हाल ही में निहायत भदेस नाटकीय अंदाज में एक सवालिया पुलिसिया ‘मुठभेड़’ में मारा गया उत्तर प्रदेश का अपराध सरगना विकास दुबे मुंबइया फिल्मों का दीवाना था। कहते हैं, उसने अर्जुन पंडित (1999) सौ से अधिक बार देखी थी, जिसमें सनी देओल खूंखार गैंगस्टर के किरदार में अपने कथित अन्याय का बदला लेने के लिए हथियार उठा लेता है। हैरतअंगेज वारदातों से भरी डॉन दुबे की जिंदगी भी किसी फिल्मकार के लिए भरपूर मसाला मुहैया करा सकती है। दरअसल कुछ तो नाम दर्ज कराने और पटकथा तैयार करने में जुट भी गए हैं। इसमें कोई हैरानी भी नहीं। आखिर बरसों से बॉलीवुड परदे पर अपराध जगत के सरगनाओं का महिमामंडन करता ही रहा है। सच तो यह भी है कि हर रंग-तेवर के सरगनाओं के किस्से फिल्मकारों और दर्शकों को दीवाना बनाते रहे हैं। कैसे बरसों से बॉलीवुड के परदे पर कुछ खांटी डॉन आकार लेते रहे हैं, उसकी एक फेहरिस्त:
सीटी बजाता डॉन
के.एन. सिंह बॉलीवुड परदे के शुरुआती डॉन थे, जैसे कोई निपट जाना-पहचाना दबंग, जिसे दर्शकों को खौफजदा करने के लिए बाहुबल नहीं दिखाना पड़ता, बल्कि थोड़ी बाहर-सी निकलीं आंखें तरेरते ही सिनेमा हॉल में खौफ उतर आता था। बागवां (1938) से लेकर कालिया (1981) तक के लंबे दौर में ‘बॉस’ का गजब अंदाज और खास अदा बाजी (1951) और हावड़ा ब्रिज (1956) जैसी यादगार फिल्मों में बुलंदी पर थी। न कोई छुटभैया हरकत, न कोई उल-जलूल पहनावा न भद्दा डायलॉग, वे इन चीजों से कुछ ज्यादा ही ऊपर थे। बस रात में एक हैट, गर्मी में ओवरकोट, भिंडी बाजार की संकरी गलियों में सिगार का कश उड़ाते अपनी खास शैली में सीटी बजाते वे काम तमाम कर देते थे।
सफेदपोश डॉन
अजीत मुगले-आजम (1960) जैसी फिल्म में बेहतरीन अदाकारी का गुर दिखा चुके थे लेकिन शायद यह बदा था कि उन्हें ऐसे स्टाइलिश खलनायक की तरह याद किया जाए, जो बंदूकची शेरा और राका जैसे गुर्गो के बदले मनीष मल्होत्रा जैसों को साथ रखना पसंद करता था। दिलफेंक शोख अदा वाली ‘मोना डार्लिंग’ के संग खुश वह झक सफेद कपड़ों में ऐसे नमूदार होता, मानो सीधे लॉन्ड्री से चला आ रहा हो। सबकी जुबान पर चढ़ गए ‘सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है’ जैसे डायलॉग की बेमिसाल अदायगी ने अजीत को डॉन के किरदार में हॉलीवुड के खलनायकों की बराबरी में ला खड़ा किया था। आखिर कौन दूसरा डॉन खदबदाते एसिड का इनडोर पुल रखता रहा है, ताकि कोई उसके ठिकाने पर हीरोगीरी दिखाए तो निपटाया जा सके! वह ऐसा बेमिसाल डॉन था, जिसको लेकर न जाने कितने चुटकले हर जुबां और इंटरनेट पर बरसों छाए रहे हैं, खासकर तब जब, मीम का चलन नहीं शुरू हुआ था।
गॉडफादर डॉन
द गॉडफादर (1972) की डुगडुगी बजने के पहले तक हिंदी सिनेमा के खलनायक पचासों रंग-रूप और तेवर से दर्शकों की नफरत और आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे। मार्लन ब्रांडो की अदाकारी में कृपालु डॉन हर जरूरतमंद को बंदूक और वरदान समान भाव से मुहैया कराता है। उससे ‘प्रेरणा’ पाकर मुंबइया मायानगरी में फिरोज खान ने धर्मात्मा (1975) बना डाली। इस देसी संस्करण में प्रेमनाथ शीर्षक भूमिका वाले डॉन बने मगर उन्हें किसी ‘नामधारी’ पात्र या कहिए तब के किसी हकीकी डॉन जैसे हाजी मस्तान और करीम लाला के खांचे में नहीं ढाला गया था। इसके बदले, प्रेमनाथ के पात्र के लिए तब बंबई का ‘मटका किंग’ रतन खत्री जैसा किरदार लिया गया, जिसकी हाल ही में मौत हुई। फिरोज खान खुद अल पचीनो वाली भूमिका में तालिबान के पहले के दौर में अफगानिस्तान में बामियान बुद्ध मूर्ति के इर्द-गिर्द की सुहानी फिजा में ‘एपोलोनिया’ हेमा मालिनी के चक्कर काटते रहे।
भगोड़ा डॉन
यूं तो बॉलीवुड के चोटी के कलाकार अशोक कुमार से लेकर देवानंद तक कई बार एंंटी-हीरो की भूमिका में उतरे, मगर अमिताभ बच्चन ने ही चंद्रा बारोट की फिल्म डॉन (1978) में उसे फैशनेबल बनाया। अलबत्ता वे एक बौड़म बनारसी के डबल रोल में भी थे, मगर स्टाइलिश डॉन के उनके किरदार ने ऐसी दिलचस्पी जगाई कि लगभग तीन दशक बाद सुपरस्टार शाहरुख खान डॉन: द चेज बिगिन्स (2006) में उतरने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। जरा सोचिए, इस भूमिका को कई शीर्ष कलाकारों ने नकार दिया था और फिल्म वितरक फिल्म के नाम को लेकर ही शक-शुबहे में थे, मगर दर्शक बिग बी के मुंह से निकले उस डायलॉग के मुरीद हो गए कि ‘‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।’’
परदे पर असली डॉन
1970 के दशक में बेहिसाब तस्करी पर बनी यश चोपड़ा की अमिताभ बच्चन की अदाकारी वाली दीवार (1975) के बारे में कहा जाता है कि वह हाजी मस्तान पर आधारित थी, मगर असली डॉन जैसे पात्रों पर तो फिल्में बनाने की शुरुआत काफी बाद में मणि रत्नम की नायकन (1987) से होती है, जिसमें कमल हासन 1980 के दशक के तुतीकोरिन के बाहुबली वरदराजन मुदलियार जैसे पात्र की भूमिका में थे। फिरोज खान ने उसकी रिमेक दयावान (1988) बनाई तो इस भूमिका में विनोद खन्ना थे। यह डॉन भी नरम दिल का था, जो अपने अपराध से हासिल धन घर और बाहर दान में लुटाया करता था। यह डॉन अजब-गजब ठिकानों से मूंछ ऐंठते बंदूक लहराते गुर्गों के बदले बड़े शहरों की झुग्गी-बस्तियों से अपना कारोबार आराम से चलाता है।
खास मकसद के डॉन
द गॉडफादर की देखा-देखी गैंगस्टर ड्रामा का शुरू हुआ खासा लोकप्रिय सिलसिला 1990 के दशक में परिंदा (1989) जैसी फिल्मों तक जारी रहा। मुकुल आनंद की फिल्म अग्निपथ (1990) में खास मकसद वाले डॉन की भूमिका अमिताभ बच्चन ने बखूबी निभाई। बिग बी ने विजय दीनानाथ चौहान की भूमिका में ब्रांडो वाली शैली और सुर बदल दिए और अपने पुराने दिनों के एंग्री यंगमैन के तेवर में अदाकारी से राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल कर लिया। हालांकि, उसी फिल्म में कांचा चीना की भूमिका में चालाक, लकदक लिबास में डैनी ऐसा लगा, मानो ‘लॉयन’ अजीत का ट्रू-कॉपी हो, फर्क बस यह था कि उसका ठिकाना मड आइलैंड से नीले समुद्र वाले मॉरीशस में पहुंच गया था। उसका ह्रितिक रोशन अभिनित नया संस्करण (2012) भले ही ज्यादा हिट रहा हो मगर पुरानी फिल्म की तो कोई सानी नहीं है।
भदेस डॉन
अनुराग कश्यप जैसे निर्देशकों के आगमन के साथ अपराध जगत के डॉन से परदा खिसककर देहात और कस्बों के डॉन की ओर चला गया। अर्धसत्य (1984) और परिंदा (1989) में मेट्रो शहरों में अपराध-सियासी गठजोड़ से नए डॉन उभरे, मगर शूल (1999) जैसी फिल्मों में ये छोटे कस्बों से झुंड के झुंड नमूदार होने लगे। गले में गमछा लपेटे ये डॉन अपने शहरी बिरादरों के नाज-नखरों से दूर हैं और खांटी रंग-रूप दिखाने के लिए भदेस बोली भी जुबान पर जमकर लाते हैं। कश्यप की दो खंडों में गैंग्स ऑफ वासेपुर में अविभाजित बिहार के कोयलांचल में खूनी गैंगवार से देहाती डॉन का ट्रेंड चल पड़ता है। इनकी पैठ डिजिटल दौर में भी बदस्तूर कायम है और अब एकदम ताजा वेब सीरिज के नए मैदान में उन्हें खुलकर निपट भदेस हिंदी में अश्लील विशेषणों के इस्तेमाल की खुली आजादी है, गूगल ट्रांसलेशन की भी दरकार नहीं।
अंडरवर्ल्ड डॉन
बॉलीवुड की अंडरवर्ल्ड से ऐसी करीबी है कि उसे परदे पर ज्यों का त्यों उतारना संभव है। मुंबई दंगों के बाद के दौर में परदे पर झुंड के झुंड अंडरवर्ल्ड डॉन किरदार उतर आए, मगर कुछ ही का सिक्का जमा। रामगोपाल वर्मा की सत्या (1998) ने ट्रेंड सेट कर दिया। उसमें भीखू महात्रे की भूमिका में मनोज वाजपेयी ने ‘‘मुंबई का किंग कौन’’ जैसे डायलॉग से अपनी धाक जमा ली। संजय दत्त की वास्तव (1999) और वर्मा की कंपनी (2002) भी खूब चली। कंपनी दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन के बीच खूनी जंग पर आधारित बताई गई। अगला दशक भी हर तरह के मुंबइया डॉन का ही दौर था, बस उनकी कमीनगीरी थोड़ी कम थी। उसके बाद यह डॉन कथा धीरे-धीरे बॉक्स ऑफिस पर फीकी पड़ती गई।
फेमिलीवाला डॉन
नई सहस्राब्दी में भी डॉन फैशन बदस्तूर बना रहा। फिल्मकारों को गैंगस्टर संस्कृति ऐसी भायी कि वे असली दुनिया के डॉन और उसके परिवारों तथा उससे जुड़े लोगों की बारीक छवि परदे पर उतारने को बेताब हो गए। विवेक ओबेरॉय शूटआउट एट लोखंडवाला (2007) में गैंगस्टर माया डोलास और रक्त-चरित्र (2010) में परीताला रवींद्रा की भूमिका में, जॉन अब्राहम शूटआउट एट वडाला (2013) में गैंगस्टर मान्या सुर्वे, श्रद्धा कपूर हसीना पार्कर (2017) में दाऊद की बहन के टाइटिल रोल में थीं, जबकि अर्जुन रामपाल ने डैडी (2017) में अरुण गवली की भूमिका निभाई। हालांकि गैंगस्टर वाली कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिट गईं, मगर फिल्मी डॉन से फिल्मकारों का नशा नहीं उतरा।
दाऊद जैसे डॉन
दाऊद इब्राहिम बॉलीवुड का दीवाना रहा है और 1980 के दशक में शारजाह क्रिकेट मैच के दौरान मुंबइया सितारों के साथ फोटो खिंचवाने का उस पर नशा-सा सवार था। कई बरसों के अंतराल में बॉलीवुड परदे पर उसके कई क्लोन नमूदार हुए, मगर सबसे करीब दिवंगत ऋषि कपूर ही पहुंच पाए। डी डे (2013) में पाकिस्तान में रह रहे मराठी बोलने वाले इकबाल सेठ के किरदार में वे भगोड़े गैंगस्टर से काफी मिलते-जुलते हैं। इमरान हाशमी ने भी वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई (2010) में उसका किरदार किया। उसके पहले रिस्क (2007) में विनोद खन्ना ने ऐसे डॉन का किरदार किया, जिसका सिक्का मुंबई में चलता है। हालांकि बॉलीवुड में बॉयोपिक का जुनून भी चढ़ा हुआ है, मगर अभी तक भगोड़े माफिया डॉन की जिंदगी और दौर को फिल्माने की कोई कोशिश नहीं हुई है। घबराइए नहीं असली या फिल्मी डॉन का सिलसिला जारी रहेगा। जय हो, परदे वाले डॉन की!