मैं और दूसरे लोग क्रांतिकारी हो सकते हैं, लेकिन हम सब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से महात्मा गांधी के अनुयायी हैं
-हो ची मिन्ह
एक दैनिक में 31 अगस्त 2018 को ‘महात्मा का दूसरा पक्ष’ शीर्षक से मित्र और माकपा के पोलितब्यूरो की सदस्य सुभाषिनी अली का लेख छपा है। उन्होंने नीलिमा डालमिया की पुस्तक बा की गोपनीय डायरी पढ़कर लिखा है। शायद नीलिमा जी ने उक्त डायरी पढ़कर यह निष्कर्ष निकाला कि बापू पुरुष वर्चस्व के समर्थक और तानाशाह थे। कस्तूरबा के शरीर और विचारों पर नियंत्रण रखने पर तुले थे। यह सही है कि वे नव-विवाहिता पत्नी के हर समय साथ रहना चाहते थे। दो बातें मुझे स्पष्ट करनी हैं। गांधी जी ने अपनी कमियां बताई हैं। कस्तूरबा को अपने से अधिक देर तक दूर नहीं रखना चाहते थे। कस्तूरबा सबसे छोटी बहू थीं। दिन भर रसोई में और घर के कामों में व्यस्त रहती थीं। कई बार मोहनदास टूल जाते थे। एक और जरूरी बात बापू चाहते थे अपनी अनपढ़ पत्नी को रात में पढ़ाएं। वे पढ़ाते तो कस्तूर टूलने लगतीं, फिर दोनों लिहाफ में धीरे से सरक जाते। यह शरीर और सोच पर बापू की तानाशाही थी या नहीं।
यह सही है कि मोहनदास ने कस्तूर से कहा कि तुम कहीं जाओ तो कह कर यानी पूछकर कहीं जाया करो। मगर बा ने उस समय जवाब नहीं दिया। बा ने मोहन दास को चिढ़ाने के लिए अगले दिन, सासू मां ने डयोढ़ी यानी मंदिर चलने के लिए कहा तो कस्तूर चट तैयार हो गईं। पीछे मोहनदास आ गए, पता चला मां के साथ मंदिर गई थी। सामान्य रूप से पूछ कर जाने की परंपरा थी। उन्होंने कहा क्या मां से कहती कि पतिदेव से पूछ आऊं। मोहनदास चुप्प, क्या कहें। आधुनिक जगत में ये नहीं होता। उस जमाने में कुछ बंदिशे तो थीं। पिता, कबा गांधी का जिस समय देहांत हुआ तो विचित्र घटना हुई। वे बीमार तो थे ही। मोहनदास उनकी सेवा में थे। तभी उनके चाचा तुलसी दास आ गए। वे बोले तुम जाओ मैं हूं दादा के पास, बहू प्रतीक्षा कर रही होगी। मोहनदास तीर की तरह अपने कमरे में गए। कस्तूर सो गई थी शायद। उन्होंने उसे जगाया। इतने में पुराना नौकर आया, दरवाजा खटखटाया और कहा बापू नहीं रहे। बस वे कपड़े संभालते हुए भागे। तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। वह शर्मशार थे। जीवन भर सेवा की, जब वहां होना चाहिए था, तब गैर हाजिर। यह भावना जीवन भर सालती रही।
मोहनदास और कस्तूर का विवाह पोरबंदर से हुआ था। दोनों पक्ष चाहते भी यही थे। कबा गांधी की नियुक्ति राजकोट के दीवान पद पर हो जाने के कारण उन्हें पोरबंदर छोड़ना पड़ा था। समस्त परिवार भी साथ चला गया था। पोरबंदर से दूर जाने के कारण यह संभव नहीं था कि कस्तूर जल्दी-जल्दी पीहर जा सकें। वैसे सब पतियों की तरह मोहनदास भी शुरू-शुरू में पजेसिव यानी अधिकार प्रिय था। अधिकार प्रवृति ईर्ष्या को जन्म देती है। कस्तूर को पुरुष-व्यवहार का कोई ऐसा अनुभव नहीं था। वे कस्तूर से कहते थे कि वह शपथ ले कि वह उसके प्रति समर्पित रहेगी। वह सोचती थी कि वह मोहनदास के अलावा किसके प्रति समर्पित रह सकती है। एक सवाल कस्तूर को परेशान करता था, कौन उसके पति को सिखा रहा है।
इसी बीच कस्तूर के पीहर से उसका बुलावा आया। वह जबसे आई थी, वहां गई नहीं थी। कस्तूर के सामने दुविधा थी, वह पति को छोड़कर जाए या नहीं। अगर उसने पूछा और मोहनदास ने मना कर दिया, तो उसके पीहर वालों का दिल टूट जाएगा। उसने हिम्मत करके पूछा, तो मोहनदास ने बिना हिचक के कहा जरूर जाओ... वे इंतजार कर रहे होंगे। वह बटे हुए मन से पोरबंदर गई। वहां सोचकर दुखी होती रही कि पति को इस हालत में छोड़कर पीहर नहीं आना चाहिए था। घर में सबने उसे रुकने के लिए कहा, पति ने एक बार नहीं कहा कि न जाओ या कब आओगी।
मोहनिया कस्तूर के जाने के बाद हर समय कस्तूर के बारे में सोचता रहता था। वह क्या कर रही होगी, क्या मेरे बारें में सोचती होगी। बहुत से सवाल कस्तूर के पक्ष में भी होते थे। उसे पढ़ना चाहिए, अगर वह फेल हो गया तो कस्तूर पर व्यंग्य किए जाएंगे। वे नहीं चाहते कि उसकी वजह से वह अपमानित हो। लगता है लेखिकाओं ने सत्य जानने को कोशिश नहीं की। वह सोचती थी कि भले ही मोहनदास ने इजाजत दे दी हो, पर वह मन से सहमति नहीं थी।
मुझे मालूम नहीं कस्तूरबा की डायरी उन्होंने लिखी या किसी और ने... क्योंकि वे पढ़ना-लिखना नहीं के बराबर जानती थीं। चिट्ठियां भी बोलकर लिखवाती थीं। उन्होंने अपनी डायरी में क्या वास्तव में लिखा है कि उन्होंने ब्रह्मचर्य इकतरफा लिया, बा की बिना सहमति के। जहां तक मुझे मालूम है कस्तूरबा उसमें हिस्सेदार थीं। बल्कि बापू उसमें दो बार फेल हुए और बापू ने बा से कहा भी मैं सफल नहीं हो सका, तुमने सदा मेरा साथ दिया। पहला गिरमिटिया में इसका विवरण है। पुस्तक की लेखिका की यह व्यक्तिगत सूचना है या बापू के प्रति पूर्वाग्रह है।
जब मोहनिया ने मित्र मेहताब की संगत में मांस खाना शुरू किया, तो उसके शरीर की गंध बदल गई थी। वैसी गंध बच्चे से लेकर बड़ों तक किसी के शरीर से नहीं आती थी। कस्तूर को लगने लगा था कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। कहीं उसके पति ने मेहताब की संगत में वर्जित भोजन तो खाना आरंभ नहीं कर दिया, आत्ममंथन मोहनिया के मन में भी चल रहा था। प्रतिदिन देर से आने के कारण, भोजन न करने के लिए बहाने बनाना, उन्हें कचोटता था।
कस्तूर गर्भवती थी, घर में उत्साह था। कस्तूर चाहती थी कि जब बच्चा जन्म ले तो उसका पिता मौजूद हो। पर वह जानती थी कि उसके पति की प्राथमिकता इस समय न बच्चा है न पत्नी, न संतान, न बा। भाई और बच्चे बाद में थे। वे जानते थे पुतलीबा के वैष्णव संस्कार सात समंदर पार जाने के रास्ते में आ सकते थे। लेकिन एक बौद्ध साधु ने रास्ता निकाल लिया। मोहन को तीन प्रण करने पड़े मांस नहीं खाएगा, पर स्त्री को नहीं छुएगा, शराब नहीं पिएगा। सबसे बड़ा संकट था धन का। कस्तूर ने उसका फौरन समाधान कर दिया। माता पुतलीबा की उपस्थिति में कस्तूर ने अपने सब गहने मोहनदास को सौंप दिए और समाधान निकल आया।
एक रुचिकर घटना है। सुभाषचंद्र बोस आइसीएस के बाद जब भारत आए तो सबसे पहले वे गांधी जी से मिलने आश्रम गए। महानायक में भी इस घटना का उल्लेख है। सुभाष बाबू चाय पीते थे। आश्रम में चाय प्रतिबंधित थी। बा उन्हें रसोई में बुलाकर चाय पिला देती थीं। एक दिन जब बा चाय दे रही थीं, तो बापू आ गए। वे बोले कि आश्रम में चाय पीने पर प्रतिबंध है। बा ने जवाब दिया कि आश्रमवासियों के लिए है, सुभाष अतिथि हैं। उन पर प्रतिबंध लागू नहीं होता। बापू कस्तूर की तरफ देखने लगे। कस्तूरबा ने कहा रसोई पर मेरा अधिकार है... बापू चुपचाप चले गए।
बहुत गलत बातें बापू के बारे में फैलाई जा रही हैं। जैसे बा के तानाशाह पति ने पेनसिलिन का इंजेक्शन नहीं लगाने दिया। मैंने अपना बा उपन्यास काफी जांच-पड़ताल के बाद लिखा है। जब बापू के सामने यह मसला आया तो उन्होंने देवदास से कहा, मैं इस पक्ष में नहीं। आप लोग सलाह कर लें अगर सबकी मर्जी है तो लगावा दीजिए। कस्तूरबा जीवन के अंतिम पहर में है। डॉक्टर से भी बात की गई। उसने कहा कि निश्चित नहीं कि कितना कारगर होगा। तब उन्होंने कहा कि व्यर्थ उनका शरीर न बिंधवाएं। यह सबका संयुक्त निर्णय था कि इंजेक्शन न लगवाया जाए।
देवदास उनके सबसे छोटे बेटे थे, तीसरे नहीं। तीसरे रामदास थे। मैंने हरिलाल का बा द्वारा जेल से लिखा पत्र बा उपन्यास में दिया है। पढ़कर यह भ्रांति दूर हो जाएगी कि हरिलाल के बारे में वे क्या सोचती थीं। जब गांधी अंतिम रूप से भारत आ रहे तो उन्होंने बा से कहा कि मैं चाहता था कि हरिलाल दक्षिण अफ्रीका का गांधी बने...
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अब तो वह आजादी का रास्ता जो गांधी के नेतृत्व में खुला था पिछले कुछ साल में बंद हो गया है। आजादी का मतलब बदल गया। ऐसा लगता है कि यह जिद ठान ली गई है कि आजादी हम तय करेंगे, तुम नहीं।
आजादी के आंदोलन में धाराएं तो कई थीं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का रास्ता क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावशाली था, वे जिस मंजिल तक पहुंचना चाहते थे, पहुंच नहीं पाए। जहां तक क्रांतिकारियों के रास्ते का सवाल था, उनमें भी फूट थी। चंद्रशेखर आजाद की हत्या इसका उदाहरण है। वे उत्साही थे, साहसी थे, और उद्देश्य के लिए मर मिटना जानते थे। संख्या कम होने के कारण जो मारे गए उनकी जगह लेने वाले नहीं रहे। शहीद होते गए जगह खाली होती गई। बंगाल में भी यही हुआ और वे वहां के क्रांतिकारी कुछ पाकेट्स में तो सफल हुए पर राष्ट्रव्यापी संगठन या कोई असर नहीं बन पाया। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के अनुभव का लाभ उठाया। अधिकतर गिरमिटिए हिंदी पट्टी के थे। वे सब गुलाम की जिंदगी गुजार रहे थे। गांधी जी ने वहां के एक-एक गिरमिटिए को जोड़ा, अलग-अलग क्षेत्रों के भारतीयों को एकजुट किया। उनके दुख-सुख को देखा समझा। अपनी पत्नी कस्तूरबा तक को उस आंदोलन का हिस्सा बनाया।
गांधी और अन्य विवाद
दो बातें हैं। गांधी ने वायसरॉय को चिट्ठी लिखकर भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा को स्थगित करने के लिए कहा था। वायसरॉय ने मौखिक आश्वासन भी दिया था। लेकिन एक दिन पहले फांसी दे दी गई। तीन-चार व्यक्ति जिनमें तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स के आचार्य छबील दास और आचार्य जुगल किशोर और शायद लोहिया जी भी गांधी जी से मिलने गए थे। गांधी जी से कहा भगत सिंह को बचाइए।
उन्होंने जवाब दिया कि मैं जो कर सकता हूं, कर रहा हूं। फिर उन्होंने पूछा, क्या भगत सिंह अंग्रेजों की दान में दी जिंदगी जिएंगे? सब चुप रहे। एक सवाल मेरे मन में उठता है कि भगत सिंह के तीन शहीद हुए साथियों की जिंदगी बचाने के लिए किसी ने मांग नहीं की। जहां तक गांधी-इर्विन समझौते में, भगत सिंह की सजा माफी को रखने की बात है, बिना माफी मांगे मसौदे में शर्त डालना संभव न होता। माफी मांगकर छूटना और भी अधिक दुखद होता।
सुभाष चंद्र बोस को दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष न बनने देने की बात एक उलझा हुआ सवाल है। सुभाष बोस के बड़े भाई शरदचंद्र बोस कम्युनिस्ट थे। पटेल और अन्य वरिष्ठ सदस्य शरद को नापसंद करते थे। वे नहीं चाहते थे कि कांग्रेस में मार्क्सवाद का वर्चस्व हो। जहां तक मैं समझता हूं कि विरोध सुभाष बाबू से ज्यादा शरद बाबू का था। चुनाव में जीतने के बाद सुभाष बाबू चाहते थे कि गांधी जी उनकी बनाई कमेटीज देखकर सही कर दें। गांधी जी ने उनसे कहला दिया कमेटियां बनाने का अध्यक्ष का एकल अधिकार है। आप बनाएं। बात यहीं से बिखर गई। सुभाष ने अन्ततः त्यागपत्र दे दिया।
क्रांतिकारी राजनीति सफल या असफल होने की बात नहीं थी। क्रांतिकारी राजनीति तभी सफल हो सकती थी, जब रूस और चीन की तरह वह दर्शन सामान्य आदमी तक पहुंच चुका होता। गिनती के लोग इस दर्शन से जुड़े थे। ब्रितानी सरकार उनका उन्मूलन कर रही थी। किसान तब तक पॉलितेरियत नहीं बना था। मिल मजदूर थे। कानपुर, मुंबई आदि में मजदूरों के अधिकारों की बात उठाई जाती थी। रोज जुलूस निकलते थे, स्ट्राइक होती थी। किसान दिहाड़ी पर काम करता था। काम मिल गया तो मिल गया नहीं तो आरोपित भूख हड़ताल। माओ ने किसानों को लेकर जन क्रांति की थी उसके बाद किसानों के प्रति रुख बदला। पर वे रहे दूसरे नंबर पर ही। निलहों के विरुद्ध पहला किसान आंदोलन गांधी के नेतृत्व में चंपारण में हुआ। कस्तूरबा और उनके छोटे बेटे ने सक्रिय सहयोग किया। उस आंदोलन से बहुत से राष्ट्र नेता, जैसे राजेन्द्र प्रसाद, कृपलानी आदि नेता निकले। राजकुमार शुक्ला, एक किसान पृष्ठभूमि में थे। गांधी जान गए थे कि किसान ही परिवर्तन का माध्यम बन सकता है।
55 करोड़ रुपया पाकिस्तान को दिलाने के लिए गांधी ने उपवास किया था। कांग्रेस सरकार कई दशक तक रही लेकिन उसने इस तरह की भ्रांतियां दूर करने का प्रयत्न नहीं किया। जहां तक मुझे मालूम है बंटवारे के समय लीग, कांग्रेस ओर बर्तानिया के बीच यह तय हुआ था क्योंकि सब संसाधन भारत सरकार के पास थे, पाकिस्तान नया मुल्क था, इसलिए भारत सरकार उसे 55 करोड़ रुपया देगी। गांधी सत्य के साथ थे। नेहरू पटेल आदि इस सवाल पर ढुलमुल थे। संघ का कहना था कि (पाकिस्तान) इस रुपये से भारत के खिलाफ संसाधन इकट्ठे करके भारत से लड़ेगा। इसलिए यह धनराशि पाकिस्तान को न दी जाए। गांधी जानते थे कि अगर सर्वसम्मति से तय धनराशि नहीं दी गई तो आरंभ से ही भारत की साख दुनिया में घट जाएगी। संघ, हिंदू महासभा आदि नाराज हो गए और उन्होंने तय किया कि अब गांधी का हटना जरूरी है। सावरकर के संरक्षण में नाथूराम गोडसे दिल्ली आया और मौका देखकर गांधी जी की हत्या कर दी।
गांधी ने हिंद स्वराज में भारत के बारे में 1909 में लिखा था कि यह मुल्क न हिंदू का है न मुसलमान का और न पारसी का, उन सबका है जो इस धरती पर जन्मे हैं। गांधी अंत तक इस वायदे को मानते रहे। तुष्टीकरण का सवाल नहीं। उनको न हिंदू से कुछ लेना था, न पारसी और मुसलमान से। सब समान थे। यह बात हिंदूवादी पार्टियों की तरफ से फैलाई गई थी। वही पार्टी वोट के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण कर रही है।
डॉ. बी.आर. आंबेडकर की राजनीति सदियों से दलितवर्ग को सवर्णों द्वारा किए जा रहे शोषण के प्रति जागरूक करना और उसे रोकना था। वे स्वयं इसके शिकार रहे थे। दूसरे वे जातिप्रथा के विरुद्ध थे। वे वायसराय की काउंसिल के सदस्य थे, इसलिए आजादी की लड़ाई में शरीक होने का सवाल नहीं था। आजादी की लड़ाई उनके द्वारा नहीं लड़ी जा रही थी।
वे जातियों के वर्चस्व के खिलाफ थे जबकि गांधी उस समय जाति के पक्षधर थे। इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है। गांधी धीरे-धीरे बदले। मैं समझता हूं कि अंततः उन्होंने कहा कि मैं किसी भी ऐसी शादी में शामिल नहीं होऊंगा जिसमें दोनों में से एक दलित न हो। इस निर्णय के पीछे आंबेडकर का सत्संग था। मुझे याद है, मैं छोटा था। मेरे एक संबंधी भी संविधान बनाने वाली असेंबली के सदस्य थे। उनके साथ मुझे डॉ. आंबेडकर से मिलने का अवसर मिला था। मुझे पता नहीं कैसे मैं एकाएक बोला, सर, क्या आप गांधी जी से नाराज हैं। मेरे मामा ने नाराजगी से देखा। डॉ. आंबेडकर ने एक क्षण मेरी ओर देखा और बोले हम एक ही क्षेत्र में काम करते हैं, मतभेद होना स्वाभाविक है। नाराजगी नहीं। मैं भी चाहता हूं सब समान हों। वे भी चाहते हैं। तरीके फर्क है।
नेहरू जी जब कैबिनेट बना रहे थे तो सवाल आया कि कानून जानने वाले व्यक्ति को बनाया जाए। बहुत से लोग थे जैसे के एम.के. शाह, गोपालास्वामी आदि। बात गांधी के कान तक पहुंची। उन्होंने पटेल को बुलाकर कहा कि तुम जवाहरलाल से कहो कि डॉ. आंबेडकर से बात करें। वे बहुत योग्य व्यक्ति हैं। पटेल ने कहा, जवाहर का कहना है कि वे आपको उल्टा-सीधा कहते रहते हैं... गांधी जी ने कहा कि तुम लोग मेरे सम्मान की चिंता करोगे या देश की। जवाहरलाल से कहना बापू ने कहलाया है।
देश के नौजवानों को चाहिए कि देश को आगे ले जाने में सहयोग करें। अब बनाना है, बिगाड़ना नहीं।
(प्रसिद्ध साहित्यकार, पहला गिरमिटिया और बा उपन्यास के लेखक हैं)