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जनादेश ’23 राजस्थानः हाथ छूटा तो रेत में खिला कमल

अशोक गहलोत की कल्याणकारी योजनाएं वोटों में तब्दील नहीं हो सकीं तो दोनों ही दलों के बड़े चेहरे चुनाव हार गए, अब सवाल मुख्यमंत्री के चेहरे पर आ कर टिक गया है
नतीजों के बाद वसुंधरा राजे सिंधिया

इस चुनाव में ओल्ड पेंशन स्कीम, 50 लाख रुपये तक का हेल्थ इंश्योरेंस,  महिलाओं को मुफ्त फोन देने की स्कीम, विद्यार्थियों को फ्री लैपटॉप जैसी कितनी ही योजनाओं का शोरशराबा चुनाव नतीजों की शुरुआत में ही दिल-फरेब साबित हुआ और मतदाताओं ने कांग्रेस को हरा दिया। कांग्रेस ने सिर्फ सरकार नहीं खोई, अपनी सियासत के दोनों जहान भी खो दिए हैं। वह पहली बार इस तरह भाजपा के हिंदुत्व और सनातन के रंग में रंगी नजर आई और 200 सीटों वाली विधानसभा के लिए 199 उम्मीदवारों में से महज 69 को ही जिता पाई। पार्टी ने बात तो की मुहब्बत की दुकान की, लेकिन इस दुकान में भाजपा के हिंदुत्व और सनातन के सरोकारों वाला हर सामान लेकर वह बैठी थी। भाजपा ने 57 शहरी सीटों में से 38 सीटें जीती हैं जबकि ग्रामीण इलाकों की 143 सीटों में से 77 सीटें जीती हैं। यह बताता है कि भाजपा का आधार अब शहरी से ग्रामीण इलाकों की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रभावी शो किए, शानदार सभाएं कीं और खूब गरजे-तरजे। अमित शाह और केंद्रीय नेताओं ने भी कमी नहीं रखी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे ने जमकर सभाएं कीं। पायलट ने सियासी जहाज उड़ाए और आखिर सत्ता के शीर्ष पद पर एक बार फिर लैंड करने से वंचित हो गए। भाजपा के एक अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि प्रदेश की शीर्ष नेता और खास प्रभामंडल वाली वसुंधरा राजे की हालत मोदी-शाह युग में ऐसी है जो बहादुर शाह जफर की इस गजल की याद दिला देः बात करनी मुझे मुिश्कल कभी ऐसी तो न थी, जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी।

चुनावी सीटें

राजस्थान की राजनीति की बात आती है तो सबसे पहले जाति से ही कहानी शुरू की जाती है। कौन जाति किस उम्मीदवार या किस दल के पक्ष या विपक्ष में डटी है और इस बार जाति का ऊंट किस करवट बैठेगा? मानो विचार या विचारधारा की कोई जगह ही नहीं है। इस लिहाज से देखें तो कांग्रेस ने इस चुनाव में और खासकर भाजपा की विचारधारा की नकल करने के चक्कर में दोनों जहान हार कर शबे-गम की राह पकड़ ली है। 200 सीटों वाली विधानसभा के लिए इस बार 199 सीटों पर चुनाव हुआ है। गंगानगर जिले की करणपुर सीट के कांग्रेस उम्मीदवार का निधन हो जाने से वहां चुनाव प्रक्रिया थम गई थी। इन सीटों से वह दल सरकार बनाने के काबिल था जो 100 सीटें जीत लेता, लेकिन भाजपा ने इस बार 115 सीटें जीती हैं, जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर सिमट कर रह गई है।

अगर हालात और हकीकत को जानना हो तो मतगणना के दिन के सुबह-सुबह के नजारे को याद करना भर पर्याप्त होगा। टोंक रोड के निकट एसएमएस हॉस्पिटल के पास कांग्रेस का वॉर रूम बना हुआ है, लेकिन उसमें एकदम सन्नाटा पसरा है। इस वॉर रूम कहलाने वाले परिसर के बाहर एक प्रहरी खड़ा है और कहता है कि भीतर कोई नहीं जा सकता; ये आदेश प्रदेशाध्यक्ष गोविंदसिंह डोटासरा के हैं। सत्ता से जुड़ा पहला रुझान अभी आया भी नहीं है कि कांग्रेस के वॉर रूम नाम के इस मयकदे की वीरानी उदासियों की फेहरिस्त तैयार कर रही है। कांग्रेस के नेताओं में कोई उत्साह नहीं था कि वे सुबह-सुबह वॉर रूम में जाकर डटें, लेकिन पास ही दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित भाजपा कार्यालय में ही नहीं, आसपास भी भारी चहल-पहल थी और ऐसा लग रहा था कि बहार के दिन इधर चले आए हैं और कांग्रेस से रूठ गए हैं।

जयपुर में पार्टी मुख्यालय के सामने भाजपा कार्यकर्ता

जयपुर में पार्टी मुख्यालय के सामने भाजपा कार्यकर्ता

कांग्रेस समर्थक एक बुद्धिजीवी कहते हैं, देखो वोटर बड़े दिलफरेब निकले। इतनी सारी स्कीमें दी थीं। भाजपा को जिता दिया और कल्याणकारी योजनाएं लाने वाली सरकार को हरा दिया। वहीं मौजूद एक सज्जन चुटकी लेते हैं, “सरजी, सारी तदबीरें उलटी हो गई हैं और दवा ने काम करना बंद कर दिया है। अब दवा ही दर्द बन गई है। आप तो शुक्र मानिए कि तेलंगाना ने नाक बचा ली, नहीं तो वह भी हाथ आ जानी थी।”

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कांग्रेस का न आना साफ बता रहा है कि कुछ तो हुआ है, जो कॉमन है। कुछ लोग बोल रहे हैं, यह तोहमत आम लोगों पर ठीक नहीं है कि अच्छी योजनाओं ने काम नहीं किया। असल में सच यह है कि राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पार्टी के बड़े नेता सचिन पायलट के बीच कशमकश दूर करने की कोशिश ही नहीं की गई। नतीजा यह निकला कि गुर्जर वोट हाथ से खिसक गया, जिन पर राज्य की 40 से ज्यादा सीटें जिताने या हराने का दारोमदार है। और क्या यह मौत का पैगाम नहीं था जब राजस्थान लोक सेवा आयोग से पेपर लीक हो रहे थे? प्रदेश में 20 लाख से अधिक युवाओं के साथ हो रहा खिलवाड़ सिर्फ किस्मत के तो भरोसे नहीं रह सकता था। कांग्रेस नेता सचिन पायलट लगातार आरपीएससी के पुनर्गठन की मांग कर रहे थे। यह आरोप मुखर होकर लगे कि राज्य में सत्तारूढ़ दल के मुखिया ने आयोग में काबिल और निर्विवादित लोगों की  नियुक्तियों के बजाय अपने गिरोह के लोगों को उपकृत करने के लिए वहां भेज दिया है।  कुछ खास नजदीकी लोगों की यह भी शिकायत है कि सरकार हर समय साथ रहते हैं, लेकिन न मिलते हैं कभी और न सुनते हैं कभी।

इसी बात की एक मिसाल है चुनाव परिणाम के दिन वह चर्चित ट्वीट जो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ओएसडी और सोशल मीडिया संभालने वाली टीम के प्रभारी लोकेश शर्मा ने अपने हैंडिल से किया।

लोकेश शर्मा ने लिखा, “अशोक गहलोत कभी कोई बदलाव नहीं चाहते थे। यह कांग्रेस की नहीं बल्कि अशोक गहलोत जी की शिकस्त है।’’

हार की वजहों को तलाशते हुए ओएसडी ने लिखा, “गहलोत के चेहरे पर, उनको फ्री हैंड देकर, उनके नेतृत्व में पार्टी ने चुनाव लड़ा और उनके मुताबिक प्रत्येक सीट पर वे स्वयं चुनाव लड़ रहे थे। न उनका अनुभव चला, न जादू और हर बार की तरह कांग्रेस को उनकी योजनाओं के सहारे जीत नहीं मिली और न ही अथाह पिंक प्रचार काम आया।’’

शर्मा ने कांग्रेस में अशोक गहलोत विरोधियों के पुराने जख्मों को हरा करते हुए लिखा, “तीसरी बार लगातार सीएम रहते हुए गहलोत ने पार्टी को फिर हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। आज तक पार्टी से सिर्फ लिया ही लिया है; लेकिन कभी अपने रहते पार्टी की सत्ता में वापसी नहीं करवा पाए गहलोत...।’’

इस चुनाव में कांग्रेस के बहुत बड़े चेहरे चुनाव हारे हैं और गहलोत कैबिनेट के पराजित होने वाले मंत्रियों की तादाद 17 है

इस चुनाव में कांग्रेस के बहुत बड़े चेहरे चुनाव हारे हैं और गहलोत कैबिनेट के पराजित होने वाले मंत्रियों की तादाद 17 है

यह आराेप भी खुले आम लगाए जा रहे हैं कि “आलाकमान के साथ फरेब, ऊपर सही फीडबैक न पहुंचने देना, किसी को विकल्प तक न बनने देना, अपरिपक्व और अपने फायदे के लिए जुड़े लोगों से घिरे रहकर आत्ममुग्धता में लगातार गलत निर्णय और आपाधापी में फैसले लिए जाते रहना, तमाम फीडबैक और सर्वे को दरकिनार कर अपनी मनमर्जी और अपने पसंदीदा प्रत्याशियों को उनकी स्पष्ट हार को देखते हुए भी टिकट दिलवाने की जिद...’, इन सबने सरकार को डुबा दिया।

आने वाले दिनों में कांग्रेस के भीतर गहलोत के विरोध में क्या कुछ हो सकता है, इसकी पूरी सामग्री मुहैया करवाते हुए लोकेश शर्मा ने लिखा, “25 सितंबर की घटना भी पूरी तरह से प्रायोजित थी; जब आलाकमान के खिलाफ विद्रोह कर अवमानना की गई और उसी दिन से शुरू हो गया था खेल....।’’ यानी ये पंक्तियां सामान्य भले लगती हों, लेकिन कांग्रेस के भीतर उबाल ला देने वाली हैं क्योंकि यह घर के उस भेदी के मुंह से निकली बात है जो लंका ढहाने के लिए कुख्यात है।

इस बार राज्य में अपराध बढ़े और बदनाम विधायक रिपीट हुए। चुनाव के नतीजों पर इसका भी असर रहा और मुख्यमंत्री से अपेक्षाएं रखने वालों की अपेक्षाएं भी सीमा से परे रही हैं। अशोक गहलोत के इतने नजदीकी व्यक्ति का ऐसा ट्वीट हैरान करता है, इस प्रश्न पर एक पुराने अधिकारी चुटकी लेते हैं- सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है, बा-वजू होके भी छूते हुए डर लगता है।

ये अधिकारी बताते हैं कि भले विधायक हों या कार्यकर्ता, पार्टी के दूरदराज नेता हों या आम पीड़ित, मुख्यमंत्री ने लोगों को बहुत ही दिया है और खूब ही बांटा है, लेकिन वे भला क्या ही करें, लोगों की भूख भी खत्म होने को नहीं आती। वे कुछ किस्से सुनाते हैं और कहते हैं कि कुछ लोगों को मानो पूरा शहर ही दे दिया, लेकिन आए दिन ऐसे तंज कसते हैं, मानो जिंदगी तूने मुझे कब्र से कम दी है जमीं। पांव फैलाऊं तो दीवार से सर लगता है। अब आप इन लालची लोगों का कर भी क्या लें।

अलबत्ता, कांग्रेस के घर की अंदरूनी हालात बहुत खराब होने और सरकार के विधायकों के दबाव में होने से भाजपा की जीत की राह बहुत आसान रही। उसने 115 सीटें जीतीं, जो उसके पिछले प्रदर्शन से 42 सीटें ज्यादा हैं।

इस चुनाव में कांग्रेस के बहुत बड़े चेहरे चुनाव हारे हैं और पराजित होने वाले मंत्रियों की तादाद 17 है, लेकिन इस बार सबसे अधिक चोट नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र सिंह राठौड़ और उपनेता प्रतिपक्ष तथा पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भाजपा सतीश पूनिया के साथ हुई है। ये दोनों चुनाव हार गए हैं। राठौड़ चुनावी राजनीति के अनूठे शिल्पकार हैं, लेकिन उनका हार जाना मानो उन्हें मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर कर देने वाला पहलू है।

सतीश पूनिया एक अलग शख्सियत हैं और वे भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ के छुपे रुस्तम थे। कुछ लोगों का मानना है कि इस बार भाजपा के मुख्यमंत्री पद के कई दावेदारों को सलीके से निबटाया गया है। इनमें पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी जैसे लोग भी हैं, जिन्हें टिकट से ही वंचित कर दिया गया। पूनिया और राठौड़ जैसे नेताओं के साथ तो ऐसा हुआ मानो तुझे दुश्मनों की खबर न थी और मुझे दोस्तों का पता नहीं। तेरी दास्तां कोई और थी मेरा वाकया कोई और है।

भाजपा में अब सबसे बड़ा सवाल मुख्यमंत्री पद के चेहरे को लेकर है और कांग्रेस का प्रश्न उसके भविष्य की कमान से जुड़ा है। कांग्रेस में अब तक संघर्ष और दुर्दिनों में रास्ते बदल लेने वाले ऐसे लोग रहे हैं जिन्हें सत्ता पास होने की खबर सबसे पहले होती है और वे बाजी मार ले जाते हैं। राजस्थान की चुनावी रवायत की तरह यह रवायत भी कांग्रेस के भीतर शायद ही टूटे। यह चुनावी विश्लेषण की जल्दबाजी होगी, अगर अभी सब कुछ कह दिया जाए क्योंकि आने वाले दिनों में विधायक दलों की बैठकों में काफी कुछ कहा और सुना जाना है। अभी कई नेताओं के प्रति नफरत के गुमां गुजरने हैं और कई नेताओं के प्रति रश्क और डाह के भाव भरने हैं। शायद किसी नए चेहरे को कमान मिले और लोग चेहरों की बोरियत से उबरें। फिलहाल तो प्रदेश की रेगिस्तानी राजनीति का ऊंट कुछ ऐसा ही बलबला रहा है।

कुछ जगहों पर भाजपा की चूकें

शिव सीट पर 2,52,882 वोटों में से पार्टी के स्वरूप सिंह खारा को 22820 वोट ही मिले

शाहपुरा में उपेन यादव को 2,09,587 में से 11233, बाड़मेर में दीपक कड़वासरा को 2.16 लाख में 5355 वोट मिले

चित्तौड़गढ़ में नरपतसिंह राजवी को 2.18 लाख में 19913, सांचौर में देवजी पटेल को 2.60 लाख में 30535 और बयाना में बच्चू सिंह बंशीवाल को 1.95 लाख में 14398 वोट मिले

कांग्रेस की बदहाल तस्वीर

खींवसर में तेजपाल मिर्धा को 2.10 लाख में 27763, चौरासी में ताराचंद भगोरा को 2.05 लाख में से 28120 वोट मिले

आसपुर में राकेश रोत को 2.10 लाख में 31630, बाड़ी में प्रशांत सिंह परमार को 2.01 लाख में 11601 वोट मिले

भादरा में अजीत सिंह बेनीवाल को 2.30 लाख में 3771 और खेतड़ी में मनीषा को 1.81 लाख में 27981 ही वोट मिले

कौन बनेगा सीएम?

एक सहज संभावित चेहरा वसुंधरा राजे का है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, दीया कुमारी, भूपेंद्र यादव, अश्विनी वैष्णव, ओम माथुर, सीपी जोशी जैसे चेहरे तो हैं ही, अर्जुन मेघवाल का नाम भी अहम है

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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