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यथार्थ से साक्षात्कार

पुस्तक समीक्षा
यथार्थ से साक्षात्कार

हरिओम के नए कहानी संग्रह की ज्‍यादातर कहानियां हर स्‍तर पर मूल्‍यों के टूटने, गिरने और जमीदोज होने की दास्‍तान हैं। शीर्षक कहानी तितलियों का शोर जिद्दी बच्‍चों के मनोविज्ञान की कहानी है। क्रीमा और अलिंदा को पढ़ने न जाने का कोई न कोई बहाना चाहिए। इस समस्‍या को हल करने के लिए पिता एक दिन बच्चों को रंगीन तितली थमा देते हैं। उनकी धमाचौकड़ी से नाजुक तितली मर जाती है। उदास बच्‍चे फिर हर जगह तितलियां बना कर उसका प्रायश्चित करते हैं। भूसा, रामराज की बग्‍घी और परछाइयां भी कहानीकार के सघन आब्‍जर्वेशन की कहानियां हैं। भूसा कहानी में एक तरफ शातिर दिमाग, गांव की जबान में कहें तो ‘पढ़े कम लढ़े ज्‍यादा’ टुन्‍नी परधान हैं, दूसरी तरफ पढ़ाई न कर पाने के बावजूद गांव आकर झोलाछाप डॉक्‍टरी और भूसा बेच कर गिरस्‍ती चलाने वाले डॉ. प्रजापति। धीरे-धीरे जब प्रजापति परधानी के चुनाव में ताल ठोंकते हैं तो टुन्नी परधान अपने दांव से उन्‍हें ढेर कर देते हैं। रामराज की बग्‍घी  में जनविकास पार्टी, गांव पंचायत बनपुरवा, बड़े छोटे ददन की लुटी हुई रियासत की बची-खुची शानोशौकत, फूला और ददन के अवैध संबंध, फूला भाभी के सरपंच बनने के बावजूद देवर रामराज के भूख से मरने की कहानी है। परछाइयां गांव में रहने वाले निरबंस मंडल और उनकी पत्नी की कहानी है, जो अकेलेपन से निजात पाने के लिए भतीजे हरपरकास को अपने पास रख लेते हैं, पर हरपरकास की बिगड़ैल हरकत उन्‍हें कहीं का नहीं छोड़ती। जमीन जायदाद सब बिक जाती है और मंडल असमय चल बसते हैं। अकेली रह गई मंडलाइन को गांव के लोग चुड़ैल करार देकर कुंए में धकेल देते हैं।

गांव के अलावा शहरी अनुभव की कहानियां भी इसमें हैं। जानवर ऐसी ही कहानी है जो जानवर बनते समाज को दिखाती है। जंगल से भाग कर प्राण बचाने के लिए जगह खोजते जानवर को घेर कर मार डालने का नृशंस वर्णन इसमें है। सेवा निठल्‍ले उगाही गैंग द्वारा की जाने वाली उठाईगीरी की कहानी है। जश्‍न अल्‍पसंख्‍यकों के त्‍योहारों को दंगों में बदल कर जनता की भावनाओं को अपने पक्ष में करने वाली राजनीतिक दुरभिसंधि की कहानी है, दास्‍ताने शहादत सब इंस्‍पेक्‍टर रनबहादुर के बहाने आदिवासी और नक्‍सली इलाकों में जर-जोरू-जमीन और खनिज पदार्थों की खुली लूट की कहानी है, जिसमें सत्‍ता की शह पर रनबहादुर जैसे दारोगा भी, इस्‍तेमाल के बाद मार दिए जाते हैं। इन कहानियों में एक और फरहाद की अलग आभा है तथा बर्फ की अलग। शीरीं के प्रेम में पड़े आधुनिक फरहाद की यह शुद्ध काल्‍पनिक मनोभूमि पर रची गई कहानी है। वहीं, बर्फ एक बर्फीले देश में मार्टिन के साथ किए गए एमी के प्रेम की अविस्‍मृत दास्‍तान है, जो किसी कविता की तरह धीरे-धीरे चेतना में प्रस्‍फुटित होती है। प्रेम में विलग होने की खामोश पीड़ा और मेपल की वीरान सी लगती टहनियां इस तहरीर को जैसे उदास बना देती है। इस उदास कर देने वाली प्रेमकथा को छोड़ दें तो हरिओम की किस्‍सागोई का यथार्थ इतना देखा भाला लगता है जैसे हम कहानियों से नहीं, हकीकत के गलियारों से होकर गुजर रहे हों। अवधी जबान की मुहावरेबाजी जगह-जगह नैरेशन और संवादों में नजर आती है। हिंदी कहानी की दुनिया में तितलियों के शोर से कुछ हलचल जरूर पैदा होगी, इसमें संदेह नहीं।

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शब्द नहीं, भाव बोलते हैं

अनिता रश्मि

इस पुस्तक में जाबिर साहब ने परस्पर संवाद करती कविताएं संकलित की हैं। कवि, लेखक, संपादक जाबिर हुसेन साहब का गद्य जितनी खूबसूरती से अपनी बात परोसता रहा है, काव्य भी उतनी ही खूबसूरती से मर्म को छूता है। अपनी डायरियों से चर्चा की ऊंचाई छू चुके कवि ने उतनी ही गहराई से इन कविताओं को रचा है। इस काव्य पुस्तक का नवीन आकार पाठकों का ध्यान खींचता है। पूर्व के संकलनों की तरह ही यह संग्रह भी संवाद के खुरदुरे चेहरे से मिलवाएगा, ऐसा विश्वास कवि के अंदर यूं ही नहीं है। जब वे कहते हैं, दे गया है वो/नए साल का/तोहफा मुझको/ये रफूगर/मेरे जख्मों को/संभाले कैसे, तो उनके विश्वास पर विश्वास हो जाता है।

विविधवर्णी काव्य सृजन का एक और रूप, गुफाएं कहती हैं/उसने कहा था/जादू का/कोई मंच नहीं होता/उसकी/गुफाएं होती हैं। विराम में कवि की स्वीकारोक्ति, सोचता हूं/जीवन के इस/तूफानी मोड़ पर/एक मिटते हुए/विराम चिह्न से/ज्यादा हूं क्या।

सच्चे पाठक की बात करें, तो क्या इससे बेहतर शब्दों की माला गूंथी जा सकती है, किताबें ढूंढ़ती हैं/मेरी आंखें/मैं इन आंखों से/शर्मिंदा नहीं हूं। ऐसे ही छोटे-छोटे शब्द खर्च कर संग्रह में बड़े अर्थ भर दिए गए हैं। कुछ लंबी कविताओं का भी आस्वाद अलग है, जो काव्य धारा में डुबकी लगाने को मजबूर करती हुई, कविता के प्रति आश्वस्ति थमाती हुई कहती हैं, रहेंगी जिंदा...जरूर रहेंगी, जिंदा कविताएं!

इब्न बतूता पर भी कई बार कलम चलाकर उन्होंने जैसे जेहन में बतूता को जीवित रखने की कोशिश की है, कल शाम/जो ताजपोशी/अमल में आई/उसे देखकर/इब्न बतूता/की आंखों की/रोशनी जाती रही। इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक भाव लोक की सैर कर लेता है और इतिहास की भी। जो धारणा लेखक जाबिर हुसेन के संस्मरणों को पढ़कर बनी थी, वह कवि जाबिर को पढ़कर और भी पुख्ता हुई है कि अदब की दुनिया ऐसे रचनाकारों से ही गुलजार है। देर तक मन, दिमाग को उद्वेलित करती कविताई, रिश्तों का / बिखरना या / धागों का टूटना / किसे कहते हैं...। अंत उन्हीं के लफ्जों के साथ, सवाल / और उठेंगे / तुम्हारे नाम / के साथ / तुम अपने पास / सबूतों की / पोटली रखना।

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