मणिपुरवासियों के लिए जब-तब रास्ता बंद होने से जरूरी चीजों की किल्लत और पहाड़ बनाम मैदान की लड़ाई एक समय बड़ा मुद्दा हुआ करते थे। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में 2017 में बनी गठबंधन सरकार ने इन दोनों मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया। पांच वर्षों में एक भी बड़ा ‘रास्ता रोको’ आंदोलन नहीं हुआ और पहाड़-मैदान के बीच खाई भी कम हुई। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने अनेक सरकारी बैठकें पर्वतीय इलाकों में कीं। भाजपा को इसका फायदा मिला और वह हाल के चुनाव में अकेले बहुमत हासिल करने में कामयाब हुई।
बीरेन सिंह हेंगांग सीट से 18 हजार से अधिक वोटों से जीतने के बाद बोले, “बीते कुछ वर्षों में कुछ कमियां रही होंगी, लेकिन हम आपको आश्वस्त करते हैं कि इस बार उन कमियों को दूर करने के लिए दोगुनी कोशिश करेंगे। हम ग्रामीण और पर्वतीय इलाकों में विकास तेज करेंगे। सशस्त्र सुरक्षा बल कानून (अफस्पा) हटाने के लिए भी केंद्र पर दबाव डालेंगे।”
राज्य की 60 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा 32 सीटें जीतने में कामयाब रही, हालांकि वह सभी सीटों पर लड़ी थी। पिछली सरकार में शामिल नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) ने 38 और नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) ने 10 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। एनपीपी सात सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी है। एनपीएफ को पांच सीटें मिली हैं। जनता दल यूनाइटेड ने दो दशक बाद वापसी की है। इसने 2000 के चुनाव में 18 उम्मीदवार उतारे थे और एक को जीत मिली थी। इस बार उसके 38 उम्मीदवारों में से छह जीत गए। जद(यू) और एनपीएफ ने भाजपा सरकार को समर्थन देने का ऐलान किया है। 2017 में भाजपा ने 21 सीटें जीतने के बाद एनपीपी और एनपीएफ के चार-चार और एक तृणमूल तथा एक निर्दलीय विधायक की मदद से सरकार बनाई थी।
पांच साल पहले 27 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनने वाली और बहुमत से सिर्फ चार सीटें दूर रहने वाली कांग्रेस पांच सीटों पर सिमट गई है। 2017 से पहले ओकरम इबोबी सिंह के नेतृत्व में लगातार 15 वर्षों तक पार्टी की सरकार थी। उस दौरान रास्ता रोको आंदोलन खूब चला और पहाड़ तथा मैदान की खाई भी चौड़ी हुई। लगता है लोग अभी तक इन बातों को भूले नहीं हैं। चार वामदलों और जनता दल सेकुलर के साथ इसने चुनाव पूर्व गठबंधन भी किया था, लेकिन उसका कोई असर नहीं दिखा। यहां तक कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष एन. लोकेन सिंह भी नामबोल से चुनाव हार गए।
सात सीटों वाली एनपीपी अब प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई है। पांच साल तक भाजपा के साथ सरकार में रहने के बाद विधानसभा चुनाव से पहले दोनों के बीच रिश्तों में खटास आ गई। पार्टी अफस्पा और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ है। माना जाता है कि भाजपा को सबसे ज्यादा परेशानी उपमुख्यमंत्री और प्रदेश में एनपीपी का चेहरा माने जाने वाले एन. जयकुमार से थी। लेकिन वे इस बार उरीपोक में भाजपा प्रत्याशी से हार गए। पार्टी प्रमुख और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने ट्वीट किया, “2017 की तुलना में मणिपुर में एनपीपी का प्रदर्शन कई गुना बेहतर रहा है। हमें खुशी है कि हमारा वोट प्रतिशत बढ़ा है। इससे यह भी पता चलता है कि मतदाताओं ने एनपीपी की विचारधारा में भरोसा दिखाया है।”
इन चुनावों में सबसे सबसे अधिक चौंकाने वाला प्रदर्शन नीतीश कुमार के जद(यू) का रहा। इसे भाजपा की बी टीम कहा जा रहा था और भाजपा से टिकट न मिलने पर अनेक नेताओं ने जद(यू) के टिकट पर चुनाव लड़ा था। इसके छह विधायकों में से चार दलबदलू हैं। पार्टी 2023 में मेघालय और नगालैंड विधानसभा चुनाव में भी हिस्सा लेगी। अरुणाचल प्रदेश में पहले ही उसके विधायक हैं। पार्टी के इस प्रदर्शन का मुख्य कारण नेताओं की व्यक्तिगत छवि को माना जा रहा है। वैसे भी छोटे राज्यों में विचारधारा से अधिक व्यक्तिगत संपर्क चुनाव जीतने में भूमिका निभाते हैं।
प्रदेश के लोग पारंपरिक रूप से उस पार्टी का समर्थन करते आए हैं जिसकी केंद्र में सरकार रही है या उसकी सहयोगी है। संभवतः इसीलिए तृणमूल को यहां कोई कामयाबी नहीं मिली, जबकि जद(यू) और आरपीआइ अठावले जैसे भाजपा के समर्थकों ने अपना आधार बढ़ाया है।
एक और चौंकाने वाला नतीजा कुकी पीपुल्स एलायंस (केपीए) का रहा। चुनाव से पहले बनी यह पार्टी दो सीटों पर चुनाव लड़ी और दोनों जीतने में कामयाब हुई। चुराचंदपुर जिले की सिंघट और कांगपोकपी जिले की साइकुल सीट से इसके प्रत्याशी जीते। केपीए का जीतना इसलिए भी चौंकाने वाला है क्योंकि प्रतिबंधित कुकी संगठन कुकी नेशनल ऑर्गेनाइजेशन और यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट ने लोगों से भाजपा के पक्ष में वोट डालने के लिए कहा था। इसे प्रदेश की राजनीति में आने वाले दिनों के लिहाज से बड़ा महत्वपूर्ण माना जा रहा है। मणिपुर का घाटी का इलाका मैतेयी बहुल है लेकिन पहाड़ों में नगा और कुकी जनजाति के लोग ज्यादा हैं। कुकी के साथ जोमी और पाईते जनजातियां भी हैं। ये चुराचंदपुर और कांगपोकपी जिलों में अधिक हैं। केपीए अफस्पा हटाने, स्वायत्त जिला परिषद विधेयक 2021 को आगे बढ़ाने और अनुच्छेद 371सी को मजबूत बनाने की मांग कर रही है। उसका कहना है कि इससे पर्वतीय इलाकों के लोगों के अधिकारों की रक्षा हो सकेगी।
उत्तर-पूर्व में नए समीकरण
मणिपुर में भाजपा को बहुमत मिलने के बाद उत्तर-पूर्व के राज्यों में नए राजनीतिक समीकरण उभर सकते हैं। यहां मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में अगले साल चुनाव होने वाले हैं। मेघालय में एनपीपी की सरकार है जो मणिपुर में पांच साल तक भाजपा के साथ गठबंधन में रहने के बाद अब विपक्ष की भूमिका निभाएगी। एनपीएफ ने भाजपा का समर्थन करने का ऐलान किया है, लेकिन उसने भी 10 सीटों पर भाजपा को टक्कर दी थी।
मेघालय में एनपीपी प्रमुख कोनराड संगमा के नेतृत्व वाली मेघालय डेमोक्रेटिक एलायंस सरकार में भाजपा के दो विधायक सहयोगी हैं। नगालैंड की यूनाइटेड डेमोक्रेटिक एलायंस सरकार में एनपीएफ के 25 विधायकों के साथ भाजपा के भी 12 विधायक हैं। मणिपुर के मुकाबले के बाद अब देखना होगा कि इन राज्यों में दलों का रुख क्या रहता है।
कांग्रेस को अलग रखते हुए भाजपा ने जो उत्तर पूर्व डेमोक्रेटिक एलायंस (नेडा) का गठन किया है उसमें एनपीपी, एनपीएफ, नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, मिजो नेशनल फ्रंट, त्रिपुरा इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट जैसी कई छोटी-छोटी पार्टियां हैं। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा नेडा के संयोजक हैं।
मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं है। पिछले साल नवंबर में मेघालय के 12 कांग्रेस विधायक पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस में चले गए थे। तब पार्टी के विधायकों की संख्या घटकर पांच रह गई थी। बाद में इन पांचों ने भी भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का समर्थन देने का ऐलान कर दिया था। उसके बाद पार्टी ने उन पांचों को निलंबित कर दिया। नगालैंड देश का शायद एकमात्र राज्य है जहां विपक्ष है ही नहीं। यहां एनपीएफ (25), एनडीपीपी (21), भाजपा (12) और निर्दलीय (दो) सब सत्तारूढ़ यूडीए गठबंधन में शामिल हैं। देखना है कि अगले चुनावों में कांग्रेस इन राज्यों में अपनी मौजूदगी दर्ज करा पाने में सफल होती है या नहीं।