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जनादेश ’23/मध्य प्रदेश: कांग्रेस को ऐतबार तोड़ने का दंड

क्या भाजपा की भारी जीत के पीछे कांग्रेस का अति-आत्मविश्वास और कमजोर तैयारी रही?
खिले चेहरेः नरेंद्र सिंह तोमर, शिवराज सिंह चौहान, वीडी शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया

भाजपा की इतनी बड़ी जीत के पीछे क्या कोई अंडरकरंट था जो अधिकांश आंखों को धोखा दे गया? अगर था तो वह क्या था? ऐसे कई सवाल हैं, जो नतीजों के बाद हैरान कर रहे हैं। शायद कुछ अंदाजा 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से मिल सकता है। उस साल प्रदेश के मतदाताओं ने 15 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस पर एक बार फिर से ऐतबार जताया था और उसकी झोली में ठीकठाक  सीटें डालकर सत्ता सौंप दी थी, लेकिन 15 महीने बाद अंदरूनी वजहों और तथाकथित ऑपरेशन कमल से कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई और लोगों के ऐतबार को गहरा सदमा पंहुचा। सत्ता में शिवराज सिंह चौहान सरकार की एक बार फिर से वापसी हो गई। 

समय बीता और फिर विधानसभा चुनाव आ गया। इस बीच प्रदेश में ऐसा कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ जिसका असर भाजपा और कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुंचाता। मैदान साफ था, जिसके चलते दोनों पार्टियां तैयारी के साथ चुनावी अखाड़े में जा पहुंचीं। दोनों ही पार्टियां पहले दिन से आश्वस्त थीं कि जीत का सेहरा उनके माथे बंधना तय है। लिहाजा दोनों ने जीत की उम्मीद अपने-अपने उम्मीदवारों पर छोड़ दी।

चुनावी सीटें

भाजपा इस छोटी पर महत्‍वपूर्ण बात को समझने में कामयाब रही। शायद यही वजह थी कि चुनाव तारीखों की घोषणा के लगभग तीन महीने पहले ही भाजपा ने प्रदेश के सभी कद्दावर नेताओं की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी- केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते सहित सात सांसद और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को मैदान में उतारा गया। पार्टी  ने अपना फोकस स्पष्ट रखा कि उसे कैसे हारी हुई सीटों को हर हाल में जीतना है। वैसे भी भाजपा ने प्रदेश के कद्दावर नेताओं पर जिन आठ सीटों पर अपना दांव खेला उनमें से छह सीटें हारी हुई थीं।

कांग्रेस की मजबूत सीट इंदौर-1 के किले को भेदने की लिए भाजपा ने पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को भेजा। विजयवर्गीय के जरिये भाजपा प्रदेश की सबसे बड़ी विधानसभा सीट वाले अंचल और पार्टी के गढ़ मालवा में अपना दबदबा कायम रखना चाहती थी। इस चुनाव में हर सीट जीतना भाजपा के लिए कितना महत्वपूर्ण था यह उसकी रणनीति से समझा जा सकता है। इसी सूची में 27 पूर्व विधायक भी पार्टी के उम्मीदवार बने। उम्मीदवारों की सूची प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकर्ता महाकुंभ सम्मेलन के उद्बोधन के कुछ समय बाद निकाली गई ताकि पार्टी का हर कार्यकर्ता चुनाव तक सक्रिय हो जाए। यह वह समय था, जब न तो चुनाव की हलचल थी न इसे लेकर कहीं चर्चा हो रही थी। कांग्रेस भी भला कहां रूकने वाली थी। भाजपा के 39 उम्मीदवारों की पहली सूची के लगभग दो महीने के अंतराल पर पार्टी ने 144 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। इस सूची में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से लेकर पूर्व मंत्री और लगभग सभी विधायकों के नाम मौजूद थे। दोनों ही दलों ने अपने-अपने टिकट वितरण में अपने दिग्गज नेताओं की पसंद को ध्यान में रखा। इनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ, दिग्विजय सिंह शामिल थे।

कमलनाथ और दिग्विजय सिंह

कमलनाथ और दिग्विजय सिंह

भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपने भाषणों में मध्य प्रदेश को अंधेरे और बीमारू राज्य की श्रेणी से निकाले गए प्रयासों का खूब बखान किया। सभी ने अपने भाषणों में मतदाता को बताया कि उनका हर वोट यह निश्चित होगा कि अगले पांच वर्ष यहां किसकी सरकार होगी। कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने घोषणाओं, स्कीमों और सौदेबाजी कर प्रदेश में गिराई गई कांग्रेस की सरकार को लेकर जनता के बीच पहुंचने का काम किया। प्रदेश का मतदाता खामोशी से सारी उठापटक देखता-सुनता रहा। मतदान वाले दिन उसने पार्टी से ज्यादा अपना प्यार और भरोसा उस उम्मीदवार और पार्टी पर जताया जो उसके वोट का मान रखना जानता हो। इसका असर परिणामों में साफ नजर आता है। भाजपा ने पहले से ही जो 39 उम्मीदवार घोषित कर दिए थे उनमें से वह कांग्रेस से 27 सीटें लेने में सफल रही। भाजपा के तीन केंद्रीय मंत्रियों में एक मंत्री और चार सांसदों में एक ही सांसद को हार का सामना करना पड़ा।

शिवराज सरकार के 33 में से 31 मंत्री मैदान में उतरे। इनमें से 12 मंत्री हार गए जबकि 2018 के चुनाव में 27 मंत्री चुनाव में उतरे थे जिनमें से 13 हार गए थे, यानी 48 प्रतिशत को लोगों ने पसंद नहीं किया था। इसके अलावा भाजपा ने 99 विधायकों को मैदान में उतारा था जिनमें 72 जीते। यानी 73 प्रतिशत विधायकों पर जनता ने भरोसा जताया है। मंत्रियों के मामले में यह भरोसा 61 प्रतिशत रहा। माना जा सकता है लोगों ने अपना गुस्सा 28 प्रतिशत विधायकों पर निकाल दिया है।

बता दें कि वर्ष 2018 के चुनाव में भाजपा को 41 प्रतिशत वोट मिले थे और 109 सीटें मिली थीं जबकि इससे कम वोट हासिल कर कांग्रेस 114 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। इस चुनाव में भाजपा दो करोड़ 11 लाख 8 हजार 771 वोट बटोरने में कामयाब रही। कांग्रेस के खाते में 1 करोड़ 75 लाख 64353 वोट ही आ पाए और यही कांग्रेस की बुरी हार की वजह है। इस चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत 48.55 पर जा पहुंचा है, वही कांग्रेस का लुढ़क कर 40.40 प्रतिशत पर पहुंच गया है।

भाजपा की तुलना में कांग्रेस पार्टी में उम्मीदवारों के प्रति नाराजगी का असर ज्यादा देखने को मिला। कांग्रेस ने 85 विधायकों को टिकट दिया था जिनमें 60 को हार का सामना करना पड़ा। यही वजह रही कि इस नाराजगी की आंच नेता प्रतिपक्ष और तीन पूर्व मंत्रियों को भी ले डूबी।

भाजपा और कई विश्लेषक पार्टी की इस जीत का श्रेय शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना योजना को भी दे रहे हैं। उनका कहना है कि सही समय यानी चुनावी सीजन से पहले शिवराज लाड़ली बहना योजना को लागू कर चुनाव को अपने और भाजपा के पक्ष में करने में कामयाब रहे।

यह बात और है कि प्रदेश के 34 विधानसभा क्षेत्र जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक रही, भाजपा अपने पक्ष में सिर्फ दो सीटों का इजाफा इस चुनाव में कर पाई। बता दें, कि पिछले चुनाव में इन 34 विधानसभा सीटों में कांग्रेस के पाले में 9 सीट और भाजपा के खाते में 25 सीटें थी। इस बार कांग्रेस को दो सीटों का नुकसान हुआ है। अब भाजपा के पास 27 सीटें हैं।

जब वोट प्रतिशत बढ़ाना और घटाना, उम्मीदवार को जिताना और घर पर बैठाना सभी कुछ मतदाता के हाथ में है, तो सत्ता से बेदखल होने के बाद से लेकर वोट पड़ जाने तक कांग्रेस यह बात कैसे भुला बैठी क‌ि मतदाता का भरोसा अहम होता है। वह कैसे भूल गई कि पिछले चुनाव में जनता ने उस पर भरोसा जताया था। इस चुनाव में पार्टी की जिम्मेदारी बनती थी कि वह माफी भले न मांगती पर कम से कम जनता के मान को न रख पाने पर दो शब्द कह देती। पर जब ऐसा कुछ नहीं हुआ, तो जनता क्यों न आखिर ऐतबार तोड़ने वालों को घर बैठा दे।

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