कविता के अनुवाद के बारे में बहुत तरह के संकोच हैं। आक्तावियो पाज जैसे कवि मानते हैं कि कविता का अनुवाद उसी भाषा में भी नहीं हो सकता। पर दूसरी ओर ऐसे भी उदाहरण हैं जो अनुवादकर्म में आस्था बढ़ाते हैं।
गिरधर राठी अपने अनुवाद की भूमिका में कहते हैं, “अनुवाद-कर्म का आकर्षण केवल यह नहीं था कि एक अपरिचित प्राय देश का साहित्य हम अपनी जुबान में समझ पा रहे हैं... अतृप्त रचना आकांक्षाओं को भी यह सुकून मिलता था (है) कि किसी दूसरी सिद्ध कलम ने सही, वह लिख दिया जो हम चाहकर भी नहीं लिख पा रहे थे। और फालुदी जैसे कवियों ने अनुवाद इसलिए भी किया था कि उस समय की सत्ता (फासिस्ट होर्थी सरकार या बाद में स्तालिनवादी राफोशी सरकार) के अंकुश से बचे रहकर भी 'अपनी-बात’ कह पाने का यही एक उपाय था।”
इसी तरह अपने अनुवाद की भूमिका में उदयन वाजपेयी कहते हैं कि अनुवाद से हम न सिर्फ उस परायी भाषा (हालांकि क्या कोई भाषा परायी हो सकती है?) की कृति को अपनी भाषा में ले आते हैं बल्कि उस अन्य भाषा की दूरी से अपनी भाषा को नए कोण से देखते हैं। अनुवाद करना, इस तरह, स्वयं अपनी भाषा में छिपे अन्यान्य आयामों को दूसरी भाषाओं के झरोखों से देखना है।
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद के पिपरिया कस्बे से हिंदी कवि वंशी माहेश्वरी ने 1972 में अनुवाद की पत्रिका तनाव निकालनी शुरू की थी। अभी तक इसके अंक निकल रहे हैं और 150वें अंक की ओर बढ़ रहे है। अशोक वाजपेयी 'आमुख’ में बताते हैं कि विश्व कविता संचयन (तीन भागों में) हिंदी अनुवाद में देश का सबसे बड़ा संचयन है। इसमें लगभग 33 देशों की 28 भाषाओं के 103 कवियों की कविताओं के, 48 कवियों और विद्वानों द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद शामिल हैं। वंशी माहेश्वरी 'प्रस्तावना’ में प्रकाशन और संपादन प्रक्रिया की संघर्ष यात्रा सुनाते हैं। इससे पता लगता है कि धीरज, लगन और प्रतिबद्धता से बड़ी-बड़ी 'घटनाएं’ एक न एक दिन आकार ले लेती हैं।
यह उल्लेखनीय है कि पिपरिया में ही जन्मे कवि और अनुवादक गिरधर राठी के नाम तनाव के सबसे अधिक छह अंकों के अनुवाद भी हैं। उसके बाद सुरेश सलिल ने पांच और हिंदी के मुर्धन्य कवियों ने दो-दो अंकों के अनुवाद किए हैं, जिनमें अशोक वाजपेयी, कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय, हरिमोहन शर्मा और प्रयाग शुक्ल प्रमुख हैं। विश्व कविता में हिंदी साहित्य के विश्वसनीय कवियों और अनुवादकों का होना ही तय कर देता है कि यह कविता का गंभीर विमर्श है।
विश्व कविता का यह सबसे बड़ा संचयन तीन भागों (एक) 'दरवाजे में कोई चाबी नहीं’ (दो) 'प्यास से मरती एक नदी’, (तीन) 'सूखी नदी पर खाली नाव’ में प्रस्तुत है। इन तीनों भागों के शीर्षक इनमें अनूदित कविता की पंक्तियां ही हैं।
कुंवर नारायण विश्व कविता संचयन (एक) में अनुवाद की भूमिका में महत्वपूर्ण वक्तव्य देते हैं, “साहित्य कभी भी जिंदगी की जगह नहीं ले सकता, पर कभी-कभी जिंदगी से भी ज्यादा सुंदर जरूर हो सकता है क्योंकि उसे हम एक रचना में यत्न से रचते हैं-एक कथानक की तरह-जब कि जिंदगी अनगढ़ और बेतरतीब होती है।” खोखे लुईस बार्खेस (अर्हेंतीना) के बारे में कुंवर नारायण कहते हैं कि बार्खेस मानते थे कि मनुष्य के रचनात्मक संकल्प का आधार उसकी चेतना है न कि वह वस्तु जगत या वास्तविक परिस्थितियां, जिन्हें वह रचनाबद्ध करता है। बार्खेस की सोलह कविताओं में से किसी एक का चयन कठिन है। वे अपनी एक कविता में कहते हैं-तुम चांदनी में, उस तेंदुए का स्वरूप हो/जिसे हम केवल दूर से ही बूझते हैं। ईश्वर ही जाने तुम्हारे अंदर के/उस गुमसुम रहस्य को जिसे हम टटोलते/ गंगा नदी या सूर्यास्त से भी अधिक अभेद्य/तुम्हारा एकांत, तुम्हारा मर्म।
अशोक वाजपेयी चेस्लाव मीलोष (पोलैंड) के अनुवाद के संदर्भ में कहते हैं कि यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि क्रूरताओं, संहार अैर हिंसा, विचारधाराओं के अतिचार के समय में कविता को स्वयं दूसरी जगह बनाने की कोशिश की है, ऐसी जगह जहां से कविता का अपना ’विजडम’ अपना आत्यन्तिक विवेक, अपना नैतिक बोध उसे एक ऊर्जस्वित जगह देते हैं। अशोक वाजपेयी द्वारा अनूदित चेस्लाव की सोलह कविताएं हिंदी कविता के काव्य-कौशल को समृद्ध करती हैं।
मंगलेश डबराल ने यूनान के कवि यानिस रित्सोज की कविताओं के अनुवाद के साथ उन पर एक महत्वपूर्ण वक्तव्य भी दिया है। फ्रांसीसी कवि लुई अरागां ने कहा था, “ऐसा लगता है यह कवि (रित्सोज) मेरी आत्मा के सारे रहस्य जानता है। एक से दूसरी कविता में जाते हुए किसी रहस्य के खुलने का कंपन महसूस होता है। एक मनुष्य और एक देश का कंपन, मनुष्य और देश की गहराइयों का कंपन।” यही बात विश्व कविता के सभी अनुवादों पर घटित होती है।
रमेशचंद्र शाह स्वीडन के कवि टोमास ट्रांसट्रमर के अनुवाद की भूमिका में कहते हैं, “मनोवैज्ञानिक मोक्ष की खोज कवियों की और कवियों के जरिये, मानव जीव की बुनियादी जरूरत और बुनियादी ऐषणा रही है-भले चेतन के स्तर पर हम इस पीड़ा को कभी ठीक-ठाक समझ न पाएं। मगर हमारे कवि हमारी इस तृष्णा, इसी उलझन, इसी जरूरत को पूरा करने आते हैं। हमारी हृदयग्रन्थि को खोलने।”
विश्व कविता संचयन (दो) का शीर्षक है 'प्यास से मरती एक नदी।’ इसमें अशोक वाजपेयी ने इटली के कवि एन्तोनिओ पोर्चियो की अनोखी कविताओं (जो सूक्तियों के अधिक निकट बैठती हैं) का अनुवाद प्रस्तुत किया है। (1) फूल बिना उम्मीद के होते हैं/क्योंकि उम्मीद आने वाला कल है और फूलों का कल नहीं होता/ (2) तुम आंसुओं की नदी नहीं देख पाते क्योंकि उसमें तुम्हारे अपने एक आंसू की कमी है/ (3) मनुष्य का, जब वह दुखी नहीं होता, बमुश्किल अस्तित्व होता है।
रायनर लोत्स और गिरधर राठी के जर्मनी कवि बर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविताओं के अनुवाद और उनकी भूमिका भारतीय परिप्रेक्ष्य में समसामयिक हैं। ब्रेष्ट के बारे में समीक्षक एन्स्र्ट शुमाखर ने लिखा है, “अपनी रसोई इस तरह तैयार और पेश करना चाहता था, जिससे बेस्वाद हो चुकी जीभ में फिर स्वाद आ जाए।”
उदय प्रकाश ने जर्मनी कवि हंस माग्नुस एन्त्सेसबर्गर की छोटी कविताओं के अनुवाद किए हैं जो बड़ा प्रभाव छोड़ती हैं-(1) वे लोग/जो छायाओं में रहते हैं/उनकी हत्या मुश्किल है। (2) छाया में/पूरी तरह/मेरी छाया/गायब हो जाती है।
असद जैदी ने पोलैंड के यशस्वी कवि तदेउष रुझेविच की कविताओं से हिंदी संसार की दृष्टि को पैना बनाया है। जैसे,गरिमा/और समझदारी से/भरे होते हैं जंगली जानवर/संगीन जख्म लेकर/ना मामूल जगहों में जा छिपते हैं/ और मर जाते हैं।
विष्णु खरे ने हंगरी के कवि मिक्लोश राद्नोती की कविता के अनुवाद के साथ राद्नोती के जीवन-कर्म और प्रतिबद्धता पर अपनी भूमिका में व्यापक प्रकाश डाला है। सुरेश सलील ने फिलिस्तीन के कवि महमूद दरवेश पर महत्वपूर्ण भूमिका लिखी है। 1947 में जब वे छह साल के थे तब उनके गांव पर इजरायल ने आक्रमण कर दिया। वे कभी एक देश में टिक नहीं पाए। इजरायली फौजियों ने उनके सांस्कृतिक केंद्र को तहस-नहस कर दिया। इस पर महमूद की प्रतिक्रिया थी, “वे हमें बताना चाहते हैं कि कोई भी निरापद नहीं है, संस्कृति भी नहीं। ठीक है, वे ताकतवर हैं, हमला कर सकते हैं, किसी को भी मौत के घाट उतार सकते हैं, लेकिन वे हमारे अल्फाज का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।” विश्व कविता संचयन भाग-2 का शीर्षक महमूद दरवेश की कविता 'प्यास से मरती एक नदी’ से ही लिया गया है। वे एक कविता में कहते हैं-कविता से जो चीज गायब हो रही है, और मैं उसके बारे में नहीं जानता/वह है उसका प्रदीप्त रहस्य, जिसे मैं कविता की आत्मा कहता हूं।
विश्व कविता संचयन (तीन) का शीर्षक है 'सूखी नदी पर खाली नाव।’ इसमें जापानी कविता के छह अनुवाद हैं। इन्हें लक्ष्मीधर मालवीय, सुरेश सलिल, वीरेन्द्र बरनवाल, उदयन वाजपेयी, मधु शर्मा और जापानी-हिंदी विद्वान तोमोको किकुची ने किया है। इन अनुवादकों ने जापानी कविता पर गंभीर भूमिकाएं लिखी हैं। मधु शर्मा के अनुसार जापानी कविता का इतिहास सातवीं सदी ईस्वी से शुरू होता है। आठवीं शताब्दी में जापान में बुद्धधर्म का वर्चस्व चरम-बिंदु पर पहुंचा। सम्राट से लेकर समाज के निचले स्तर तक के सभी स्त्री-पुरुषों के लिए कविता एक जीवनदायी रसायन थी।
क्यूबा में उपनिवेशवाद लगभग समाप्त हो चुका है लेकिन उसकी प्रवृतियां आज भी जीवित हैं। इसलिए क्यूबा की कविता में रंग-भेद, शेाषित, न्यायविहीन आम आदमियों के साहित्यिक पक्ष प्रबल हैं। मार्टिन कार्टर की कविताएं राजनीतिक हैं। अक्षय कुमार और विनय दुबे के अनुवादों में क्रांतिकारी और प्रति क्रांतिकारी दृष्टिकोण का परिचय मिलता है।
रूस की कविताओं के अनुवादकों के नाम ही आश्वस्त करने वाले हैं। प्रयाग शुक्ल, कमलेश, गिरधर राठी और अशोक सेकसरिया ने अंग्रेजी और अनिल जनविजय ने रूसी भाषा से सीधे हिंदी में ये अनुवाद किये हैं। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि ओसिप मन्दिलश्ताम पर विस्तृत भूमिका, संस्मरण, स्मृतियां, उद्धरण और कुछ नोट्स हैं। विश्व कविता का यह दस्तावेज किसी भी देश और साहित्य की अमूल्य निधि है।
इसी क्रम में वरयाम सिंह (रूस), रघुवीर सहाय (सोवियत संघ) और कान्ता (रूस) की कविताओं के अनुवाद कविता को साहित्य के शिखर पर पहुंचा देते हैं। नीरजा जायलचंद द्वारा अनुवादित अफ्रीका के कवि डैनिस ब्रूटस और बेन ओकरी की कविताएं भारतीय मानस में सहज उतर जाती हैं। डेनिस ब्रूटस महात्मा गांधी के जीवन-दर्शन से प्रभावित थे। उन्होंने गोरीशाही के विरुद्ध सक्रिय संघर्ष किया है। इसके बदले देश निर्वासन की पीड़ा को भी झेला है।
बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि इटली के माइकल ऐंजेलो चित्रकार और मूर्तिशिल्पी होने साथ अच्छे कवि भी थे। वे सच्चे अर्थों में 'रिनेसांमैन’ थे। सुरेश सलिल ने माइकल ऐंजेलो के जीवन और कार्य पर लंबी भूमिका लिखी है। माइकल ऐंजेलो विपुल कला-कर्म के साथ तीन सौ से ऊपर कविताएं अपने पीछे विरासत के रूप में छोड़ गए हैं।
विश्व-कविता के इस चयन का समापन सुरेश सलिल की ग्रीस देश की मकदूनिया की कविताओं से होता है। मकदूनिया की पहचान की शुरुआत सिकंदर से होती है। इसकी भूमिका में देशों के साथ भाषा के टूटने और बनने का इतिहास पठनीय है।
विश्व कविता का यह अनोखा संचयन रज़ा फाउंडेशन के सहयोग से प्रकाशित है। रज़ा फाउंडेशन के अशोक वाजपेयी के मुताबिक, इस संचयन से यह पहचान भी निश्चय उभरेगी कि हिंदी कई बार अनुवाद के क्षणों में वह वहां जाने की कोशिश करती और जोखिम उठाती है, जहां यह पहले शायद कभी नहीं गई थी।