हिंदी के मूर्धन्य कवि, आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी की तेरह खंडों में प्रकाशित रचनावली देखकर किंचित विस्मय हुआ। अशोक जी अभी लिख रहे हैं और उनके लिखे का निरंतर प्रकाशन हो रहा है। ऐसे में विस्मित होना स्वाभाविक है। आमतौर से यह परंपरा रही है कि लिखना जब बंद हो जाता है, तभी रचनावली प्रकाशित होती है। माना जाता है कि रचनावली में उसका लिखा सब कुछ आ गया। लेकिन हिंदी में इसके अपवाद मिलते हैं। एक अपवाद श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी थे, जिन्होंने स्वयं की पहल पर अपनी रचनावली प्रकाशित करने की योजना बनाई और उसके कुछ खंड प्रकाशित भी किए। अशोक वाजपेयी रचनावली भी एक अर्थ में अपवाद ही कही जाएगी। बहरहाल, अमिताभ राय के संपादन में सेतु प्रकाशन से प्रकाशित इस रचनावली का स्वागत है कि हमारे समय के एक मूर्धन्य कवि, आलोचक और जन बुद्धिजीवी का संपूर्ण तो नहीं, किंतु अधिकांश रचना संसार अब हमारे सामने है।
रचनावाली देखने से पता चलता है कि अशोक वाजपेयी का रचना- संसार विपुल और वैविध्यपूर्ण है। वे प्राथमिक रूप से कवि हैं। लेकिन कविता के साथ-साथ उन्होंने आलोचना, संस्मरण, आत्मवृत्त आदि विधाओं में भी लिखा है। वे हिंदी में चित्रकला, संगीत, नृत्य आदि पर लिखने वाले सबसे प्रामाणिक लेखक हैं। संस्कृति और समाज के सवालों पर सतर्क निगाह रखनेवाले हिंदी के वे ऐसे लेखक हैं, जिनके लिखे पर हिंदी समाज की निगाह रहती है। हिंदी समाज में फैलती कूप मंडूकता, फूहड़ धार्मिकता और असहिष्णुता के विरुद्ध लिखने-बोलनेवाले बुद्धिजीवियों में आज की तारीख में सबसे ऊंची आवाज अशोक वाजपेयी की है। रचनावाली में उनके रचनाकार, आलोचक और सक्रिय बुद्धिजीवी के विविध रूप मौजूद हैं। संपादक अमिताभ राय ने भूमिका के बहाने में लिखा है और सही लिखा है, “अशोक वाजपेयी की प्रतिभा बहुमुखी है। सृजनात्मकता के अनेक कोण और स्तर उनके रचनात्मक व्यक्तित्व का हिस्सा है। रचनाएं भी एक समानांतर संसार का सृजन हैं। रचनाओं की समानांतर दुनिया के समानांतर उन्होंने एक ऐसी भौतिक दुनिया बनाई या बनाने की कोशिश की, जिसका आधार सांस्कृतिक कर्म है। संगीत, नृत्य, चित्र आदि कलाओं, लोक कला, साहित्य और रंगमंच के प्रति एक समावेशी दृष्टि के कारण उन्होंने यह सृष्टि रची। बहुत हद तक संभव था कि यह सृष्टि वायवीय रह जाए, कोई स्वप्न या महज एक खयाल बनकर रह जाए या जिस समानांतर दुनिया की बात मैं कह रहा हूं वह केवल उसका हिस्सा बनकर रह जाए। अशोक वाजपेयी ने इन सब को खारिज किया। उसे भौतिक संसार का हिस्सा बनाया। विभिन्न संस्थाओं के निर्माण और बहुत सारे सांस्कृतिक कार्य-कलाप के सूत्रधार के रूप में उन्होंने एक स्वप्न को यथार्थ में बदला।”
रचनावली के तेरह खंडों में से पहले तीन खंड उनकी कविताओं के हैं। इन तीन खंडों में उनकी लगभग सभी मौलिक और अनूदित कविताएं शामिल हैं। चौथा और पांचवां खंड उनके आलोचनात्मक लेखन का है। छठे खंड में आत्मवृत्त और संस्मरण को पढ़ा जा सकता है। अशोक वाजपेयी ने ‘कभी-कभार’ नाम से जनसत्ता अखबार में और सत्याग्रह वेब पोर्टल पर नियमित स्तंभ लेखन किया है। इस स्तंभ में संस्कृति, साहित्य, राजनीति और समाज के जरूरी सवालों पर उनकी तल्ख और जरूरी टिप्पणियां हिंदी समाज पढ़ता रहा है। खुशी है कि सातवें, आठवें, नौवें और दसवें खंड में ‘कभी-कभार’ स्तंभ में प्रकाशित टिप्पणियां शामिल हैं। रचनावली के ग्यारहवें और बारहवें खंड में अशोक वाजपेयी के संवाद और साक्षात्कार शामिल हैं। जबकि तेरहवें खंड में उनके पत्रों को शामिल किया गया है। इस तरह उनके लेखन और चिंतन का बहुलांश इस रचनावली के रूप में हमारे सामने हैं।
अशोक वाजपेयी की निर्जन में (2020) शीर्षक कविता का पहला खंड है:
इस शांति को भंग करती है
एक अनाम चिड़िया की चहचहाहट,
दौड़कर चढ़ जाती है एक गिलहरी
एक पेड़ पर बेपरवाह
भाषा के निर्जन में
कविता एक मौन मार्ग है।
इस कवितांश में अशोक वाजपेयी की कविता के मिजाज का परिचय मिलता है। अपने पहले कविता संग्रह शहर अब भी संभावना है (1968) से अब तक अनेक कविता संग्रह देने वाले अशोक वाजपेयी कवि रूप में अपने समकालीनों से भिन्न ढंग की कविताओं के लिए जाने जाते हैं। वे कविता को निरा सामाजिक सच बनाने के पक्षधर कभी नहीं रहे। उनकी कविताएं हिंदी कविता में अलग भाषा, अलग विषय वस्तु और अलग शिल्प के लिए जानी जाती हैं। वे किसी भी जमात में शामिल होने की जगह अपना भिन्न काव्य- संसार निर्मित करने वाले कवि हैं। रचनावली के जरिए अशोक वाजपेयी के काव्य- विकास को संपूर्णता से समझना आसान हो गया है।
नई कविता और साठोत्तरी कविता से लेकर अब तक के हिंदी कविता के विकास को समझने के लिए अशोक वाजपेजी लिखित आलोचना हिंदी पाठक के लिए बड़ा आधार है। अपनी साफगोई और दो टूकपन और अलग साहित्य दृष्टि के कारण उनकी आलोचना हिंदी के बौद्धिक माहौल को, नामवर सिंह के बाद, आंदोलित करने में सबसे अधिक सफल रहीं है। रचनावली के जरिए उनके संपूर्ण आलोचना कर्म और साहित्य चिंतन को भी देखना- समझाना आसान हो गया है। इसके अलावा समाज, राजनीति, संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि पर लिखी गई टिप्पणियों के जरिए अशोक जी के लेखन-विस्तार को इसमें देखा जा सकता है। अंत में यह कहना जरूरी है कि इस रचनावली के जरिए हिंदी की रचनाशीलता और बौद्धिकता का धरातल थोड़ा उन्नत हो गया है।
अशोक वाजपेयी रचनावली
अमिताभ राय
प्रकाशक| सेतु प्रकाशन
मूल्य: 7500 (तेरह खंड)