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कई पेचीदगियों से फैसले की समीक्षा जरूरी

अयोध्या मामले में एक अहम पक्षकार और वरिष्ठ वकील जफरयाब जिलानी लंबे समय से इसकी पैरवी करते रहे हैं। वे नब्बे के दशक में बनी बाबरी मस्जिद ऐक्शकन कमेटी के संयोजक और फिर उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील के साथ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव भी हैं। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ के फैसले पर उनकी राय अहम है। उन्होंने फैसले के फौरन बाद इसकी समीक्षा के लिए पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की अपनी राय भी सार्वजनिक की। लेकिन बकौल उनके, इसका फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में ही लिया जाएगा। उन्होंने वरिष्ठ संवाददाता शशिकांत से बातचीत में फैसले की पे‌चीदगियों के बारे में विस्तार से बताया। मुख्य अंशः
जफरयाब जिलानी

अयोध्या मामले में एक अहम पक्षकार और वरिष्ठ वकील जफरयाब जिलानी लंबे समय से इसकी पैरवी करते रहे हैं। वे नब्बे के दशक में बनी बाबरी मस्जिद ऐक्‍शन कमेटी के संयोजक और फिर उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील के साथ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव भी हैं। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ के फैसले पर उनकी राय अहम है। उन्होंने फैसले के फौरन बाद इसकी समीक्षा के लिए पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की अपनी राय भी सार्वजनिक की। लेकिन बकौल उनके, इसका फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में ही लिया जाएगा। उन्होंने वरिष्ठ संवाददाता शशिकांत से बातचीत में फैसले की पे‌चीदगियों के बारे में विस्तार से बताया। मुख्य अंशः

अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आपकी क्या राय है?

बुनियादी तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हम यह जमीन मुस्लिम पक्ष के बजाय हिंदू पक्ष को देते हैं। हमें देखना है कि यह कितना तर्कसंगत है? सुप्रीम कोर्ट ने हमारे केस को भी डिक्री (हक में फैसला) किया है, फिर भी जमीन उन्हें दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-142 (अदालत का विशेषाधिकार) की बात की है, तो हम देखेंगे कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद-142 में निहित अधिकार से आगे तो नहीं बढ़ गई है या उसकी सीमा के अंदर है।

कुछ लोगों का मानना है कि आस्‍था को तवज्जो दी गई है। आपका क्या मानना है?

हमें देखना है कि कोर्ट ने इस मामले में आस्था को माना है, तो कब से माना है? यह देखना चाहिए कि क्या आस्था सैकड़ों साल से चली आ रही है। इस बारे में अधिकांश साक्ष्य हम लोगों ने ही पेश किया, जबकि दूसरी पार्टी ने कुछ गजेटियर पेश किए हैं। दो गजेटियर में दोनों तरफ की उपासना (ज्वाइंट वर्शिप) का हवाला मिलता है। लेकिन कहीं यह नहीं है कि कहां और कैसे। ये दोनों गजेटियर 1858 के बाद के हैं। इसके बाद इनकी कोई वैल्यू नहीं रह जाती। किसी भी रिकॉर्ड में मस्जिद के अंदरूनी हिस्से में हिंदुओं का कोई दावा नहीं मिलता है। 1862 का एक दस्तावेजी साक्ष्य है और वह मंदिर आज भी मौजूद है। फिर 1885 से हिंदुओं के इस विश्वास का दस्तावेजी साक्ष्य मिलता है कि वह चबूतरा जन्मस्थान है। इसका दावा निर्मोही अखाड़े ने दाखिल किया है। जो दस्तावेजी साक्ष्य उपलब्ध हैं, उसके अलावा आस्था कैसे और कब से मानी गई, यह जजमेंट में देखना होगा।

फैसले में और किन बातों पर आप गौर कर रहे हैं?

अभी हमने आपको चंद बुनियादी बातें बताई हैं। अभी कई चीजें हैं, जिसका हमें अध्ययन करना है। अनुच्छेद-142 का उपयोग, आस्था और मुसलमानों का कब्जा, ये तीन बुनियादी बातें हैं, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दर्ज किया है। इसके अलावा यह भी है कि मूर्तियों का शिबैत या पुजारी 1949 तक निर्मोही अखाड़ा रहा है। निर्मोही अखाड़ा ने यह नहीं माना है कि उनकी मूर्ति अंदर गई है, लेकिन फैसले में निष्कर्ष तो यही है। केस संख्या-5 को डिक्री किया गया है, तो अब कोर्ट मान रहा है कि वही मूर्तियां हैं। इसलिए हम तो यही मानेंगे न कि वही मूर्तियां हैं।

फैसले से ज्यादातर पक्ष संतुष्टि जाहिर कर रहे हैं और कह रहे हैं कि हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट में वोटिंग नहीं होती कि कितने लोग पक्ष में और कितने खिलाफ हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा कहा है कि एक आदमी भी खिलाफ है, तो हम समीक्षा करेंगे।

मुस्लिम पक्ष से भी कुछ की राय है कि समीक्षा में नहीं जाएंगे।

मैं तो यही कहूंगा कि अभी इस फैसले को उन्होंने न पढ़ा है, न समझा है और न ही वे इस केस से वाकिफ हैं। हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि यह उनकी राय है। हम सुप्रीम कोर्ट से समीक्षा की अपील करेंगे।

तो, आप बतौर पक्षकार और वकील इससे सहमत नहीं हैं?

बिलकुल सहमत नहीं हैं। सहमत इसलिए भी नहीं हैं कि कोर्ट ने जिसके गैर-कानूनी कृत्यों को स्वीकार किया है, फिर उसे ही डिक्री भी दी है। निर्मोही अखाड़ा तो पक्षकार था, वह बाहर के चबूतरे के कुछ हिस्से पर काबिज था। लेकिन बाकी पक्षकार तो बाद में बने हैं।

एक अहम पक्ष्‍ाकार इकबाल अंसारी तो समीक्षा के हक में नहीं लगते।

इकबाल अंसारी के वालिद ने भी पहले बयान दिया था कि हम अपील नहीं करेंगे। लेकिन बाद में उन्होंने अपील की।

आप रिव्यू पिटीशन कब दाखिल करने पर विचार कर रहे हैं?

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक 17 नवंबर को है, उसी बैठक में तय किया जाएगा कि इस मामले में रिव्यू पिटीशन दाखिल किया जाएगा या नहीं।

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