लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद मध्य प्रदेश में इन दिनों एक ही चर्चा है कि कमलनाथ की सरकार रहेगी या जाएगी? सरकार में रहते हुए 2014 का प्रदर्शन भी दोहरा न पाने से कांग्रेस में घमासान तय माना जा रहा है। कांग्रेस राज्य की 29 में एक सीट ही जीत पाई। कांग्रेस के कई वरिष्ठ विधायक मंत्री नहीं बनाए जाने से पहले से ही नाराज चल रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव में पार्टी के सभी दिग्गज हार गए। पराजय का कारण मोदी लहर के साथ राज्य में किसानों की नाराजगी को भी माना जा रहा है, जिसे भाजपा ने मुद्दा बनाया। आम चुनाव के दौरान किसानों का ऋण माफी की प्रक्रिया थम जाना भी कांग्रेस के लिए नुकसानदायक रहा। छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ 38 हजार वोटों के अंतर से जीते हैं। यह वह सीट है, जहां 1977 की जनता लहर में भी कांग्रेस जीती थी। कमलनाथ भी छिंदवाड़ा विधानसभा सीट से 21 हजार वोटों से जीत सके। गुना से सिंधिया परिवार का कोई भी सदस्य अब तक चुनाव नहीं हारा था, वहां से ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार भी कमलनाथ के लिए गले की फांस जैसी है। ज्योतिरादित्य ने गुना से ज्यादा समय उत्तर प्रदेश में दिया। शायद उन्हें उसका नुकसान उठाना पड़ा।
डेढ़ दशक बाद चुनावी राजनीति में उतरे दिग्विजय सिंह को राजगढ़ की जगह भोपाल जैसी कठिन सीट पर कमलनाथ की सलाह पर ही लड़ाया गया और वे हार गए। मध्य प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को बड़ा-छोटा भाई कहा जाता है। अपनी हार को वे किस रूप में लेते हैं, यह बड़ा मायने रखेगा। भाजपा ने उनके मुकाबले प्रज्ञा सिंह ठाकुर को उतार कर खेल बदल दिया। इसका असर प्रदेश की बाकी सीटों पर भी पड़ा।
पांच महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41 प्रतिशत वोट मिले थे और 17 लोकसभा क्षेत्रों में उसने बढ़त हासिल की थी, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 58 प्रतिशत वोट मिले हैं। भाजपा का वोट शेयर 17 प्रतिशत बढ़ गया, वहीं कांग्रेस का वोट शेयर लगभग छह प्रतिशत कम हो गया है। उसे विधानसभा चुनाव में 40.9 प्रतिशत वोट मिले थे, जो लोकसभा चुनाव में घटकर 34.56 प्रतिशत रह गए हैं। मंत्रिमंडल में जगह न मिलने से कांग्रेस विधायक केपी सिंह, बिसाहूलाल सिंह, एंदल सिंह कंसाना और राज्यवर्द्धन सिंह दत्तीगांव नाराज चल रहे हैं। बसपा की विधायक रमा बाई कमलनाथ सरकार को आंख दिखाती रहती हैं। निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह ठाकुर और केदार सिंह डाबर, बसपा विधायक संजीव सिंह कुशवाह और सपा से राजेश शुक्ला भी मंत्री बनने की कतार में हैं। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ पार्टी में उठ रहे बगावती तेवरों को शांत करने के लिए कैबिनेट का विस्तार कर सकते हैं। कुछ विधायकों और निर्दलियों को खाली पड़े निगम मंडलों में एडजेस्ट किया जा सकता है।
कमलनाथ को किसानों की ऋणमाफी का वादा पूरी तरह निभाने के साथ, बिजली की समस्या को दुरुस्त करना होगा। प्रशासनिक कसावट के साथ तबादला उद्योग चलाने की छवि को भी बदलना होगा। आने वाले दिनों में कमलनाथ बदलाव नहीं ला सके, तो भाजपा उन पर हावी हो सकती है। नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने एग्जिट पोल देखकर ही विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए राज्यपाल को चिठ्ठी लिख दी। भाजपा नेता उतावले हैं। भाजपा कमलनाथ सरकार गिराती है, तो अपना मुख्यमंत्री किसे बनाएगी, यह बड़ा सवाल है? शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे, लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी शायद ही उन पर भरोसा करे।
मध्य प्रदेश में अमित शाह के भरोसेमंद कैलाश विजयवर्गीय कहे जाते हैं, लेकिन विजयवर्गीय मिशन पश्चिम बंगाल में लगे हैं। भाजपा ने पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की है, लेकिन वह वहां की विधानसभा में भारी जीत की रणनीति पर काम कर रही है, ऐसे में विजयवर्गीय को मध्य प्रदेश लाया जाता है, तो मिशन पर प्रभाव पड़ेगा। पर एक बात तो साफ है कि आने वाले दिनों में मध्य प्रदेश की राजनीति गर्माहट भरी होगी। कांग्रेस की तरफ से गर्मी बढ़ेगी या भाजपा की तरफ से यह तो समय बताएगा।