अदालतों का काम कानून के अनुसार मुकदमों का फैसला करना है। इसके साथ ही हमारे सर्वोच्च न्यायालय का काम संविधान की रक्षा करना, उसके प्रावधानों की व्याख्या करना और यह सुनिश्चित करना भी है कि संसद में सरकार कोई ऐसा कानून न पारित करा ले, जो संविधान की मूल भावना के विपरीत हो। दर्शन, इतिहास, राजनीतिक सिद्धांत या धर्म आदि पर अपनी राय देना उसका काम नहीं है और न वह इसे करने में सक्षम है। लेकिन अक्सर देखा गया है कि निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सभी कानून से इतर विषयों पर भी धड़ल्ले से अपनी राय देते रहते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की तीन-सदस्यीय खंडपीठ की अध्यक्षता करते हुए जस्टिस जे.एस. वर्मा ने 1995 के अपने एक फैसले में ‘हिंदुत्व’ पर अपनी राय विस्तार से प्रकट की थी और उसे “जीवन शैली” बताया था। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने हिंदुत्व की अवधारणा के जनक विनायक दामोदर सावरकर को पूरे फैसले में एक बार भी उद्धृत करने की जरूरत नहीं समझी थी। शायद उन्होंने सावरकर की पुस्तिका ‘हिंदुत्व’ को पढ़ा भी नहीं था। उनके इस फैसले को विश्व हिंदू परिषद, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े अन्य संगठनों ने छपवा कर बहुत बड़े पैमाने पर प्रचारित-प्रसारित किया था और इससे उनके हिंदुत्व अभियान को बहुत शक्ति मिली थी। इसके पहले भी 1966 में प्रधान न्यायाधीश जस्टिस पी.बी. गजेंद्रगडकर की अध्यक्षता वाली एक पांच-सदस्यीय खंडपीठ ने हिंदू धर्म को ही धर्म न मानते हुए मात्र एक जीवनशैली करार दिया था। आश्चर्य नहीं कि कन्हैया कुमार आदि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर लगे राजद्रोह के मामले पर अंतरिम आदेश जारी करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय की एक न्यायाधीश ने राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर अपने विवादास्पद विचार व्यक्त कर डाले थे।
बाबरी मस्जिद मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय खंडपीठ ने एकमत से फैसला सुनाते हुए इतिहास के बारे में कुछ ऐसी बातें कह डाली हैं जिनसे न केवल राज्य और कानून को धर्म से अलग रखने की संविधान की व्यवस्था में असंतुलन आता है, बल्कि ऐसे विषयों पर राय देने की अदालत की सक्षमता पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। विद्वान न्यायाधीशों का कहना है कि बाबर के एक सेनापति मीर बाकी ने जहां बाबरी मस्जिद बनाई थी, वहां एक गैर-इस्लामी इमारत थी और बहुत संभव है कि इस गैर-इस्लामी इमारत को तोड़ कर मस्जिद का निर्माण किया गया हो। स्पष्ट है कि वे भी यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि यह गैर-इस्लामी इमारत राम को समर्पित हिंदू मंदिर था।
विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और पी.वी. नरसिंह राव के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में सक्रिय अयोध्या सेल में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी के रूप में काम करने वाले अधिकारी किशोर कुणाल ने 2016 में अयोध्या मामले पर गहन अध्ययन और शोध करने के बाद 800 से भी अधिक पृष्ठों की एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें उनका निष्कर्ष था कि बाबरी मस्जिद बाबर के जिस सेनापति मीर बाकी के द्वारा निर्मित मानी जाती है, वह एक काल्पनिक व्यक्ति था और उसका बाबर के सेनापति बाकी ताशकिंदी/शेगवाल से कोई संबंध नहीं है जिसका उल्लेख ‘बाबरनामा’ में आता है। बाबरी मस्जिद पर जो इबारत उत्कीर्ण थी, वह 1813 में शिया मुसलमानों द्वारा लगाई गई थी और तभी से बाबर के सेनापति मीर बाकी द्वारा इस मस्जिद के बनाए जाने की जनश्रुति प्रचलित हुई। उनका यह भी निष्कर्ष है कि मस्जिद का निर्माण 1528 में नहीं बल्कि 1660 में हुआ था। याद रखने वाली बात है कि मुगल बादशाह औरंगजेब का राज्यकाल 1658 में शुरू होता है।
यदि किशोर कुणाल का यह निष्कर्ष सही है तो इससे कई बातें स्पष्ट होती हैं। तुलसीदास की रचनाओं के अध्येताओं को सदा इस बात पर आश्चर्य होता रहा है कि उनके जैसे महान रामभक्त की रचनाओं में कहीं भी बाबरी मस्जिद का उल्लेख क्यों नहीं है, विशेषकर तब जब इसे राम मंदिर को तोड़ कर बनाया गया था। न ही उनकी रचनाओं में किसी राम जन्मस्थान का उल्लेख है, जहां राम का जन्म हुआ था। बाबर या उनके परवर्ती काल के दशकों के समकालीन दस्तावेजों में भी मीर बाकी द्वारा निर्मित किसी मस्जिद का जिक्र नहीं है। यदि राम मंदिर को तोड़ कर बनी बाबरी मस्जिद तुलसीदास के सामने खड़ी होती, तो क्या वे व्यथापूर्वक इसका उल्लेख न करते, विशेषकर ‘रामचरितमानस’ के उन अंशों में जहां वे विस्तार से कलियुग वर्णन करते हैं?
सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि धार्मिक आस्था का सम्मान करना अनिवार्य है और उस पर सवाल नहीं किया जा सकता। इसी आधार पर उसने इस विश्वास को तथ्य मान लिया है कि राम का जन्म ठीक उसी जगह हुआ था जिस जगह के ऊपर बाबरी मस्जिद का केंद्रीय गुंबद था। यह विश्वास कितना पुराना है? कम से कम तुलसीदास को तो यह नहीं पता था कि राम का जन्म ठीक-ठीक किस जगह पर हुआ था।
बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि सिद्ध करने का बाकायदा षड्यंत्र रचा गया जिसके तहत 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को चोरी से मस्जिद में घुसकर रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी गई और ढोल-नगाड़े बजा कर घोषणा कर दी गई कि दैवी चमत्कार हो गया है, रामलला ने स्वयं भूमि से प्रकट होकर सिद्ध कर दिया है कि यही उनका जन्मस्थान है। इसके पहले नौ दिन तक मस्जिद के सामने रामचरितमानस का अखंड पाठ किया गया और इसके शोर-शराबे के बीच मस्जिद में मूर्तियां स्थापित कर दी गईं।
इस सबमें जिला मजिस्ट्रेट के.के. नायर ने सक्रिय सहयोग दिया और मूर्तियां हटाने के उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव भगवान सहाय के निर्देशों का पालन करने से इनकार कर दिया। इन नायर साहब को 1967 में भारतीय जनसंघ ने लोकसभा के चुनाव में बहराइच से अपना उम्मीदवार बनाया और वे चुनाव जीत गए।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इस घटना का भी उल्लेख किया है और 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को मस्जिद में मूर्तियां स्वतः प्रकट होने के दैवी चमत्कार को न मानकर स्पष्ट रूप से कहा है कि यह एक गैर-कानूनी काम था। यानी बाबरी मस्जिद को राम जन्मस्थान में बदलना कानून के खिलाफ किया गया काम था। देश की सबसे ऊंची अदालत ने 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने को भी गैर-कानूनी कृत्य माना है। लेकिन इन गैर-कानूनी कृत्यों यानी अपराधों का परिणाम क्या निकला? प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपराधी को पुरस्कृत किया और अपराध के शिकार को दंडित। बाबरी मस्जिद में गैर-कानूनी ढंग से मूर्तियां रखने वाले और फिर मस्जिद को ही तोड़ने वालों को मस्जिद का असली स्वामी माना गया। फैसला जैसा भी हो, पर सामान्य समझ के अनुसार मामला यहीं खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन अदालत ने मुस्लिम समुदाय को पांच एकड़ जमीन देने का आदेश भी दिया। पूछा जा सकता है, क्यों? यदि किसी एक वस्तु पर दो व्यक्तियों का दावा है, और एक का दावा सही मान लिया जाता है, तो फिर दूसरे को मुआवजा देने की क्या जरूरत है?
इसी एक बात से स्पष्ट है कि अब सर्वोच्च न्यायालय भी केवल कानून और संविधान की रोशनी में फैसले नहीं ले रहा है। उसके फैसले रंगहीन और पारदर्शी होने के बजाय राजनीतिक रंग में रंगे और अस्पष्ट होने लगे हैं। भारत की संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह खतरे की घंटी है और इसकी गूंजदार आवाज सभी को ध्यान से सुननी चाहिए। न्यायालय के फैसले का सम्मान होना चाहिए, इस बात को सबसे ऊंची आवाज में पूर्व संघ प्रचारक और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सरसंघचालक मोहन भागवत और उनके समर्थक कह रहे हैं क्योंकि फैसला उनके पक्ष में आया है। वे यह झूठ भी बोल रहे हैं कि यह न किसी की हार है और न किसी की जीत, जबकि सभी के सामने यह स्पष्ट है कि यह हिन्दुत्ववादी शक्तियों की जीत है जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से हिंदू राष्ट्र में बदलने के लिए दिलोजान से कोशिश कर रही हैं। वरना एक समय था जब अयोध्या विवाद को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाने वाले और तथाकथित रथयात्रा निकाल कर देश भर में धार्मिक उन्माद और वैमनस्य फैलाने वाले पूर्व संघ प्रचारक और तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी खुल्लमखुल्ला कह रहे थे कि राम जन्मभूमि का मुद्दा हिंदुओं की धार्मिक आस्था का मुद्दा है, जिस पर फैसला देने का अदालतों को कोई अधिकार नहीं है और मुस्लिम समुदाय को स्वेच्छा से बाबरी मस्जिद को हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। 6 अप्रैल, 1989 को बम्बई (अब मुंबई) में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी यही बात कही और यही बात हिमाचल प्रदेश के पालनपुर में हुई भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में 11 जून, 1989 को स्वीकृत प्रस्ताव में भी कही गई: “भाजपा की मान्यता है कि इस विवाद की प्रकृति इस प्रकार की है कि इसे अदालत द्वारा नहीं सुलझाया जा सकता।” दरअसल, न बाबरी मस्जिद मुद्दा है, न राम जन्मभूमि। मुद्दा है भारत के राष्ट्र राज्य की प्रकृति। वह एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बना रहेगा जहां सभी धर्मों, समुदायों, संस्कृतियों, जीवन शैलियों और विचारों को एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाकर रहने की आजादी होगी या वह एक हिंदू राष्ट्र बनेगा जहां बहुसंख्यक धर्मावलंबी और उनके स्वयंभू प्रतिनिधि अपनी राय को अल्पसंख्यकों पर थोपेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)