अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का चारों ओर स्वागत किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इस ऐतिहासिक फैसले से 70 वर्ष पुराने उस विवाद पर विराम लग गया है, जो इस देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर रहा था। अगर यह सही है तो इस महान देश के लिए इससे बेहतर उपाय कुछ और नहीं हो सकता। अगर एक मंदिर और एक मस्जिद की वजह से देश का सांप्रदायिक सौहार्द कमजोर होता हो, सैकड़ों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति कमजोर होती हो और देश के टूटने का खतरा पैदा होता हो, तो इससे बेहतर कुछ और हो नहीं सकता जो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के जरिए बताया है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन आशंका इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जो कुछ कहा है, क्या उसे शब्दशः लागू किया जाएगा और जो विचार व्यक्त किए हैं उनको तोड़ा-मरोड़ा नहीं जाएगा।
फैसले में माना गया है कि 22/23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात को कुछ शरारती तत्वों ने बाबरी मस्जिद के अंदर हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां रखने का जो काम किया था, वह गैरकानूनी था और 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में दिनदहाड़े जिस तरह बाबरी मस्जिद को गिराया गया, वह भी गैरकानूनी कृत्य था। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने 2.77 एकड़ जमीन, जिस पर बाबरी मस्जिद खड़ी थी, का मालिकाना हक हिंदू पक्षकार रामलला विराजमान को दे दिया जहां केंद्र सरकार एक ट्रस्ट बनाकर भव्य राम मंदिर का निर्माण करवाएगी।
संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार है कि देश में अगर कहीं कुछ गलत हुआ है, तो वह उसे दुरुस्त कर दे। अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिकार का इस्तेमाल किया और यह कहते हुए भी कि अदालत किसी धार्मिक विश्वास या आस्था के आधार पर फैसला नहीं करती, दरअसल, कोर्ट ने आस्था के आधार पर ही फैसला सुनाया है। अगर कोर्ट यह मानता है कि जहां रामलला विराजमान पक्ष द्वारा मूर्तियां रखी गईं, वही भगवान श्रीरामचंद्र का जन्मस्थान है और वहीं भव्य राम मंदिर बनना चाहिए, तो इस पर किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार को यह निर्देश देकर, कि मुसलमानों को अयोध्या में मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन दी जाए, मुसलमानों पर यह उपकार क्यों किया?
अयोध्या विवाद पर नजर रखने वाले लोग और 1 फरवरी 1986 से इस विवाद को कवर करने वाले पत्रकार अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक भारतीय जनता पार्टी ने 1989 में पालमपुर अधिवेशन में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास नहीं किया था, यह राजनीतिक विवाद नहीं बना था। लेकिन उसके बाद भाजपा ने 1996 में केंद्र में अपनी सरकार बनने तक लगातार अपने चुनाव घोषणा-पत्रों में इस बात का ऐलान किया कि यदि वह केंद्र में सत्ता में आई तो अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। लेकिन जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तो अन्य विवादास्पद मुद्दों की तरह राम मंदिर निर्माण को भी ‘बैक बर्नर’ पर डाल दिया गया। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को मुद्दा बनाकर ही भाजपा लोकसभा में दो सांसदों से बढ़कर 302 सांसदों तक पहुंची।
1980 के दशक से, जबसे राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठन भाजपा, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल मांग करते आ रहे हैं कि मुसलमानों को अयोध्या, मथुरा और काशी में विवादास्पद मस्जिदों पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद इनकी ओर से दो नारे लगाए जाते थे, ‘अयोध्या तो झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है’ और ‘तीन नहीं तीन हजार, नहीं बचेगी कोई मजार’।
अभी संघ परिवार और उसके सहयोगी संगठनों का ऐसा कोई बयान नहीं आया जिससे माना जाए कि वे अब अन्य किसी धार्मिक स्थल को लेकर आंदोलन नहीं करेंगे, और देश के संविधान, कानून और अदालत की अवमानना नहीं करेंगे जो वे 1949 से अब तक कई बार कर चुके हैं। इस कारण उनके खिलाफ आपराधिक साजिश के मुकदमे चल रहे हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि 1992 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था कि वह बाबरी मस्जिद ढांचे को कोई नुकसान नहीं होने देंगे। बावजूद इसके उन्होंने 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद को ध्वस्त होने से बचाने का कोई प्रयास नहीं किया। बाद में अदालत की अवमानना के आरोप में एक दिन के लिए सजा भी काटी और जेल गए।
अगर वास्तव में इस देश की जनता का बहुमत यह चाहता है कि अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बने, तो इसमें मुसलमानों सहित देश के हर धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग और लिंग के लोगों को बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए। यह मंदिर सिर्फ आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद का नहीं, बल्कि समूचे देश का राम मंदिर होना चाहिए जिन्हें अल्लामा इकबाल ने ‘इमामे-हिंद’ और राही मासूम रजा सहित सैंकड़ों मुसलमान शायर, कवि और साहित्यकारों ने अपना इमाम बताया है और जो रामायण और महाभारत को अपनी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं। लेकिन अफसोस यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देश और खासकर अल्पसंख्यक समाज को कई तरह की आशंकाएं और चुनौतियां महसूस हो रही हैं। अधिकतर लोगों का मानना है कि यह देश उसी तरह चलना चाहिए जैसा एक हजार साल से चलता आया है, और आजादी के बाद अपना एक नया संविधान पारित करके पिछले 72 वर्षों से चल रहा है। जिस संविधान में लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है और जिसके तहत देश के हर नागरिक को बराबर का अधिकार देने का वादा किया गया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1947 में अंग्रेजों की मदद से मुसलमानों के एक वर्ग ने मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान हासिल कर लिया, बावजूद इसके राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को अमली तौर पर लागू किया। ऐसा इसलिए क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उन्होंने आजादी मिलने पर देश की अवाम से ऐसा ही संविधान और देश बनाने का वादा किया था।
मजहबी नफरत और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के आधार पर जिस पाकिस्तान का निर्माण किया गया था, वह पाकिस्तान 25 साल भी एक नहीं रह पाया। 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के साथ ही मुस्लिम लीग का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत भी धूल-धूसरित हो गया। आज भी जो पाकिस्तान बच गया है वह पंजाबी, सिंधी, बलूची और पठान उप-राष्ट्र में बंटा हुआ है और केवल कश्मीर तथा भारत विरोध के नाम पर कृत्रिम रूप से एकजुट है। पाकिस्तान और उसके फौजी आकाओं की हमेशा यह ख्वाहिश रहती है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता खत्म हो और भारत एक हिंदू राष्ट्र बने, ताकि उन्हें यह कहने मौका मिले की मुहम्मद अली जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत सही था। अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता आसिफ गफूर ने ट्वीट करते हुए लिखा, “आज भारत के सभी अल्पसंख्यकों को फिर से एहसास हो गया होगा कि हमारे महान नेता मोहम्मद अली जिन्ना की हिंदुत्व के बारे में सोच बिलकुल सही थी।” पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी करके कहा, “सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भारत की धर्मनिरपेक्षता का दिखावा दुनिया के सामने आ गया है। अब यह स्पष्ट है कि भारत में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थल भारत में सुरक्षित नहीं हैं। भारत में हिंदू राष्ट्र के तहत फिर से इतिहास लिखने की प्रक्रिया शुरू हो गई है।”
करीब 125 करोड़ भारतीयों को, जो विभिन्न धर्मों, जातियों, संप्रदायों और भाषाई वर्गों का एक बड़ा समूह है और जो हजारों साल से प्यार-मुहब्बत के साथ रहता आया है, उसे मजहबी नफरत के आधार पर बने 72 साल पुराने पाकिस्तान से किसी तरह की नसीहत लेने की जरूरत नहीं है। उससे एक सबक जरूर हासिल किया जा सकता है कि हम अपने इस महान देश हिंदुस्तान को पाकिस्तान नहीं बनने देंगे। यहां किसी एक धर्म, जाति, समुदाय, भाषा और लिंग की सर्वोच्चता नहीं होगी। हमारा यह हिंदुस्तान ऐसा गुलदस्ता है जिसमें हर तरह के फूल खिलते हैं और जिसकी मिसाल दुनिया में कोई दूसरी नहीं मिलती। यकीनन कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे-ए-जमां हमारा और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)