लठ गाड़ दिया! अमूमन उम्मीद के उलट हैरतअंगेज जीत पर कही जाने वाली यह हरियाणवी कहावत 8 अक्टूबर को विधानसभा चुनाव नतीजों पर कुछ ऐसी फिट बैठी कि जीतने वालों को भी हैरान कर गई। सारे समीकरण, अनुमान और कयास धरे रह गए। राज्य के 58 साल के (नवंबर 1966 में गठन) चुनावी इतिहास में पहली बार कोई सत्ताधारी दल लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज हुआ है। विधानसभा की कुल 90 में से अधिकतर सीटों पर कांग्रेस से दोतरफा मुकाबले में मात्र 0.85 प्रतिशत अधिक मत लेकर भाजपा 48 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत पा गई और सरकार बनाने की हैट्रिक लगाने में कामयाब हुई। दस साल की एंटी-इन्कंबेंसी और किसानों, जवानों, पहलवानों की नाराजगी जैसे मुद्दों के सहारे जीत के प्रति अतिमहत्वाकांक्षी कांग्रेस बहुमत से 9 सीट दूर 37 पर सिमट गई। वह मतदाताओं की खामोशी के बीच जाट और गैर-जाट ध्रुवीकरण से मात खा गई। भाजपा ने राज्य के विभिन्न क्षेत्रों जीटी रोड बेल्ट, बांगर, देशवाल और अहीरवाल में कांग्रेस पर कुल 11 सीटों की बढ़त दर्ज की, हालांकि दोनों पार्टियों के बीच कुल मत प्रतिशत में फर्क एक फीसदी से भी कम रहा।
हारे बड़ा दांवः भूपेन्द्र सिंह हुड्डा
राज्य के कुल दो करोड़ साढ़े तीन लाख मतदाताओं में इस बार 1.38 करोड़ लोगों ने वोट डाला, जिसमें भाजपा के खाते आए 55 लाख 48,800 वोट जबकि कांग्रेस को 54 लाख 30,602 मत मिले। भाजपा को मिली 10 सीटों पर जीत का अंतर एक हजार से भी कम का रहा और यहीं बाजी पलट गई। भाजपा उचाना कलां सीट कांग्रेस के चौधरी बृजेंद्र सिंह से मात्र 32 मतों से जीती।
2019 के विधानसभा चुनाव में 10 सीटें जीतकर भाजपा के लिए किंगमेकर बनी चौटाला परिवार की जननायक जनता पार्टी (जजपा) इस बार पूरी तरह से हाशिये पर चली गई। पूर्व उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और उनके भाई दिग्विजय चौटाला समेत 90 सीटों पर उनका एक भी उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा पाया। बसपा से गठबंधन में दो सीटों पर सिमटी चौटाला परिवार की ही इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के प्रधान महासचिव अभय चौटाला भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। इंडिया ब्लॉक से गठबंधन के बगैर मैदान में उतरी अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार 90 में से एक भी सीट पर जमानत नहीं बचा पाए।
लाल तिकड़ी बंसीलाल,देवीलाल और भजनलाल के परिवारों में भाजपा के टिकट पर तोशाम से बंसीलाल की पोती श्रुति चौधरी ने कांग्रेस के उम्मीदवार अपने चचेरे भाई अनिरुद्ध चौधरी को हराया। देवीलाल के पड़पौत्र अर्जुन चौटाला ने रानिया से अपने दादा रणजीत चौटाला पर जीत दर्ज की। कभी भजनलाल के पौत्र भव्य बिश्नोई भाजपा की टिकट पर कांग्रेस के चंद्रप्रकाश से हार गए। करीब डेढ़ दशक बाद सक्रिय हुए भजनलाल के बड़े पुत्र चंद्रमोहन बिश्नोई कांग्रेस के टिकट पर पंचकूला से जीत गए।
भाजपा ने 2014 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी लेकिन 2019 में बहुमत से 6 सीट दूर 40 पर सिमट गई थी। इस बार वह जनता की नाराजगी की आशंका में विधानसभा चुनाव से छह महीने पहले मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की जगह ओबीसी चेहरे नायब सैनी को ले आई। पार्टी 2014 की तर्ज पर इस चुनाव में भी जाट-गैर जाट ध्रुवीकरण करने में सफल रही। भाजपा के लिए अंदरखाने इनेलो का समर्थन भी कारगर साबित हुआ।
भाजपा ने नायाब सैनी समेत 60 सीटों पर नए चेहरे उतारे जिनमें 34 जीते। नए के चक्कर में एक तिहाई विधायकों समेत चार मंत्रियों के भी टिकट काटे गए। चुनाव में उतरे सैनी सरकार के दस में से आठ मंत्रियों को लोगों ने नकार दिया। विधानसभा स्पीकर ज्ञानचंद गुप्ता तक अपनी पंचकूला सीट नहीं बचा पाए। भाजपा के दिग्गज जाट चेहरे कैप्टन अभिमन्यु (नारनोंद) और ओमप्रकाश धनखड़ (बादली) भी चुनाव हार गए। जीतने वाले प्रमुख चेहरों में लाडवा से मुख्यमंत्री सैनी के अलावा पिछली सरकार के केवल दो मंत्री मूलचंद शर्मा (बल्लभगढ़) और महिपाल ढांडा (पानीपत ग्रामीण) शामिल हैं।
जाट-गैर जाट, ओबीसी, दलित जैसे जाति समीकरणों में उलझे इस चुनाव में भी जाट-गैर जाट मतदाताओं के धुव्रीकरण में ओबीसी नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर भाजपा ने सबसे अधिक 22 ओबीसी चेहरों पर दांव खेला। भाजपा की इस रणनीति की काट में कांग्रेस का 20 ओबीसी चेहरों पर दांव नहीं चला। सबसे अधिक 28 उम्मीदवार जाट उम्मीदवार मैदान में उतारने से भी कांग्रेस जाट मतदाओं को एकतरफा अपने पक्ष में करने में कामयाब नहीं रही जबकि भाजपा का 16 जाट चहेरों पर दांव गैर-जाटों में दलितों को भी अपने पाले में करने में सफल रहा। बलात्कार व पत्रकार ही हत्या के आरोप में आजीवन जेल की सजा काट रहे डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत राम रहीम को मतदान से दो दिन पहले जेल से पैरोल पर रिहा किए जाने का करीब दो दर्जन सीटों पर प्रभाव भी भाजपा के पक्ष में गया।
गुटबाजी, भितरघात, मुख्यमंत्री पद के लिए भुपेंद्र हुड्डा, कुमारी सैलजा व रणदीप सुरजेवाला में घमासान, एक दशक से संगठन व संसाधनों के अभाव जैसी चुनौतियों के बीच कांग्रेस बेरोजगारी, कारोबारी (कानून व्यवस्था), किसान (एमएसपी की कानूनी गारंटी), जवान (अग्निवीर), पहलवान (यौन शोषण), पोर्टल की सरकार (परिवार व प्रॉपर्टी पहचान पत्र)जैसे तमाम मुद्दों को उठाने के बावजूद बहुमत से दूर रही जबकि चार महीने पहले इन्हीं मुद्दों के दम पर उसने 10 में से 5 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस के 16 विधायकों को हार का सामना करना पड़ा।
पूर्व मुख्यमंत्री भुपेंद्र सिंह हुड्डा भले ही 71,000 से अधिक मतों से जीते पर उनके तीन विधायक समालखा से धर्म सिंह छोक्कर, सोनीपत से कृष्ण पंवार और महेंद्रगढ़ से राव दान सिंह जीत दर्ज नहीं कर पाए। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष उदयभान होडल सीट नहीं बचा पाए। हुड्डा के समधी करण दलाल पलवल से हारे। बीते साल नूंह की बृजमंडल यात्रा के दौरान हिंसा के आरोपी कांग्रेस के मामन खान फिरोजपुर झिरका से प्रदेश में सबसे बड़े रिकॉर्ड 98 हजार से अधिक मतों से जीते हैं। विनेश फोगाट जुलाना से कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा पहुंची हैं।
पहली जीतः कांग्रेस टिकट पर जीतीं विनेश फोगाट
हुड्डा, कुमारी सैलजा व रणदीप सुरजेवाला की खेमेबंदी के बीच कांग्रेस हाईकमान ने 90 में से 72 सीटों पर हुड्डा समर्थकों को उतारकर उन पर भरोसा जताया था, पर गुटबंदी के चलते पार्टी बहुमत से दूर रह गई। चुनाव प्रचार अकेले हुड्डा के हवाले छोड़ने वाला सैलजा, रणदीप, बीरेंद्र गुट प्रचार के आखिरी दिन तक पूरे हरियाणा में नहीं गए। अपने बेटे आदित्य की जीत सुनिश्चित करने के लिए रणदीप कैथल से बाहर नहीं निकले वहीं बीरेंद्र सिंह भी अपने बेटे बृजेंद्र के लिए उचाना कलां में डटे रहे। बावजूद इसके बृजेंद्र सिंह भाजपा के देवेंद्र अत्री से मात्र 32 मतों से हार गए। नौ सीटों पर अपने समर्थकों के प्रचार के लिए सैलजा 27 सितंबर को इसलिए उतरीं कि उस दिन राहुल गांधी की हरियाणा में पहली रैली सैलजा समर्थक शमशेर सिंह गोगी के हलके असंध में थी। सैलजा समर्थक नौ उम्मीदवारों में से केवल तीन जीत दर्ज कर पाए।
चुनाव प्रचार के आखिरी तीन दिन राहुल गांधी की चार रैलियां जिन हलकों में हुईं, उनमें सिर्फ एक कलायत में कांग्रेस जीत हासिल कर सकी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह द्वारा की गई 14 रैलियों में से सात सीटों पर भाजपा कामयाब रही। बहादुरगढ़ से गोहाना तक पांच विधानसभा सीटों पर निकले राहुल गांधी के रोड शो से कांग्रेस को एक पर भी जीत नहीं मिली।
कई कांग्रेसी उम्मीदवारों ने वोट के बदले नौकरियां देने के बयान से बवाल खड़ा कर दिया। फरीदाबाद से कांग्रेसी उम्मीदवार नीरज शर्मा का 50 वोट के बदले एक सरकारी नौकरी की पेशकश का वीडियो वायरल होने के अगले ही दिन गन्नोर से कांग्रेसी उम्मीदवार कुलदीप शर्मा के बेटे चाणक्य पंडित ने चुनाव प्रचार में पर्चे पर रोल नंबर लिख देने वालों को मुख्यमंत्री बनने पर हुड्डा से नौकरी दिलाने का वादा किया। प्रदेश अध्यक्ष उदयभान तक ने अपने हलके में चुनाव प्रचार के दौरान अपने कोटे की पांच हजार नौकरियां बताते हुए कहा ये नौकरियां वे अपने हलके के युवाओं को देने का वादा किया। असंध से चुनाव हारे विधायक शमशेर गोगी ने सरकार बनने पर सबसे पहले अपना व अपने रिश्तेदारों का घर भरने का बयान दिया।
अंबाला में नाचते भाजपा कार्यकर्ता
मूल रूप से हरियाणा के हिसार जिले के रहने वाले आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की पार्टी 90 सीटों में से एक पर भी जमानत तक नहीं बचा पाई। आप का मत प्रतिशत भले ही जजपा के 0.90 प्रतिशत से करीब दोगुना 1.79 प्रतिशत रहा पर उसने कांग्रेस को कमजोर किया। 2019 के विधानसभा चुनाव में 10 सीटें जीत भाजपा के लिए किंगमेकर बने दुष्यंत चौटाला उचाना कलां में पाचवें नंबर पर अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। उनकी पार्टी लोकसभा में भी किसी सीट पर जमानत नहीं बचा पाई। इस बार सांसद चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी से गठबंधन भी किसीकाम नहीं आया।
सियासी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही देवी लाल परिवार की इंडियन नेशनल लोकदल 2019 के विधानसभा चुनाव में मात्र एक सीट एलनाबाद से बढ़कर इस बार दो सीट रानियां और डब्बावली सीट पर जीती। रानियां सीट से देवी लाल के पड़पौत्र अर्जुन चौटाला ने अपने ही दादा निर्दलीय रणजीत चौटाला को शिकस्त दी जबकि उनके पिता एंव पार्टी के प्रधान महासचिव अभय चौटाला ऐलनाबाद से कांग्रेस के भरत बेनीवाल से हार गए। डब्बावली सीट से जीत दर्ज करने वाले अभय चौटाला के चचेरे भाई आदित्य देवी लाल चुनाव से ठीक पहले भाजपा छोड़ इनेलो में शामिल हुए थे। आदित्य ने चचेरे भाई कांग्रेस के अमित सिहाग को मात्र 610 मतों से हराया।
बहुमत की सरकार बनने के बावजूद मुख्यमंत्री नायब सैनी के समक्ष चुनौतियां अब भी कम नहीं हैं। पहला वह खुद अनुभवी नहीं हैं। दूसरा, 12 शपथ ग्रहण समारोह के साथ ही मंत्रिमंडल के गठन में उनकी सरकार में शामिल होने वाले संभावित मंत्रियों के भी अधिकतर नए होने की वजह से सरकार के कामकाज पर असर पड़ सकता है। इस चुनाव में अंबाला कैंट से आजाद उम्मीदवार चित्रा सरवारा से कांटे की टक्कर में मात्र 7000 मतों से जीत दर्ज करने वाले पुराने मंत्रियों में गृह, स्वास्थ्य व स्थानीय निकाय जैसे अहम महकमों के मंत्री रहे अनिल विज सातवीं बार के अनुभवी विधायक हैं जिन्हें मनोहर लाल को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद नायब सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया था। बीते विधानसभा चुनाव के दौरान कई बार मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने वाले विज से तालमेल बैठाना नायब सैनी के लिए कड़ी चुनौती साबित हो सकता है क्योंकि साढ़े नौ साल की मनोहर सरकार में भी मंत्री रहे विज की मनोहर लाल से तनातनी जगजाहिर है।
दूसरा प्रदेश की माली हालात के मद्देनजर भाजपा के संकल्प पत्र में किए 10 बड़े वादे भले ही भाजपा के लिए तीसरी बार सरकार बनाने में गेमचेंजर साबित हुए हैं पर इन्हें पूरा करना भी भाजपा के लिए कड़ी चुनौती है। पहले ही साढ़े चार लाख करोड़ रूपये के कर्ज से जूझ रहे हरियाणा में अपने चुनावी संकल्प पत्र में भाजपा ने सालाना करीब 25,000 करोड़ रूपये के खर्च की चुनावी घोषणाएं की हैं। इनमें से कई कांग्रेस से चुराई हुई हैं। जैसे, कई घोषणाओं में महिला मतदाताओं को साधने के लिए 18 से 60 साल की 78 लाख से अधिक महिलाओं को हर महीने 2100 रुपए की लाडो लक्ष्मी स्कीम, 49 लाख महिलाओं को 500 रुपये में गैस सिलेंडर, युवाओं को दो लाख पक्की सरकारी नौकरियां, पांच लाख गरीबों को मुफ्त घर, एक करोड़ लोगों को मुफ्त इलाज, ओबीसी वर्ग के उद्यमियों को 25 लाख रुपये तक के ऋण की गारंटी, 24 फसलों की एमएसपी पर खरीद की गारंटी जैसी घोषणाएं लागू करना कड़ी चुनौती है।
2019 के विधानसभा चुनाव में मिली 31 सीटों के मुकाबले अबकी छह सीटों की बढ़त के बावजूद कांग्रेस पार्टी प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका में ही रहेगी। विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस के लिए भी चुनौतियां कम नहीं हैं। मुख्यमंत्री प्रत्याशी के तौर पर 77 की उम्र में आखिरी और तीसरी पारी के लिए कांग्रेस हाईकमान से 72 सीटों का जुगाड़ अपने समर्थकों के लिए करने वाले हुड्डा पर हाईकमान फिर से विधानसभा में विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए भरोसा जताएगा या नहीं, यह अभी साफ नहीं हैं। हालांकि मौजूदा हालात में हरियाणा कांग्रेस में हुड्डा के बराबर कोई दूसरा कद्दावर नेता भी नहीं उभर पाया है। ऐसे में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगली चुनावी लड़ाई भले ही पांच साल दूर है पर तब तक 82 के हो चुके उम्रदराज हुड्डा कितने सक्रिय रहते हैं यह इस पर निर्भर करेगा। बगैर संगठन के जनता के बीच पैठ बढ़ाना भी कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है।