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सियासी दम से दबंगई बेपनाह

कभी प्रदेश में इनकी तूती बोलती थी, लेकिन राजनैतिक संरक्षण कम होने से बदले हालात
बिहार को बाहुबलियों की असली राजधानी कहा जाता था

जब बात अपराध और राजनीति के गलबहियां डालने की हो तो बिहार अक्सर अपने पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिबिंब नजर आता है। कानपुर में 10 जुलाई को पुलिस के साथ एनकाउंटर में मारे जाने से पहले कुख्यात डॉन विकास दुबे और उसके साथियों ने 3 जुलाई की रात मुठभेड़ में उत्तर प्रदेश के आठ पुलिसवालों की हत्या की, तो कुछ वर्षों पहले बिहार में हुई ऐसी ही घटना की याद ताजा हो आई। मार्च 2001 में बिहार के सीवान में जिला पुलिस प्रमुख बच्चू सिंह मीणा के नेतृत्व में पुलिस की एक टीम ने मोहम्मद शहाबुद्दीन को पकड़ने के लिए प्रतापपुर गांव में ऐसा ही ऑपरेशन चलाया था। डॉन से राजद सांसद बने शहाबुद्दीन के नाम अपराध के अनेक रिकॉर्ड दर्ज हैं। फिलहाल वह 2005 से जेल में सजा काट रहा है। प्रतापपुर गांव में हुई मुठभेड़ में 10 लोगों की जान गई थी, जिनमें दो पुलिसवाले भी थे। शहाबुद्दीन ने एक पुलिस अधिकारी को कथित रूप से चांटा मारा था, जिसके बाद पुलिस उसे पकड़ने गई थी। हालांकि माना जाता है कि स्थानीय पुलिसवालों के साथ वह जिस तरह अपमानजनक तरीके से पेश आता था, उससे पुलिसवालों में शहाबुद्दीन के प्रति गुस्सा भरा हुआ था और यह ऑपरेशन उसी का परिणाम था। लेकिन शहाबुद्दीन के दबदबे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि छापे के अगले ही दिन राबड़ी देवी सरकार ने मीणा समेत जिले के सभी वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला कर दिया। उस वक्त शहाबुद्दीन गिरफ्त में तो नहीं आया लेकिन पुलिस ने छापे में उसके घर से एके-47 राइफलों समेत हथियारों का जखीरा बरामद किया। इसके बाद शहाबुद्दीन ने यह कहते हुए एसपी को मारने की कसम खाई कि भले ही इसके लिए राजस्थान (एसपी के गृह प्रदेश) तक पीछा करना पड़े।

इस घटना से पांच साल पहले जीरादेई से जनता दल का विधायक रहते शहाबुद्दीन ने सीवान के तत्कालीन एसपी संजीव कुमार सिंघल पर कातिलाना हमला किया था। सिंघल उसके खिलाफ 1996 के संसदीय चुनाव से संबंधित एक शिकायत की जांच कर रहे थे। 1980 के दशक में कई अपराधों में नाम आने के बाद शहाबुद्दीन ने 1990 में निर्दलीय विधायक के तौर पर राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी। जल्दी ही वह तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की नजरों में आ गया और 1995 का विधानसभा चुनाव सत्तारूढ़ पार्टी के टिकट पर लड़ा। 1996 से 2004 तक उसने चार संसदीय चुनाव जीते और इस दौरान सीवान उसकी निजी जागीर की तरह बना रहा। वसूली, अपहरण और हत्या के कई हाई-प्रोफाइल मामलों में उसका नाम आया, इसके बावजूद वह अपने अपराध का सिंडिकेट बेरोकटोक चलाता रहा। उसका नेटवर्क कई राज्यों तक फैल गया था। जब शहाबुद्दीन जैसे शक्तिशाली डॉन की सत्ता के गलियारों में अबाध पहुंच थी, तब यह सुनकर आश्चर्य नहीं होता था कि बिहार बाहुबलियों की असली राजधानी है।

लेकिन अब बिहार का वह स्थान नहीं रहा। विकास दुबे जैसे अपराधियों के उत्थान (और पतन) से उत्तर प्रदेश सुर्खियों में रहने लगा है। बिहार में बीते 15 वर्षों के दौरान कानून के लंबे हाथों ने धीरे-धीरे शहाबुद्दीन और उसके जैसे दूसरे डॉन को खामोश करने में सफलता पाई है। राजनीतिक संरक्षण का ही नतीजा था कि शहाबुद्दीन, आनंद मोहन, सूरजभान सिंह, सुनील पांडे, पप्पू यादव, मुन्ना शुक्ला, सतीश पांडे, मनोरंजन सिंह धूमल, रामा सिंह, राजन तिवारी, अनंत सिंह, रणवीर यादव, बूटन यादव, अवधेश मंडल और रीतलाल यादव जैसे बाहुबली अपने-अपने इलाकों में दबदबा कायम करने में कामयाब हुए। नीतीश सरकार ने पुराने आपराधिक मामलों के जल्दी निपटारे के लिए 2006 में फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया, जिससे इन बाहुबलियों पर लगाम लगाने में काफी सफलता मिली। इन अदालतों ने अनेक बाहुबलियों को अपराधी ठहराया जिससे डॉन से नेता बने ये लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो गए। धनबल और बाहुबल से इन्होंने जो राजनीतिक दबदबा बनाया था, वह कम होने लगा। फिलहाल ये लोग या तो जेलों में सजा काट रहे हैं या फिर ये राजनीतिक दलों के लिए ‘अछूत’ बन गए हैं।

शहाबुद्दीन 2005 से जेल में है, हालांकि 2016 में वह कुछ दिनों के लिए जमानत पर बाहर आया था। उसे एक के बाद एक कई मामलों में सजा सुनाई गई और फिलहाल वह तिहाड़ जेल में बंद है। सीपीआई-माले कार्यकर्ता छोटेलाल गुप्ता के अपहरण और हत्या के मामले में 2007 में उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इसके बाद दो भाइयों की नृशंस हत्या के मामले में 2015 में उसे उम्रकैद की सजा मिली। इन दोनों भाइयों को गोली मारने से पहले एसिड से नहला दिया गया था। घटना का प्रत्यक्षदर्शी तीसरा भाई घटनास्थल से तो बचकर भागने में कामयाब रहा, लेकिन इस मामले में गवाही देने से तीन दिन पहले 2014 में उसकी भी गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस बीच, 1996 में एसपी सिंघल पर कातिलाना हमले के मामले में 2007 में उसे 10 साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। इसके एक साल बाद अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा मिलने के मामले में भी उसे 10 साल की सजा मिली। उसके घर से पाकिस्तान में बनी ऐसी स्वचालित राइफलें मिली थीं जिनका इस्तेमाल सिर्फ सेना करती थी। शहाबुद्दीन के अपराधों की सूची इतनी लंबी है कि कुछ मामलों पर सुनवाई अभी तक जारी है।

अब शहाबुद्दीन को देखकर यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि यह वही डॉन है जिसने कभी पूरे राज्य की पुलिस को अकेले चुनौती दी थी। पुलिस महानिदेशक डी.पी. ओझा के कार्यकाल में उसके खिलाफ लंबा-चौड़ा डोजियर तैयार किया गया था। इसके बावजूद पुलिस उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकी थी। इस डोजियर के मुताबिक शहाबुद्दीन के संबंध न सिर्फ कश्मीर के आतंकवादी संगठनों, बल्कि आइएसआइ और दाऊद इब्राहिम के साथ भी थे।

1973 बैच के आइपीएस मनोज नाथ, जो बिहार के होमगार्ड महानिदेशक पद से रिटायर हुए, के अनुसार बिहार में डर का राजनीतिक इस्तेमाल किसी न किसी रूप में हमेशा होता रहा है, लेकिन 1990 के दशक में मंडल-मस्जिद राजनीति के दौरान यह राजनीतिक रसूख का मौलिक हिस्सा बन गया। वे कहते हैं, “इस डर ने राजनीति में पहले भी अहम भूमिका निभाई और अब भी इसकी भूमिका अहम है, इसलिए अपराध और राजनीति का गठजोड़ एक तरह से प्राकृतिक मेल बन गया। वोट दिलाने में मददगार अपराधियों को खुलेआम पुरस्कृत किया जाने लगा। वे सत्ता के गलियारे में पिछले दरवाजे से नहीं, बल्कि सामने से आने लगे। अपने दबदबे और संरक्षण मिलने की वजह से उनके लिए छिपकर रहना जरूरी नहीं रह गया, बल्कि अब वे अकड़ के साथ चलने लगे।”

अपने समय में दबदबा और राजनीतिक संरक्षण हासिल करने वाला शहाबुद्दीन अकेला बाहुबली नहीं था। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अन्य लोग भी थे जो बाहुबल के दम पर राजनीति में आए। कोसी क्षेत्र में रॉबिन हुड नाम से जाना जाने वाला आनंद मोहन भी ऐसा ही एक प्रभावशाली बाहुबली था, जिसने बिहार पीपुल्स पार्टी नाम से अपना राजनीतिक दल बनाया। लेकिन गोपालगंज के जिलाधिकारी जी. कृष्णैय्या की हत्या के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद उसकी राजनीतिक यात्रा आगे नहीं बढ़ सकी। मुजफ्फरपुर जिले में 1994 में उसने जिलाधिकारी पर हमला करने वाली भीड़ की अगुआई की थी। निचली अदालत ने 2005 में उसे उम्रकैद की सजा सुनाई। हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखा। जेल में बंद वह कई किताबें लिख चुका है।

कोसी क्षेत्र से एक और बाहुबली है पप्पू यादव, जो पांच बार सांसद रह चुका है। माकपा विधायक अजित सरकार की 1998 में हत्या के मामले में जिला अदालत ने उसे दोषी ठहराया था, हालांकि बाद में हाइकोर्ट ने उसे इस मामले में बरी कर दिया। कई साल तक सलाखों के पीछे रहने के बावजूद वह प्रदेश की राजनीति में दोबारा पैर जमाने में कामयाब रहा। हालांकि बाद के दिनों में उसने अपना डॉन का अवतार छोड़ दिया और ज्यादातर वक्त सामाजिक कार्यों में बिताने लगा।

मोकामा क्षेत्र से एक समय डॉन सूरजभान सिंह का भी बड़ा नाम था। रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीतकर उसने राजनीति में सफलतापूर्वक प्रवेश किया था, लेकिन हत्या के एक मामले में उम्रकैद की सजा सुनाए जाने के बाद वह चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो गया। चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित होने के बाद कई बाहुबलियों ने अपनी पत्नियों को उम्मीदवार बनाया, पर सूरजभान जैसे कुछ लोगों को ही इसमें सफलता मिली। शहाबुद्दीन की पत्नी 2009 से तीन बार संसदीय चुनाव हार चुकी हैं।

ऐसा भी नहीं कि नीतीश कुमार प्रशासन का किसी डॉन के साथ संबंध नहीं रहा। नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के कई विधायक बाहुबली थे, लेकिन उन्हें संरक्षण कम ही मिला। नीतीश ने कानून को अपने तरीके से काम करने की अनुमति दी और पार्टी के विधायकों से जुड़े किसी भी मामले की जांच में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि सुनील पांडे और अनंत सिंह जैसे कई हाई-प्रोफाइल बाहुबली उनकी पार्टी से अलग हो गए।

राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का कहना है कि नीतीश सरकार को लालू राबड़ी के 15 वर्षों के तथाकथित ‘जंगल राज’ के बारे में कुछ भी कहने का नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि यह सरकार भी बाहुबलियों के दम पर ही सत्ता में आई थी। राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी कहते हैं, “एक धारणा बनाई गई कि राजद के शासनकाल में जंगल राज था, लेकिन एनडीए के शासन में क्या हो रहा है? इसके 15 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में अपराध का ग्राफ देश में सबसे ऊपर है। प्रदेश में खुलेआम एके-47 राइफलें लहराई जा रही हैं। अगर राजद का शासनकाल जंगल राज था तो नीतीश के शासन काल को क्या कहेंगे, महा-जंगल राज?”

तिवारी कहते हैं, “राजद नेता तेजस्वी प्रसाद यादव ने बिहारवासियों से पार्टी के शासनकाल के दौरान हुई गलतियों और खामियों के लिए माफी मांग ली है। बिहार के लोगों ने हमारी पार्टी को 15 साल तक सत्ता से बाहर रखकर सजा दे दी है, लेकिन अब नीतीश सरकार को यह बताना पड़ेगा कि इसने अपने शासनकाल में सिवाय 55 घोटालों के और क्या किया? उन्हें हमारे शासनकाल की गलतियां गिनाने के बजाय अपनी उपलब्धियों का हिसाब देना पड़ेगा।”

जवाब में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता निखिल आनंद कहते हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नीतीश ने बिहार को माफिया डॉन के आतंक से मुक्ति दिलाई है। आपराधिक तत्व छिप गए हैं, लेकिन अब वे मुख्यमंत्री के विरोधी राजनीतिक दलों के साथ आ रहे हैं। आनंद के अनुसार, “हमारी सरकार गुड गवर्नेंस को बढ़ावा दे रही है, इसलिए बाहुबली खामोश हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि आरजेडी शराब माफिया, रेत माफिया, भू-माफिया और खनन माफिया जैसी ताकतों के साथ सांठगांठ कर रही है।” वे सवाल करते हैं कि क्या राजद इन ताकतों के दम पर सत्ता में लौटना चाहती है?

आनंद कहते हैं, “आगामी विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को इन बाहुबलियों और विपक्ष के साथ उनकी सांठगांठ पर नजर रखनी चाहिए। बिहार एक बार फिर बाहुबलियों के युग में जाने का खतरा नहीं उठा सकता। भविष्य में भी इन ताकतों को दरकिनार रखने का सबसे अच्छा विकल्प नीतीश जी ही हैं।”

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