एस.के. सिंह
इन दिनों एक बैंक की बहुत चर्चा है- बैड बैंक। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी 2021 को बजट में इसका जिक्र किया, जिस पर बाद में रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी सहमति जताई। बैंक और उद्योग जगत इस कदम से खुश हैं। बैंक इसलिए कि उनके डूबे कर्ज (एनपीए) कम होंगे। इंडस्ट्री इसलिए क्योंकि एनपीए कम होने के बाद बैंक उन्हें ज्यादा कर्ज दे सकेंगे। बजट में इस साल दो सरकारी बैंकों के निजीकरण की भी घोषणा हुई है। दरअसल, बैंक निजीकरण और बैड बैंक का गठन, दोनों फैसले एक-दूसरे से जुड़े हैं। निजी हाथों में सरकारी बैंकों को सौंपने की अच्छी कीमत मिले, इसके लिए जरूरी है कि उसका एनपीए कम हो। बैड बैंक इसमें मददगार होगा।
बैड बैंक और कुछ नहीं, बल्कि ऐसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी (एआरसी) है। यह सामान्य बैंकों के एनपीए डिस्काउंट पर खरीदता है और बाद में उस एनपीए की रिकवरी की कोशिश करता है। देश में पहले से कई एआरसी हैं। नई एआरसी का स्वरूप राष्ट्रीय होगा। इसका गठन इसलिए किया जा रहा है क्योंकि मौजूदा एआरसी बहुत छोटे हैं। पिछले तीन वर्षों के दौरान इन्होंने बैंकों का सिर्फ छह फीसदी एनपीए खरीदा है।
बैंक निजीकरण और बैड बैंक का गठन, दोनों के लिए काफी तेजी से काम हो रहा है। बैड बैंक के लिए आवेदन मंगाने और नियुक्तियां करने में समय लगेगा, इसलिए कुछ सरकारी बैंकों के वरिष्ठ अधिकारियों को इसमें डेपुटेशन पर भेजा जा सकता है। इसमें सात सरकारी बैंकों, दो निजी बैंकों और दो सरकारी फाइनेंस कंपनियों की बराबर हिस्सेदारी हो सकती है। इंडियन बैंक्स एसोसिएशन ने सभी बैंकों से 500 करोड़ रुपये से ज्यादा के एनपीए की जानकारी मांगी है। इससे पता चलेगा कि बैड बैंक बनाने के लिए कितनी पूंजी चाहिए। शुरुआती आकलन के मुताबिक बैड बैंक 70 बड़े अकाउंट के दो से ढाई लाख करोड़ रुपये के एनपीए ले सकता है। निजीकरण के लिए भी बैंकों के नाम जल्दी ही तय हो सकते हैं। चर्चा है कि बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में से किन्हीं दो को चुना जा सकता है। निजीकरण से पहले उस बैंक का एनपीए बैड बैंक खरीद सकता है। बैंक को और आकर्षक बनाने के लिए उसके कुछ कर्मचारियों को दूसरे सरकारी बैंकों में ट्रांसफर किया जा सकता है।
निजीकरण के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि इससे मैनेजमेंट प्रोफेशनल होगा। लेकिन अतीत में निजी बैंकों में अनेक गड़बड़ियां पाई गई हैं। ऐसे में यह दलील कितनी सही है, इस पर क्रिसिल रेटिंग्स के सीनियर डायरेक्टर कृष्णन सीतारमण कहते हैं, “हमें एक औसत देखना होगा। ऐसा नहीं कि सभी सरकारी बैंकों का प्रदर्शन खराब और निजी बैंकों का अच्छा है। लेकिन एनपीए के मामले में ज्यादातर निजी बैंक, सरकारी बैंकों से बेहतर हैं। पर्याप्त मॉनिटरिंग और सुपरविजन रहे तो निजीकरण में कोई बुराई नहीं है।”
यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस ने निजीकरण के फैसले के खिलाफ 15 और 16 मार्च को हड़ताल बुलाई है। संगठन के संयोजक देवीदास तुलजापुरकर का कहना है कि निजी बैंक ‘एकाउंटिंग प्रॉफिट’ के लिए काम करेंगे, जबकि सरकारी बैंक ‘सोशल प्रॉफिट’ के लिए काम करते हैं। सामाजिक योजनाओं में इन बैंकों का योगदान बहुत कम होता है। तुलजापुरकर के अनुसार जनधन योजना में निजी बैंकों की हिस्सेदारी पांच फीसदी से भी कम है। मुद्रा, स्वधन, स्टैंड अप इंडिया, मेक इन इंडिया योजनाओं का भी यही हाल है।
आगे फिर एनपीए बढ़ेगा
नए बैड बैंक का ढांचा कैसा होगा और यह कैसे काम करेगा, अभी स्पष्ट नहीं है। माना जा रहा है कि यह बैंकों से जिस कीमत पर एनपीए खरीदेगा, उसके बदले बैंकों को 15 फीसदी राशि नकद देगा। बाकी के बदले सिक्योरिटी रिसीट मिलेगी, जिस पर सरकार की गारंटी होगी। रिजर्व बैंक के 2016 के नियम के मुताबिक एआरसी को एनपीए बेचने पर बैंकों को उसके बदले प्रोविजनिंग यानी कुछ रकम अलग रखनी पड़ती है। इस नियम में ढील दी जा सकती है।
इस कवायद में असली समस्या की कहीं चर्चा नहीं है, और वह है एनपीए इतना अधिक होते क्यों हैं। कोविड-19 जैसी आपदा को छोड़ दें, तब भी भारत पारंपरिक रूप से अधिक एनपीए वाला देश रहा है। जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “समस्या कहीं और है और समाधान कहीं और तलाशा जा रहा है। बैंकों पर नेताओं का हमेशा दबाव रहता है। बैंक अगर पूरी छानबीन के बाद किसी कंपनी को कर्ज दे तो एनपीए की गुंजाइश वैसे ही कम हो जाएगी।”
रिजर्व बैंक के अनुसार सितंबर 2020 में पूरे बैंकिंग सिस्टम का ग्रॉस एनपीए कुल कर्ज का 7.5 फीसदी था। कोरोना लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था में जो सुस्ती आई उससे सितंबर 2021 में एनपीए रिकॉर्ड 13.5 फीसदी तक जा सकता है। परिस्थितियां खराब रहीं तो यह 14.8 फीसदी तक भी चला जाएगा। सरकारी बैंकों का एनपीए तो 16.2 फीसदी तक पहुंच जाने का अंदेशा है जो सितंबर 2020 में 9.7 फीसदी था। रिजर्व बैंक की ही के.वी. कामत कमेटी का आकलन है कि कोविड-19 के चलते 15.52 लाख करोड़ रुपये के कर्ज एनपीए बन सकते हैं। कोविड से पहले भी 22.20 लाख करोड़ के कर्ज फंसे हुए थे। इस तरह उद्योग जगत को बैंकों की तरफ से दिए गए कुल कर्ज का 72 फीसदी फंसने का खतरा है।
बैंकों में एनपीए छिपाने की प्रवृत्ति रही है। पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के समय बैंकों के ऐसेट क्वालिटी रिव्यू में पता चला कि अनेक सरकारी और निजी बैंकों ने एनपीए छिपाया, ताकि उनकी बैलेंस शीट मजबूत दिखे। इस रिव्यू के बाद 2015-16 में सरकारी बैंकों का एनपीए लगभग 94 फीसदी बढ़ गया था। इसलिए आरबीआई के एक पूर्व एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर बैड बैंक को ‘बैड आइडिया’ मानते हैं। नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर उन्होंने कहा, “इसके बाद तो बैंक और ढिलाई बरतने लगेंगे। उनमें यह प्रवृत्ति पनपने लगेगी कि अगर कोई कर्ज एनपीए हो गया तो उसे डिस्काउंट पर एआरसी को दे देंगे।”
बड़े कर्ज के आवेदन को मंजूरी के विभिन्न चरणों में जांचा जाता है। कंपनी की क्रेडिट रेटिंग और कर्ज के बदल रखी गई गिरवी देखी जाती है। कर्ज देने के बाद फॉलोअप और मॉनिटरिंग भी जरूरी है। इन नियमों का पालन नहीं होने के कारण ही एनपीए होते हैं। इसलिए प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “बैड बैंक से अभी तो एनपीए की समस्या कम हो जाएगी, लेकिन कर्ज देने का तरीका नहीं सुधारा गया तो आगे फिर एनपीए बढ़ेगा।” कृष्णन के अनुसार बैंक की मजबूत सेहत के लिए उसका रिस्क मैनेजमेंट अच्छा होना जरूरी है। बेहतर रिस्क मैनेजमेंट और क्रेडिट अप्रेजल के कारण ही प्राइवेट बैंकों का एनपीए कम है।
विदेशों में प्रयोग नाकाम
बैड बैंक की अवधारणा अमेरिका से आई है। वहां सबसे पहले मेलन बैंक ने 1988 में एआरसी बनाई थी। उसके बाद स्वीडन, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में भी इसे आजमाया गया। लेकिन परिस्थितियों में एक बुनियादी फर्क है। ज्यादातर देशों में बैड बैंक होम लोन के लिए बने, जबकि भारत में होम लोन बहुत कम डिफॉल्ट होते हैं। यहां बड़े प्रोजेक्ट के लिए दिए जाने वाले बड़े कर्ज ही ज्यादा डिफॉल्ट करते हैं। इटली, तुर्की, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, ब्राजील जैसे देशों में बड़े कर्ज के लिए बने बैड बैंक सफल नहीं हुए।
नई एआरसी में बैंकों की ही इक्विटी होगी। सवाल उठता है जब प्रमोटर बैंक ही अपना एनपीए उसे बेचेंगे तो क्या हितों का टकराव नहीं होगा? क्या बैड बैंक के प्रबंधन पर प्रमोटरों का दबाव नहीं होगा? रिजर्व बैंक के उपरोक्त ईडी तो हितों के टकराव की बात मानते हैं लेकिन आरबीआइ के पूर्व डिप्टी गवर्नर आर. गांधी इससे इनकार करते हैं। वे कहते हैं, “प्रमोटर होने का मतलब यह नहीं कि वे एआरसी का कामकाज भी तय करेंगे। काम प्रोफेशनल (मैनेजमेंट) करेंगे और वही देखेंगे कि एनपीए को किस कीमत पर खरीदना है।” गांधी के अनुसार आज भी एआरसी खुली नीलामी में हिस्सा लेती हैं और डूबे कर्ज खरीदती हैं।
एक और अहम सवाल है कि जब बैंकों का बनाया एआरसी डूबे कर्ज की रिकवरी कर सकता है तो बैंक खुद ऐसा क्यों नहीं कर सकते। गांधी के अनुसार एआरसी का मुख्य काम कर्ज की रिकवरी करना ही है, जबकि बैंकों को और भी काम करने पड़ते हैं। गांधी के मुताबिक एनपीए की रिकवरी के लिए विशेष स्किल की जरूरत पड़ती है। यह स्किल बैंकों के पास भी होती है, लेकिन एआरसी में इसकी विशेषज्ञता वाले लोग ही रखे जाते हैं। यही बात क्रिसिल के कृष्णन सीतारमण ने भी कही। लेकिन उक्त पूर्व ईडी इससे इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं कि कोई एआरसी किसी अनुभवी बैंक से बेहतर कैसे हो सकता है। बैंकों के पास रिकवरी और मॉनिटरिंग का अलग डिपार्टमेंट होता है। वे कर्ज की वसूली क्यों नहीं कर सकते। वे सवाल करते हैं, “जिन खातों पर बैंकों को बड़ा नुकसान होता है, उन पर एआरसी को बड़ा मुनाफा कैसे होने लगता है? जो बात एक के लिए जहर है, वह दूसरे के लिए अमृत कैसे बन जाती है?”
एसबीआइ के एक पूर्व अधिकारी के अनुसार ज्यादातर बैंकों ने डूबे कर्ज की वसूली के लिए अलग इकाई बना रखी है। जैसे एसबीआइ के पास छोटे कर्ज की रिकवरी के लिए स्ट्रेस्ड ऐसेट रिकवरी ब्रांच और बड़े अकाउंट के लिए स्ट्रेस्ड असेट्स मैनेजमेंट ब्रांच है। इनका काम कर्ज वसूलने के लिए कानूनी कार्रवाई करना, संपत्ति का मूल्यांकन करना आदि होता है। फिर भी वे गांधी की बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि डूबे कर्ज की वसूली अलग तरह का जॉब है। इसके लिए कानूनी पहलुओं की अच्छी जानकारी जरूरी है वर्ना रिकवरी अटक सकती है। पहले भी ऐसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी इंडिया लिमिटेड (आर्सिल) का गठन हुआ, लेकिन उसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। एक तो उसके पास प्रशिक्षित कर्मचारी नहीं थे। दूसरी सबसे बड़ी दिक्कत संपत्ति के मूल्यांकन को लेकर होती है। बैंक चाहते हैं कि एनपीए के जितने हिस्से की उन्होंने प्रोविजनिंग की है, कम से कम उतनी कीमत तो मिले। दूसरी ओर, एआरसी भी कम से कम कीमत में एनपीए खरीदना चाहती हैं। एसबीआइ के उक्त अधिकारी के अनुसार अगर बैड बैंक में भी यही व्यवस्था रही तो इसका सफल होना भी मुश्किल है।
बैड बैंक की सफलता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगी कि उसका मैनेजमेंट कितना प्रोफेशनल है और कामकाज में सरकार का कितना हस्तक्षेप रहता है। इन दोनों मोर्चों पर पुराना अनुभव अच्छा नहीं है। आइडीबीआइ का ग्रॉस एनपीए 2005 में 12,945 करोड़ रुपये था। विशेष पैकेज के तहत इसका 9,000 करोड़ रुपये का एनपीए स्ट्रेस्ड ऐसेट स्टेबलाइजेशन फंड में ट्रांसफर किया गया था। लेकिन बैंक के कामकाज का तरीका वही रहा। नतीजा, सरकार को आगे भी इसमें पैसे डालने पड़े। आज भी यह सबसे ज्यादा एनपीए वाले बैंकों में है। 31 दिसंबर 2020 को इसका ग्रॉस एनपीए 23.52 फीसदी और एक साल पहले 28.72 फीसदी था।
सरकारी हस्तक्षेप का बढ़िया उदाहरण बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) है। इसका गठन एक स्वायत्त बॉडी के तौर पर किया गया था। इसका काम सरकारी बैंकों में शीर्ष मैनेजमेंट की नियुक्ति में सरकार की मदद करना था। लेकिन मई 2017 में सरकार ने बिना इस बोर्ड के साथ मशविरा किए पंजाब नेशनल बैंक के एमडी को इलाहाबाद बैंक और बैंक ऑफ इंडिया के एमडी को सिंडिकेट बैंक भेज दिया। इससे बोर्ड के सदस्य काफी नाराज हुए और एक सदस्य ने तो इस्तीफा तक दे दिया था।
बैड बैंक सफल रहा तो इससे बैंकों और अंततः अर्थव्यवस्था को तात्कालिक राहत तो मिल जाएगी, लेकिन आगे एनपीए की समस्या दोबारा खड़ी न हो इसके लिए बैंकों के कामकाज में बदलाव जरूरी है। वरना जैसा कि आरबीआइ के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपनी किताब ‘आइ डू व्हाट आइ डू’ में लिखा है कि बैड बैंक सरकार की एक जेब से दूसरी जेब में पैसा डालने जैसा है। या फिर जैसा प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “बड़े लोन अकाउंट एनपीए बनते रहेंगे और सरकार करदाताओं का पैसा बैंकों में लगाती रहेगी।”
कृष्णन के अनुसार पिछले 10 वर्षों में सरकार ने बैंकों में लगभग 3.83 लाख करोड़ रुपये डाले हैं। मौजूदा वित्त वर्ष में 20 हजार करोड़ रुपये निवेश का प्रावधान है, इसमें से अभी तक 5.5 हजार करोड़ दिए हैं। अगर मार्च तक सरकार बाकी 14.5 हजार करोड़ भी दे देती है तो 10 वर्षों में रकम 3.98 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी। करदाताओं का पैसा बैंकों में लगाने पर उनका कहना है, “सार्वजनिक बैंक में बड़ी हिस्सेदारी सरकार की होती है। इसलिए बैंक को बचाना उसी की जिम्मेदारी है। बैंक में जमा पैसा भी करदाताओं का ही है। अगर सरकार निवेश नहीं करती है और उसमें जमा पैसा डूबता है तो समस्या और बड़ी हो जाएगी।”
कृष्णन का सुझाव है कि सरकारी बैंकों को आमदनी बढ़ाने के नए रास्ते तलाशने चाहिए। प्राइवेट और विदेशी बैंक कर्ज देने के अलावा फीस लेकर सेवाएं भी देते हैं। इससे उन्हें खासी आमदनी होती है। सरकारी बैंक ऐसा कम ही करते हैं। कृष्णन कहते हैं, एक या दो पीढ़ी पहले सरकारी बैंक में नौकरी पाना लोगों का सपना हुआ करता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब युवा प्राइवेट बैंक को तरजीह देते हैं। सरकारी बैंकों को प्रतिभावान युवाओं को आकर्षित करना चाहिए, क्योंकि आखिरकार लोग ही तो बैंक को चलाते हैं।