करीब दो महीने पहले माहौल में एक समय के एक अदद राज्य जम्मू-कश्मीर के घटनाक्रमों और लंबित नागरिकता (संशोधन) विधेयक और जब-तब पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लागू करने को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की घोषणाएं गूंज रही थीं। उस समय मेरे एक पुराने मुस्लिम मित्र (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) के एक बेटे ने मायूस और कांपती आवाज में पूछा, “अंकल, क्या हम अपनी जन्मभूमि पर सुरक्षित हैं?” मेरे मुंह से “हूं!” के सिवाय कुछ नहीं निकल पाया। उसके बाद 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के दशकों पुराने अयोध्या विवाद पर आए ‘सर्वसम्मत’ फैसले ने मुझे पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ ही कर दिया है। भारत के एक नागरिक के रूप में उस युवा मुस्लिम उद्यमी को भरोसा दिलाना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने 1045 पेज के फैसले में इलाहाबाद हाइकोर्ट के 2010 के फैसले को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 2.77 एकड़ विवादित भूमि को तीन भागों में बांटने और दो-तिहाई हिस्सा हिंदुओं और एक-तिहाई मुस्लिमों को देने का फैसला तर्कहीन और कानूनी तौर पर जायज नहीं है। मेरे विचार से सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरी विवादित जमीन रामलला विराजमान को देना भी तार्किक नहीं है। रामलला विराजमान को विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में ही गढ़ा था। दोनों अदालतों के फैसलों (2010 और 2019) में समानता सिर्फ इतनी है कि हाइकोर्ट का फैसला सिर्फ आस्था पर आधारित था, जबकि ताजा फैसला धर्मनिरपेक्षता, कानून की प्रधानता और मान्यता, पूजा और प्रार्थना करने के समान अधिकार के बारे में कुछ संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्याओं के बीच सजाकर पेश किया गया है। दोनों फैसलों पर अपने-अपने समय की राजनीति की स्पष्ट छाप बेहद चौंकाने वाली है।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुआई में जस्टिस एस.ए. बोबडे, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की टीम ने जमीनी हकीकत और प्रमुख पक्षकारों की बॉडी लैंग्वेज और धार्मिक समुदायों के बारे में निश्चित ही अच्छी तरह आकलन कर लिया होगा, जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं। “हिंदू हितों” की बात करने वाले संगठनों के आक्रामक रवैए के चलते मुस्लिमों का हाशिए पर पहुंच जाना और खासकर 2002 के गुजरात दंगों के बाद अलग-थलग पड़ना आज की भारतीय राजनीति की सच्चाई है। बहुसंख्यकवाद का खतरा चारों ओर दिखाई देता है।
आनंद पटवर्धन को करीब तीन दशक पहले अपनी डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’ (अयोध्या में राम जन्मस्थान की मुक्ति के लिए चले आंदोलन के पीछे की राजनीति का खुलासा करने वाली) दिखाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। लेकिन क्या आज हालात बदले हैं? आश्चर्यजनक है कि आज भी कोलकाता की प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी और हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के छात्रों को ‘राम के नाम’ देखने की अनुमति नहीं मिली। इस फिल्म को सेंसर बोर्ड की ओर से ‘यू’ सर्टिफिकेट दिया गया है। इसे ‘बेस्ट इन्वेस्टिगेटिव डॉक्यूमेंट्री’ के तौर पर राष्ट्रीय पुरस्कार और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले। इसे दिखाने की अनुमति न देना गैर-कानूनी है। हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पुलिस बुलाई गई और छह छात्रों को गिरफ्तार किया गया। अयोध्या विवाद का समाधान निकालने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तीन सदस्यों वाली जो मध्यस्थता समिति बनाई थी, उसमें श्री श्री रविशंकर भी थे। एक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने खुला संकेत दिया था कि कोर्ट का फैसला हिंदुओं के खिलाफ गया तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। क्या टीम रंजन गोगोई के दिमाग में इस तरह की धमकी का कोई असर रहा होगा? बीते 9 नवंबर को फैसला आने के बाद यह शांति और सुकून संभवतः इस वजह से नहीं है कि प्रधानमंत्री और तमाम पार्टियों के नेताओं ने शांति बनाए रखने की अपील की, बल्कि इस वजह से है कि फैसला हिंदू मान्यताओं के आधार पर आया।
1980 के दशक में और 1990 के शुरुआती वर्षों में ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की गूंज की परिणति 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के रूप में सामने आई। ‘वहीं’ का आशय बाबरी मस्जिद के बीच की गुंबद के नीचे उस स्थान से है, जहां आस्था के अनुसार त्रेता युग में भगवान राम का जन्म हुआ था। राम मंदिर की मांग करने वाले हिंदुत्ववादी संगठनों का मुख्य तर्क है कि इस स्थान पर पहले मंदिर था, जिसे पहले मुगल बादशाह बाबर की सेना ने तोड़ दिया और उसी मंदिर की सामग्री से 1528 में मस्जिद बनवा दी। 19वीं सदी के मध्य से कथित जन्मस्थान और मस्जिद की जगह को लेकर कई सांप्रदायिक टकराव हुए। 1857 के बाद के दशकों में अंग्रेजी शासन ने इस मामले में दखल दिया। अंग्रेजों ने अक्सर हिंदू-मुस्लिमों के बीच धार्मिक खाई और चौड़ी करने का काम किया। 19वीं सदी के दौरान और 20वीं सदी के शुरू में इस स्थान को लेकर कानूनी विवाद था, लेकिन आजादी के बाद यह राजनीतिक मुद्दा बना। 22-23 दिसंबर 1949 की रात को रामलला की मूर्तियां ‘वहीं’ स्थापित कर दी गईं। उसके बाद मुस्लिमों को नमाज पढ़ने से रोक दिया गया और ताला लगा दिया गया। 1980 के दशक में ताले में बंद भगवान राम की ‘मुक्ति’ आंदोलन बन गई। सुप्रीम कोर्ट का फैसला कैसे ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ में सहायक हुआ? बाबरी मस्जिद विध्वंस के तुरंत बाद केंद्र सरकार की सलाह पर (तब पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे) राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से इस संदर्भ में सलाह मांगी कि, “क्या मस्जिद वाली जगह पर पहले कोई हिंदू मंदिर या हिंदू धार्मिक ढांचा था?” इतिहासकार और पुरातत्वविद इससे भौंचक्के रह गए (भारतीय इतिहासकारों की अकादमिक इकाई इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने फरवरी 1993 में इसके खिलाफ एक मजबूत प्रस्ताव पारित किया)। कानून के जानकारों ने भी इसकी अप्रासंगिकता और निरर्थकता को रेखांकित किया। सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ ने राष्ट्रपति के संदर्भ पर सुनवाई की और एकमत से इसे अनुचित और अप्रासंगिक माना। पीठ ने कहा कि मंदिर के अस्तित्व और मस्जिद बनाने वालों द्वारा उसे तोड़ने की बात भले सच हो, इससे हाइकोर्ट में भूमि विवाद का मामला प्रभावित नहीं होता है।
इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट की राय का पूरी तरह उल्लंघन करते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 5 मार्च 2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) को यह पता लगाने के लिए विवादित स्थल पर खुदाई का आदेश दिया कि “क्या किसी मंदिर/ढांचे को ध्वस्त करके विवादित स्थल पर मस्जिद का निर्माण किया गया था?” अयोध्याः2002-03: विवादित स्थल पर खुदाई (2003) में खुदाई के तरीकों और निष्कर्षों के खिलाफ बहुत कुछ लिखा गया। यह विडंबना है कि इसी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसले में लगभग 10 फीसदी जगह (पेज संख्या 507-599; 905-914) इस त्रुटिपूर्ण रिपोर्ट को दी है। अन्य 20 फीसदी जगह (पेज संख्या 84-104; 599-706 और 116) शिलालेख, फोटोग्राफ, यात्रा-वृत्तांत, ‘आस्था और विश्वास’ (खासतौर पर परिशिष्ट में) दिखाने वाले गजेटियर द्वारा उपलब्ध ‘प्रमाणों’ को समर्पित है। जाने-माने वकील ए.जी. नूरानी ने अयोध्या विवाद के साथ एएसआइ की रिपोर्ट जोड़ने को ‘बड़ी गलती और कानूनी नकार’ करार दिया था। शीर्ष अदालत के फैसले में ऐसा कोई सबूत नहीं है, जिसे बिना किसी आपत्ति के स्वीकार किया जा सके। वादियों की ओर से पेश किए गए हर तरह के ‘साक्ष्य’ का मूल्यांकन सावधानी से किया जाना चाहिए। अदालत ने स्पष्ट कहा है कि “जमीन के मालिकाना हक का निष्कर्ष पुरातात्विक निष्कर्षों के आधार पर नहीं निकाला जा सकता है।”
संक्षेप में, सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष हैं:
(1) 1528 से लेकर 6 दिसंबर, 1992 को गिराए जाने तक यानी 450 वर्षों से अधिक समय तक लगातार मस्जिद मौजूद रही।
(2) मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी, लेकिन एएसआइ की खुदाई से यह साबित नहीं होता कि इसके मलबे के नीचे मिले "ढांचे" को तोड़कर इसे बनाया गया था। खुदाई में मिले ढांचे और मस्जिद के निर्माण की तारीख में लगभग चार शताब्दियों का अंतराल था। इन चार शताब्दियों के दौरान क्या हुआ, यह बताने वाला कोई सबूत उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा, एएसआइ की रिपोर्ट से यह नतीजा भी नहीं निकाला जा सकता कि मस्जिद निर्माण के लिए पहले से मौजूद ढांचे के अवशेषों का इस्तेमाल किया गया था।
(3) 1934 में सांप्रदायिक दंगों के दौरान मस्जिद को नुकसान पहुंचाया गया और मुसलमानों को मस्जिद की 1,500 वर्ग गज जगह से बाहर कर दिया गया था; 22-23 दिसंबर 1949 की रात मस्जिद के अंदर अवैध तरीके से मूर्तियां रखकर उसे अपवित्र किया गया; और अंत में 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिरा दी गई, जो “कानून के शासन का घोर उल्लंघन” था। मस्जिद को जान-बूझकर नष्ट किया गया।
फैसले में परेशान करने वाले मुद्दे हैं:
(क) अगर मामले से जुड़ा कोई भी पक्ष विवादित भूमि पर मालिकाना हक का सबूत नहीं दे पाया, तो कोर्ट ने यह अधिकार उस संस्था (रामलला विराजमान) को कैसे दे दिया, जो तीस साल पहले बनी। ऐसा करने वाला संगठन “कानूनी नियमों के घोर उल्लंघन” में शामिल था। यह फैसला जिस तरह ‘संभावनाओं के संतुलन’ के तर्क के आधार पर दिया गया, वह साफ तौर पर दबंगों को पुरस्कृत करने जैसा है। (ख) यह दलील बेहद चौंकाने वाली है कि मुसलमान 1528 में मस्जिद की स्थापना से लेकर 1857 तक यहां नमाज पढ़े जाने की बात साबित नहीं कर पाए। फिर वे वहां कर क्या रहे थे? निश्चित रूप से यह कोई रंग-मंडप नहीं था, जो 10वीं सदी के बाद हिंदू मंदिरों का एक अभिन्न अंग रहा है!
मुस्लिमों के लिए अयोध्या में मस्जिद बनाने के लिए महत्वपूर्ण जगह पर पांच एकड़ जमीन देना खैरात की तरह लगता है। यह आंसू पोंछने वाला कदम है। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद-142 को लागू किया गया। इस अनुच्छेद का बेहतर इस्तेमाल हो सकता था अगर कोर्ट ने केंद्र सरकार को विवादित स्थल पर अस्पताल या अयोध्या की बहु-सांस्कृतिक पहचान का भव्य संग्रहालय बनाने का आदेश दिया होता।
शीर्ष अदालत ने फैसला देने के बजाय मध्यस्थता जैसा सेटलमेंट किया है। इसके जरिए कोर्ट ने नई कथा का निर्माण किया और दिलचस्प ऐतिहासिक तथ्य स्थापित किया। अब भगवान राम का जन्मस्थान पूरा अयोध्या शहर होने के बजाय एक छोटी-सी जगह- “वहीं” -नया पवित्र स्थल बन गया है। दूसरा, यह कि बाबर द्वारा मस्जिद बनाने के लिए राम मंदिर तोड़ने के कथित खलनायक वाले काम को स्पष्ट रूप से मिथक के रूप में दिखाया गया है। इसलिए, तथाकथित सहिष्णु हिंदुओं को इस कलंक के साथ रहना होगा कि उन्होंने भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए 450 साल पुरानी मस्जिद को तोड़ा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पूर्व प्रोफेसर हैं)