प्रख्यात साहित्यकार और चिंतक निर्मल वर्मा ने शब्द और स्मृति में लिखा है-ध्यान से देखो, जो बोला जाता है दरअसल वह किया नहीं जाता। अन्य दलों की तरह यह बात भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर भी लागू होती है। परिवारवाद और जातिवाद पर कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को घेरने वाली भाजपा आए दिन इसी पर अमल करती नजर आती है। ताजा उदाहरण बिहार का है। यहां नए प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए हैं संजय जायसवाल। पश्चिम चंपारण (बेतिया) से लगातार तीसरी बार लोकसभा पहुंचे हैं। पिता मदन प्रसाद जायसवाल भी यहीं से तीन बार सांसद रह चुके हैं। प्रदेश में तीन या इससे अधिक बार सांसद बनने वाले नेता भाजपा में जायसवाल इकलौते नहीं हैं। पेशे से वह डॉक्टर हैं और सफल हैं। मतलब पूरे खानदानी हैं। दूसरे, वैश्य बिरादरी से आते हैं। बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की तरह। सवाल है कि फिर वैश्य बिरादरी से ही क्यों बनाए गए बिहार भाजपा के अध्यक्ष? तो इसका सीधा जवाब है कि पार्टी को राज्य में एक म्यान में दो तलवारें नहीं रखनी हैं।
प्रदेश स्तरीय जनाधार न होने के बावजूद डॉ. संजय जायसवाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया ही गया है एक तीर से दो निशाने साधने के लिए। एक तो प्रदेश भाजपा में एकछत्र राज करते चले आने वाले सुशील मोदी से इकलौते वैश्य नेता होने का तमगा छीनने का प्रयास है। दूसरे, वर्षों से मोदी की एकतरफा कार्यप्रणाली से पैदा हो गई जड़ता को तोड़ने की कोशिश भी की गई है। पिछला विधानसभा चुनाव गवाह है कि सुशील मोदी और दूसरे वरिष्ठ नेता नंदकिशोर यादव की नीतीश समर्थक छवि इतनी पुख्ता हो गई है कि उनके विरोध में अब पैनापन आ ही नहीं सकता। वैसे वरिष्ठ नेताओं में गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे भी आते हैं, लेकिन उनका बड़बोलापन उनके ही खिलाफ जाता है। बेतिया के पड़ोसी मोतिहारी के सांसद राधामोहन सिंह अधिक उम्र के कारण वैसे ही केंद्र सरकार में मंत्री पद गंवा चुके हैं। ऐसे में 2020 के चुनाव को ध्यान में रखकर अभियान में पैनापन लाने के लिए नए पैंतरे आजमाए जा रहे हैं।
यही कारण है कि धरातल पर यह संदेश देने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही कि भाजपा अकेले चुनाव लड़ सकती है। और जीतने पर मुख्यमंत्री सुशील मोदी के बजाय पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और वर्तमान केंद्रीय गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय होंगे। भाजपा का मानना है कि इससे एक तो राजद का कट्टर समर्थक यादव मतदाता साथ आ सकता है, दूसरे इसके जरिए बाकी पिछड़ी जातियों को गोलबंद भी किया जा सकता है। पार्टी का यह विश्वास गत लोकसभा चुनाव में यादवों का काफी वोट मिलने से बढ़ा है। इतना ही नहीं, फागू चौहान को राज्यपाल बना कर यह संदेश देने का प्रयास भी किया जा रहा है कि नीतीश का वोट बैंक माने जाने वाले अति पिछड़े समुदाय को भाजपा तवज्जो दे रही है। यह सब जानते हैं कि अति पिछड़ों का समर्थन अभी तक नीतीश के साथ रहा है, लेकिन भाजपा अब इसमें भी सेंध लगाने की पूरी तैयारी कर रही है। यही कारण है कि संगठन चुनाव के दौरान हर जिले में वहां के जातिगत समीकरणों के हिसाब से पदाधिकारी बनाए जा रहे हैं।
दरअसल, बिहार में भाजपा ऐसे चौराहे पर आकर रुक गई है, जहां से कोई राह उसे मंजिल तक ले जाती नजर नहीं आ रही। पिछले विधानसभा चुनाव में अपने बूते पूरी ताकत लगाने के बावजूद उसे सफलता नहीं मिली थी। इसलिए बाद में उसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जनता दल-यू का पिछलग्गू ही बनना पड़ा। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को तब लगा जख्म अभी तक भर नहीं पाया है। ऐसे में भाजपा बिहार में हर हाल में अपना मुख्यमंत्री चाहती है। लेकिन उसे बहुमत के लिए 122 विधायक तो दूर, कम से कम सौ विधायक तो चाहिए ही होंगे। जोड़-तोड़ करने लायक भी संख्या पाना तब तक नामुमकिन है, जब तक विधानसभा की सभी 243 सीटों पर चुनाव न लड़ा जाए। इसलिए यह तय मानिए कि इस बार फिर भाजपा अपने सहयोगी दल जदयू से अलग होकर ही नए तेवरों और प्रयोगों के साथ चुनाव लड़ेगी। अरुण जेटली के निधन के बाद भाजपा में नीतीश कुमार के लिए कोई बड़ा शुभचिंतक भी नहीं रह गया है। ऐसे में अब जो अलगाव होगा वह स्थायी भी हो सकता है। क्योंकि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को फिर चुनाव जीतने देकर प्रधानमंत्री मटेरियल वाले नेता के रूप में उनकी छवि को और पुख्ता नहीं होने देगी।