने को कहा। वे कहते हैं, “यह अन्याय है। कोई विदेशी या बांग्लादेशी घोषित हो गया तो उसे बांग्लादेश भेजा जाना चाहिए। लोगों को नजरबंदी शिविरों में जानवरों की तरह रखा जा रहा है।”  

2016 में भाजपा से हारने के पहले लगातार 15 साल तक राज्य में राज करने वाली विपक्षी कांग्रेस ने इन मौतों के लिए सोनोवाल सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। असम इकाई के कांग्रेस महासचिव अपूर्व कुमार भट्टाचार्य कहते हैं, “भाजपा हिंदू बंगालियों की रक्षा करने के वादे के साथ सत्ता में आई थी, लेकिन सच्चाई क्या है?” उनका आरोप है कि पॉल की मृत्यु के बाद भी अवैध विदेशियों की पहचान में सरकार की नीति में “सहानुभूति और मानवतावादी दृष्टिकोण” गायब है। गृह विभाग की भी जिम्मेदारी संभालने वाले मुख्यमंत्री को उनकी सलाह है कि वे “तुच्छ राजनीति से ऊपर उठकर इसका हल निकालें।”

सरकारी रेकॉर्ड के मुताबिक 1,145 “विदेशियों” को नजरबंदी शिविरों में रखा गया है। उनमें 335 सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक रिहा करने के काबिल है। अदालत ने असम सरकार को निर्देश दिया है कि “विदेशी घोषित किए गए” जो लोग तीन साल से अधिक नजरबंदी शिविरों में हैं, उन्हें रिहा कर दिया जाए। लेकिन इसमें एक पेच है। आजादी की खातिर नजरबंद लोगों को पुख्ता पते के साथ एक लाख रुपये की दो जमानत देनी होगी। यह ज्यादातर लोगों के लिए मुश्किल शर्त है, क्योंकि अधिकांश निम्न मध्यवर्ग परिवारों से हैं।

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी दल समान रूप से जिस बात पर नाराजगी जता रहे हैं, वह गोआलपाड़ा के पास एक और नजरबंदी केंद्र का निर्माण है। इसमें 3,000 लोग रह सकते हैं। सरकार की इस तरह के 10 और केंद्र बनाने की योजना है। यह पिछले साल मार्च की बात है, गोआलपाड़ा में चाय बेच कर आजीविका कमाने और पांच लोगों के परिवार का भरण-पोषण करने वाले 36 साल के सुब्रत दे को पुलिस ने हिरासत में ले लिया और नजरबंदी केंद्र में भेज दिया। मई में हृदयघात से दे की मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी कामिनी दे कहती हैं, “हम इन जटिलताओं को नहीं समझते। हम यहां वर्षों से रहते आ रहे हैं। हमारे पूर्वजों के नाम 1951 के एनआरसी में शामिल हैं। फिर भी मेरे पति को विदेशी घोषित कर गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी मौत के बाद जेल के अधिकारी उनका शव लेकर आए और अंतिम संस्कार करने को मजबूर किया।”

दो बच्चों की मां यह विधवा बताती है कि एक टाइपिंग की गलती ने उनके पति को मौत के मुंह में धकेल दिया। उनका नाम जाहिरा तौर पर दस्तावेजों पर गलत तरीके से टाइप किया गया था, सुब्रत दे की जगह सुबोध दे। अधिकारी सुबोध की तलाश में थे। कामिनी कहती हैं, “उन्होंने इस मुद्दे को हल करने का वादा किया था लेकिन किसी ने भी हमारी मदद नहीं की। अब एक साल हो गया है गरीबों की मदद के लिए कोई नहीं आता। मैं पहले ही 25,000 रुपये खर्च कर चुकी हूं और अब मुझे दूसरा नोटिस थमा दिया गया है। वकील कहता है कि मेरा नाम सूची में लाने के लिए 35,000 रुपयों की जरूरत होगी।” लेकिन क्या कोई यह पूछ सकता है कि पैसे से नागरिकता कैसे खरीदी जा सकती है?

असम में किसी टाइपिस्ट की गलतियों की कीमत किसी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ सकती है, यह इसकी दर्दनाक मिसाल है। ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (एएएमएसयू) के सलाहकार, अजीजुर रहमान कहते हैं, “अधिकांश लोग, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, टाइपिस्ट की गलतियों के शिकार होकर नजरबंदी केंद्रों में रखे गए। हम चाहते हैं कि सरकार पूरी प्रक्रिया की समीक्षा करे और जो भी भारतीय पाया गया है, उसे तुरंत रिहा किया जाए।” असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के जनरल सेक्रेटरी लूरिनज्योति गोगोई कहते हैं, “सरकार को संविधान के अनुसार नीति बनानी चाहिए।”

उधर, भाजपा सरकार का दावा है कि मामला न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है। लेकिन  नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) कानून बन जाए तो ‘उत्पीड़न’ समाप्त हो जाएगा। राज्य के कैबिनेट मंत्री परिमल शुक्लवैद्य का कहना है, “सीएबी कानून बन जाए, तो ये समस्याएं नहीं होंगी। मुझे पूरी उम्मीद है कि दुलाल चंद्र पॉल का बलिदान अंतिम होगा।” सीएबी में उन गैर-मुस्लिम प्रवासियों के लिए नागरिकता का प्रावधान है, जो तीन पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न का सामना कर चुके हैं और 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में आए हैं। यह एक और गरम मुद्दा है, जिस पर हो-हल्ला मचना है।

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