नतीजों ने मोटे तौर पर अपनी जानी-पहचानी दिशा की ओर ही रुख किया। शायद इसीलिए गुजरात तथा हिमाचल प्रदेश में विधानसभा और यहां तक दिल्ली नगर निगम के चुनावी नतीजों के कथित चुनाव पंडितों और एक्जिट पोल वालों के कयास भी थोड़ी फेरबदल और थोड़ी हैरानी के साथ सही ही बैठे। फर्क बस इतना था कि हिमाचल में कांटे की टक्कर बताने वाले मुंह की खा गए और गुजरात में भाजपा को कुछ कम बढ़त दिलाने तथा आम आदमी पार्टी को बड़ा बनकर उभरने की बात कहने वाले झटका खा गए। कहिए, दोनों राज्यों ने अपनी रवायत नहीं छोड़ी, बल्कि अपनी दिशा में कुछ ज्यादा ही ढरक गए। हिमाचल ने हर पांच साल में सरकार बदलने के अपने रिवाज को कायम रखा और सत्तारूढ़ भाजपा को नाकामियों की सजा कांग्रेस को मुकम्मल जीत देकर दी। दूसरी ओर गुजरात के लोगों ने विपक्ष को सत्ता में बार-बार न पहुंच पाने की सजा सुनाई और भाजपा को वह बहुमत दे दिया, जिसकी लालसा वह पिछले 27 साल से कर रही थी। दिल्ली नगर निकाय ने भी वही राह पकड़ी, जो सत्तारूढ़ दल के माफिक थी और वह भी कमोबेश सामान्य-सी परिघटना ही है।
हालांकि, इन नतीजों के राजनैतिक संदेश काफी कुछ अलग और कुछ चौंकाऊ भी हैं, मगर गौर से देखें तो उसी दिशा में हैं, जिसका संदेश आज की राजनीति दे रही है। सबसे पहली बात गौर करने की यह है कि इन तीनों चुनावों में मोटे तौर पर भाजपा के वोटों में कमी नहीं आई है, बल्कि कहीं-कहीं बढ़ी ही है। हिमाचल में इस बार भाजपा को 2017 के विधानसभा चुनावों के करीब 48 फीसदी वोट के मुकाबले 43 फीसदी वोट मिले, लेकिन कांग्रेस का वोट प्रतिशत 2017 से सिर्फ 2 फीसदी के आसपास ही ज्यादा रहा। बाकी वोट शायद उन निर्दलीयों के खाते में गए, जो भाजपा के बागी थे। गुजरात में भाजपा को इस बार मिले तकरीबन 52 प्रतिशत वोट में 2017 के मुकाबले सिर्फ 3 प्रतिशत का इजाफा हुआ, जबकि कांग्रेस पिछली बार के 41 फीसदी वोट के मुकाबले करीब 28 प्रतिशत वोट पर आ गई। इसके मायने हैं कि कांग्रेस के ज्यादातर वोट आम आदमी पार्टी के खाते (वोट हिस्सेदारी तकरीबन 13 प्रतिशत) में गए। दिल्ली के नगर निगम चुनावों में भी कांग्रेस पिछली बार के करीब 25 फीसदी वोट के मुकाबले इस बार 12 फीसदी वोट ही पा सकी, लेकिन भाजपा का वोट प्रतिशत लगभग बना हुआ है, इसलिए आप को मिले वोटों में कांग्रेस के वोट ही ज्यादा हैं।
इसका जाहिरा मतलब यही निकलता है कि कांग्रेस से हाल के दौर में बिखरे वोटों को भाजपा ज्यादा नहीं समेट पा रही है, खासकर उन राज्यों में जहां ये दोनों आमने-सामने हैं, बल्कि कांग्रेस के नाकारापन से ऊब कर लोग दूसरे विकल्प तलाश रहे हैं। गौरतलब यह भी है कि आप यह खेल सिर्फ गुजरात या दिल्ली में ही कर पाई, हिमाचल में नहीं। वजह भी साफ है। गुजरात में 2002 के चुनावों में जो 127 सीटें भाजपा को मिली थीं, वह हर पांचवें साल घटती गई थीं, सिर्फ इस बार को छोड़कर। यानी लगातार तीन चुनावों में कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी तो लोगों ने उस पर दांव लगाने के बदले दूसरे विकल्प की ओर रुख किया। इसी तरह दिल्ली में कांग्रेस अपनी लुटिया डुबो चुकी है तो लोगों की उससे बेरुखी की वाजिब वजहें दिखती हैं। लेकिन हिमाचल में ऐसा नहीं हो सका, जहां कांग्रेस न इतनी कमजोर है और पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की अनुपस्थिति के बावजूद उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह का चेहरा कायम है।
इसलिए यह अनुमान कोरी अटकल है कि आप राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जगह ले लेगी। साथ ही यह भी शायद सही नहीं है कि भाजपा की लहर जोरदार होती जा रही है। नरेंद्र मोदी की छवि भी सब जगह काम नहीं आती, जैसा कि हिमाचल और दिल्ली में कोई जादू नहीं चला। यह वहीं दिखता है, जहां कांग्रेस या विपक्ष नाकारापन की मिसाल बनता जा रहा है। गुजरात का मामला कुछ अलग किस्म यानी बड़े खालीपन का है जिसकी चर्चा अगली पंक्तियों में की जाएगी। इन नतीजों का एक और बड़ा संकेत यह मिलता है कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम को न गुजरात में, न दिल्ली में कोई तरजीह मिली है। बल्कि दिल्ली में कांग्रेस के ज्यादातर वार्ड मेंबर (कुल 9 में से 7) मुसलमान हैं, इसलिए मुसलमान बिरादरी अधिक तर्कसंगत रुख दिखा रही है। वह भाजपा के विरोध में कोई अलग राह नहीं पकड़ रही है। राजनैतिक गलियारों की सुगबुगाहटों पर गौर करें तो आप और एआइएमआइएम की कोशिश कांग्रेस के वोट में सेंध लगाकर अपना अधार बनाने की है। यह एक हद तक गुजरात के चुनावों में आप के वोटों के इजाफे और कांग्रेस की सीटें सबसे निचले स्तर पर पहुंचने में दिखता भी है। लेकिन यही बात एआइएमआइएम के लिए नहीं कही जा सकती क्योंकि उसे आधे फीसदी के आसपास ही वोट हासिल हो पाए।
तो, असली संकट कांग्रेस का है। जिन राज्यों में वह लगातार मुकाबले से बाहर होती जा रही है, उनमें भाजपा के पैर जम रहे हैं। यह कांग्रेस के नेताओं को तोड़कर अपने पाले में लाने की भाजपा की कोशिशों का भी फल है। गुजरात में 2017 में जिन हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी के आंदोलनों के बल पर कांग्रेस को 77 सीटें मिल गई थीं और भाजपा 99 पर आ टिकी थी, उस तिकड़ी में सिर्फ मेवाणी ही कांग्रेस में बने हुए हैं और चुनाव जीत भी गए हैं। हार्दिक और अल्पेश भाजपा में चले गए और शायद अपने साथ क्रमशः कुछेक पाटीदार और ओबीसी वोट भी ले गए। गुजरात में इस बार आदिवासी सीटें भी लगभग भाजपा के पाले में चली गईं। यह बदलाव भी शायद कांग्रेस और बीटीपी के नाकारापन की वजह से ही हुआ हो। यहां गौरतलब यह भी है कि जिस गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहा जाता है, वह एकरंगी कतई नहीं है। उसका संकट कुछ और है।
भाजपा के लिए शायद यह उक्ति फिट बैठती है कि सत्ता से ही सत्ता निकलती है तो कांग्रेस के लिए कह सकते हैं कि सत्ताविहीनता से वह किनारे पर लगती जा रही है। अगर कोई पार्टी लंबी अवधि से लगातार विपक्ष में बनी हुई है, तो सत्ता में आने की उसकी संभावना हर चुनाव के साथ घटती जाती है। उसमें लोगों की दिलचस्पी घटती जाती है और पालाबदल या दूसरा विकल्प मौजूद होते ही वह हाशिये पर ठेल दी जाती है। इसी तरह कांग्रेस पिछले दशक से पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और त्रिपुरा में अप्रासंगिक ताकत बन गई है। हालांकि अभी भी कांग्रेस कई मझोले या बड़े राज्यों में बड़ी या मुख्य विपक्षी पार्टी बनी हुई है। जैसे, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और एक हद तक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में। इनमें से ज्यादातर राज्यों में वह भाजपा की प्रमुख विरोधी है। गुजरात एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस सबसे लंबे समय से बेरोकटोक विपक्षी पार्टी बने रहने का रिकॉर्ड बना चुकी है। हालांकि 1985 के गुजरात चुनाव में कांग्रेस ने बहुमत हासिल किया था। दिलचस्प बात यह है कि उसने तब 55.5 फीसदी वोट और कुल 149 सीटें हासिल की थीं। तब से, पार्टी लगातार सात बार विधानसभा चुनाव हार चुकी थी और आठवीं बार तो सबसे निचले पायदान पर पहुंच गई।
गुजरात में 40 वर्ष से कम आयु के लगभग एक-तिहाई मतदाताओं को राज्य में कांग्रेस शासन की कोई वास्तविक स्मृति तक नहीं है। ऐसे में लगता है कि उसे बार-बार सत्ता में न पहुंचने और इस बार बेमन से चुनाव प्रचार करने के लिए मतदाताओं ने दंडित किया है।
गुजरात की एक और हकीकत यह है कि वहां सार्वजनिक छवि के मामले में विराट शून्य बन गया है या बना दिया गया है। पूरे गुजरात में राजनीति तो छोड़िए, साहित्य, संस्कृति, फिल्म, रंगमंच, नृत्य, समाजशास्त्र, विज्ञान, किसी भी क्षेत्र में आज ऐसी गुजराती हस्तियां नहीं हैं जिनका असर पूरे प्रदेश में हो। जो हैं, वे अपनी आवाज खो चुके हैं। इसी निराशाजनक शून्य में नरेंद्र मोदी एकमात्र ऐसी शख्सियत हैं, जिनकी प्रधानमंत्री होने के नाते छवि काफी असरकारी बनी हुई है। अलबत्ता, इस खालीपन को अगर कोई भर रहा है तो सिर्फ नए किस्म के लोकगायक और भजन गायक हैं।
गुजरात मतलब मोदीः राजनाथ सिंह, जेपी नड्डा और अमित शाह के साथ
आप आज गुजरात में सितारों की हैसियत वालों के बारे में अधिक जानना चाहते हैं, तो आपको गायिका गीता रबारी और विजय सुवादा के बारे में जानना चाहिए, जो देहाती रबारी समुदाय से संबंधित हैं। संगीतकार जिग्नेश कविराज बारोट (दलित लोक कथाकार) समुदाय से हैं, जबकि ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) गढ़वी समुदाय में सैकड़ों लोक गायक हैं। राजाओं की वीरता की कहानियां बताने और गाने के लिए बारोट और गढ़वी लोगों को दरबार में रखा जाता था, वे गजब के गीतकार और गायक हुआ करते थे। कई बार ये गायक स्टेज पर लाखों रुपये जमा कर लेते हैं। कीर्तिदान गढ़वी जैसे कुछ भजन गायकों की बुकिंग एक साल पहले ही हो जाती है। भाजपा ने 1980 के दशक के उत्तरार्ध से ही धार्मिक और राजनीतिक गुजरात का ठोस नेटवर्क कायम किया है। यही नेटवर्किंग कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में भी अपनाई गई है।
बहरहाल, इन चुनावों का असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ सकता है, मगर कोई भी कयास लगाना अभी मुश्किल है क्योंकि हर राज्य की स्थितियां या गणित अलग है।