किसी विश्वविख्यात शख्सियत के बारे में कुछ लिखना इसलिए मुश्किल होता है कि उसके बारे में सबकुछ जाना-छपा होता है, और वह शख्सियत रवींद्रनाथ टैगोर हों, तो यह काम और कठिन हो जाता है। फिर भी, नित्यप्रिय घोष ने टैगोर की जीवन कथा में अनेक ऐसी बातों और घटनाओं का जिक्र किया है जो एकदम अनजानी भले न हों, कम जानी-मानी जरूर हैं। जैसे टैगोर की पहली रेल यात्रा, उनकी कविताओं पर अंग्रेजी गायिका डैम क्लारा बट की टिप्पणी, पहली यूरोप यात्रा के लिए रवींद्रनाथ को तैयार करने वाली एना तुर्खुद का टैगोर को लिखा पत्र, नोबेल पुरस्कार के लिए स्टर्ज मूर द्वारा टैगोर के नाम की असामान्य तरीके से अनुशंसा और पुरस्कार दिए जाने पर यूरोप में आलोचना।
पुस्तक में टैगोर के कई ऐसे भाषणों और लेखों का जिक्र है जो आज भी सामयिक प्रतीत होती हैं। एक भाषण में उन्होंने भारतीयों को आत्मघाती आंतरिक संघर्षों का दोषी बताने के साथ यह भी कहा कि शासक वर्ग दो समुदायों को लड़ा रहा था। वे भारतीय विविधता में एकता के पक्षधर थे और मानते थे कि आध्यात्मिक दृष्टि से वैदिक काल में पूरा भारत एक था, और उस एकता के नष्ट होने में विदेशी हमलों की तुलना में अंतर-सामुदायिक संघर्षों की ज्यादा बड़ी भूमिका थी। देशभक्ति और राष्ट्रवाद के बीच भेद के कारण टैगोर की आलोचना भी हुई। एक लेख में उन्होंने लिखा कि राष्ट्र यूरोपीय अवधारणा है और इसके समतुल्य बांग्ला या अन्य भारतीय भाषा में कोई अभिव्यक्ति नहीं है। पहले विश्वयुद्ध के बाद टैगोर आक्रामक राष्ट्रवाद के कट्टर विरोधी हो गए थे।
यह तो सर्वविदित है कि रवींद्रनाथ की पढ़ाई घर की पाठशाला में हुई थी, लेकिन यह बात कम लोगों को ही मालूम होगी कि बचपन में उनके पिता देवेंद्रनाथ यही मानते थे कि वे किसी स्कूल में पढ़ने लायक नहीं हैं। जब वे 13 साल के थे, तब उनकी पहली कविता ‘हिंदू मेलाय उपहार’ अमृत बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने दो हजार से भी अधिक गीत लिखे, जो आज भी करोड़ों लोगों के दिलों में समाए हुए हैं। उन्होंने संगीत की भी नियमित शिक्षा नहीं ली, लेकिन उन्हें रागों की बारीकियों की अच्छी समझ थी। उन्होंने 20 वर्ष की उम्र में अपने पहले सार्वजनिक भाषण में पश्चिमी संगीत की प्रशंसा करते हुए भारतीय संगीत को अरुचिकर बताया था, लेकिन बाद में आइंस्टीन के बर्लिन स्थित आवास पर मुलाकात के दौरान स्वीकार किया कि यूरोपियन संगीत की तुलना में उन्हें भारतीय संगीत ज्यादा गहराई से प्रभावित करता है।
रवींद्रनाथ असहमति अवश्य उजागर करते थे, भले ही सामने वाला व्यक्ति कितना ही बड़ा क्यों न हो। बंकिमचंद्र उनके आदर्श थे, फिर भी महाभारत में कृष्ण की व्याख्या पर उनसे कहासुनी हुई थी। इसी तरह, महात्मा गांधी ने एक बार टिप्पणी की थी कि तिलक और राममोहन राय और ऊंचा स्थान हासिल करते अगर वे अंग्रेजी शिक्षा से अधिक प्रभावित न होते। इस पर टैगोर ने गांधी जी का कड़ा विरोध किया था।
किताब में कवि गुरु से जुड़ी उन घटनाओं, बातों और विषयों के बारे में बताया गया है जिन्हें नजरंदाज कर दिया गया। ये बातें इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे टैगोर को बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलती है। पुत्र, भाई, पति और पिता के रूप में भूमिका; कवि, दार्शनिक, लेखक, पेंटर और अभिनेता के रूप में उनकी उपलब्धियां; परिवार, दोस्तों और समकालीन रचनाकारों के साथ उनके संबंध, देश-विदेश के राजनीतिक नेताओं के साथ पत्राचार और जीवन के बारे में उनकी व्याख्याओं से टैगोर के विचारों का गहराई से पता चलता है। पुस्तक में टैगोर के 160 दुर्लभ चित्र भी प्रकाशित किए गए हैं। नित्यप्रिय घोष ने टैगोर पर कई किताबों का लेखन और संपादन किया है। इस किताब का अंग्रेजी संस्करण 2012 में आया था। श्रीकांत अस्थाना द्वारा अनूदित हिंदी संस्करण अब प्रकाशित हुआ है।
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गांधी के कुछ अनछुए पहलू
आम धारणा यही है कि भगत सिंह को बचाने के लिए महात्मा गांधी ने कुछ नहीं किया, लेकिन वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ल की पुस्तक गांधीज डेल्ही बताती है कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए गांधी जी ने काफी प्रयास किए थे। पुस्तक में गांधी जी के दिल्ली प्रवास के बारे में भी बताया गया है। मसलन, पहली बार वे यहां 12 अप्रैल 1915 को आए थे और जीवन के आखिरी 144 दिन उन्होंने दिल्ली में ही बिताए थे। एक रोचक जानकारी यह है कि बापू यहां कुछ दिनों तक वाल्मीकि मंदिर में भी ठहरे थे, और वहीं पंचकुइयां रोड पर बच्चों को अंग्रेजी भी पढ़ाई। लेखक ने फिल्म गांधी में गांधी जी की भूमिका निभाने वाले बेन किंग्सले से भी मुलाकात की थी। बकौल किंग्सले, गांधी और दिल्ली को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जिस तरह उन्होंने नोआखली (अब बांग्लादेश में) में दंगों को रोकने के लिए अनशन किया था, उसी तरह, जब दिल्ली में दंगे फैले तो वे यहां भी अनशन पर बैठ गए। नोआखली की तरह यहां भी अनशन का असर दिखा। पुस्तक में गांधी जी के बड़े पुत्र हरिलाल गांधी के बारे में भी नई बातें बताई गई हैं। गांधी जी के अंतिम संस्कार के समय वे मौजूद थे या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन उनकी मृत्यु के दो दिन बाद हरिलाल छोटे भाई देवदास के घर पर आए थे। गांधी जी बिरला मंदिर और कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह पर भी गए थे, लेकिन पुस्तक के अनुसार, उनकी यह यात्रा धार्मिक नहीं थी। पुस्तक में गांधी जी और डॉ. भीम राव आंबेडकर के आपसी संबधों और दलितों के बारे में उनके वैचारिक मतभेदों के बारे में भी बताया गया है।
आउटलुक डेस्क