इस महीने की शुरुआत में, मेरी मानिए तो सिर्फ स्टेन स्वामी की ही मौत नहीं हुई, बल्कि उसकी विडंबना का भी साथ-साथ अंत हो गया। हमेशा राजनैतिक शह जताने को तत्पर कई विपक्ष नेता उसके फौरन बाद देश के राष्ट्रपति को साझी शिकायती चिट्ठी सौंपने को इकट्ठे हुए कि जेल में बंद आदिवासी अधिकारों के एक्टीविस्ट के साथ नाइंसाफी हुई और जिस गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए) के तहत उन्हें पकड़ा गया था, वह ‘दमनकारी’ है। स्वामी की मृत्यु के बाद काफी कुछ कहा-लिखा गया है और कोई भी दिमागी संतुलन वाला आदमी उन हालात को जायज नहीं ठहरा सकता, जिनमें उन्होंने आखिरी सांस ली।
बहुरंगी विपक्षी नेताओं ने उस त्रासदी की ओर जायज ही रोशनी डाली। लेकिन वे इस मामले में गलत थे कि उन्होंने इस रोशनी में अपने को नहीं देखा और बहुत कुछ अनुत्तरित छूट गया।
हमारी सुरक्षा के मकसद से बनाए गए हमारे आतंकरोधी कानून जिंदगियां बर्बाद कर रहे हैं, जिनमें कुछ पुराने हैं मगर सभी बेहद कठोर। जैसा स्वामी और देश के विभिन्न हिस्सों में जेलों में बंद सैकड़ों दूसरे लोगों के मामले में दिखता है, इनका इस्तेमाल असंतोष को दबाने और असहमति की आवाज पर ताला जड़ने के लिए किया जाता रहा है। मूल रूप से देश की सुरक्षा के मकसद से बनाए गए यूएपीए, एनएसए और राजद्रोह जैसे कानूनों का सत्ता में काबिज लोगों को बचाने के लिए धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता रहा है। और इस मायने में कोई भी ऊंचे नैतिक पायदान पर होने का दावा नहीं कर सकता, चाहे सोनिया गांधी, ममता बनर्जी या सीताराम येचुरी जैसे राष्ट्रपति को लिखे पत्र पर दस्तखत करने वाले विपक्षी नेता ही क्यों न हों। उनसे जुड़ी पूर्व और मौजूदा सरकारें भी समान रूप से इसकी दोषी हैं।
व्यावहारिक रूप से देखा जाए, तो आतंकरोधी कानूनों का दुरुपयोग किसी एक खास राजनैतिक पार्टी की समस्या नहीं है। अगर भाजपा के राज में कानून के दुरुपयोग की कीमत स्टेन स्वामी को चुकानी पड़ी तो अनेक दूसरों का जीवन दूसरों के राज में तबाह हो गया। कांग्रेस से लेकर तृणमूल कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के राज में यह हुआ है। तय और निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया को छोटा करने के मामले में तो कोई साधु नहीं है। यूएपीए को ज्यादा सख्त बनाने का संशोधन तो तभी पारित हुआ, जब केंद्र में कांग्रेस सत्ता में थी और उसके गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने तब दलील दी थी कि लोगों को बिना जमानत जेल में बंद रखने की जरूरत कैसे और क्यों सही है। हालांकि अब वे स्तंभकार के नाते नैतिक पहरुए बने हुए हैं।
यह अलग बात है कि चिदंबरम फिलहाल खुद को हमारी एक जांच एजेंसी की पड़ताल में मुश्किल में पा रहे हैं और कुछ दिन उन्हें सीखचों के भीतर भी गुजारने पड़े। बड़ा सवाल यह है कि लोगों को जेल में डालने के लिए हमारे आतंकरोधी कानूनों का किस तरीके से दुरुपयोग किया जा रहा है, चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो। छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों पर जब भी माओवादी हमला होता है, झुंड के झुंड और शायद सैकड़ों की तादाद में स्थानीय आदिवासियों को बड़े ऑपरेशन में पकड़ा जाता है और राज्य के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में जेलों में ठूंस दिया जाता है। ये आरोप अदालत में शायद ही साबित हो पाते हैं, मगर उन्हें तो वर्षों जेल में डालकर उनकी आजादी छीन ली जाती है।
यही हाल उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बाकी जगहों का है। राजस्थान में सरकार को अस्थिर करने के आरोप में राजद्रोह जैसे कठोर कानून के तहत गिरफ्तारियां हुई हैं। ममता के बंगाल में एक बिजली परियोजना के लिए झुग्गी बस्ती उजाड़ने का विरोध कर रहे एक्टीविस्टों को यूएपीए के तहत जेल की हवा खानी पड़ी है। मणिपुर में एक पत्रकार को सत्ता के लोगों के खिलाफ महज ट्वीट करने के लिए बार-बार, तीन साल में तीन बार जेल जाना पड़ा। अलबत्ता कोई उनके ट्वीट को कुछ तीखा जरूर कह सकता है।
इस बेहिसाब दुरुपयोग की बड़ी वजह जवाबदेही का अभाव है। आखिर जब वर्षों जेल में बिताकर कोई आरोपी बरी हो जाता है तो कोई अधिकारी कभी जवाबदेह नहीं बनाया जाता। कानूनी बचाव के रास्तों से कोई फौरन दंडित नहीं हो पाता और उसे कीमत अदा नहीं करनी पड़ती। दंड और जवाबदेही की डोर ढीली कर दीजिए तो कानून का दुरुपयोग हदें छलांगने लगता है।
ऐसे बेरोकटोक दुरुपयोग पर लगाम लगनी ही चाहिए और हमेशा जनहित को सबसे ऊपर रखने वाली आउटलुक का यह अंक इसी की दुहाई देता है। जैसा कि अगले पन्नों में कानून के विद्वान फैजान मुस्तफा एक फ्रांसीसी न्यायविद के हवाले से लिखते हैं, “आखिरी जरूरत से न उपजने वाला हर दंड अत्याचार होता है।” अगर यह सही है तो आजाद भारत में आतंकरोधी कानूनों के अत्याचार की जगह यकीनन नहीं होनी चाहिए।
(समूह प्रधान संपादक)