ताजा ताजा आम चुनावों में देश के लोगों ने अपने जनादेश में लोकतंत्र का अनोखा सबक सिखाया और वर्चस्ववादी राजनैतिक धारा को लगभग बाकी धाराओं के बराबर ला खड़ा किया, तो लोकतंत्र पर नया विमर्श खड़ा होना लाजिमी है। खासकर संसदीय लोकतंत्र की खूबियों-खामियों और उसमें उभरी नई दुष्प्रवृतियों के सुधार के कदमों के लिए नए सिरे से विचार करना भी अनिवार्य हो गया है। इसी संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी के संपादन में निकली दो किताबों ‘लोकतंत्र का भविष्य’और ‘जनतंत्र की जड़ें’ की अहमियत बेहद खास हो जाती है। पहली किताब हालिया चुनावों की पृष्ठभूमि तैयार होने के साथ आई और दूसरी किताब ऐन चुनावों के पहले। दोनों ही मौजूदा दौर में लोकतंत्र की चिंताओं और सरोकारों से लोगों को बाखबर करती हैं और उन तमाम बहसों को जुटा लाती हैं जो आजादी के आंदोलन से लोकतंत्र तथा नागरिक अधिकारों को लेकर बेहद ब्यौरेवार उभरी थीं, जिनमें लोकतंत्र तथा अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिश लगाने की प्रवृतियों के उभरने की आशंकाएं और चेतावनियां भी थीं।
अलबत्ता, दोनों किताबों के समय के साथ उनके संदर्भ-बिंदु भी अलग दिखते हैं। पहली किताब दिग्गज पत्रकार-संपादक दिवंगत राजकिशोर द्वारा नब्बे के दशक में शुरू की गई ‘आज के प्रश्न’ की शृंखला की 24वीं कड़ी है। सो, उसमें मौजूदा दौर में बहुसंख्यक वर्चस्व के साथ सत्ता तथा पूंजी के केंद्रीकरण से उपजीं अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों का जिक्र विस्तार से हर लेख में मिलता है। अरुण अपने ‘संपादक की बात’ में डॉ. भीमराव आंबेडकर को उद्धृत करते हैं कि लोकतंत्र को कामयाब करने की न्यूनतम पांच शर्तें हैं। मसलन, समाज में असमानता न हो, विपक्ष का अस्तित्व कायम रहे, कानून और प्रशासन सबके साथ समान व्यवहार करे, संवैधानिक नैतिकता का पालन हो, बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर आतंक न हो। क्या मौजूदा दौर में इन पांचों शर्तों की खुली अवहेलना का जश्न नहीं मनाया जाता रहा है? इसी तरह वे महात्मा गांधी के उद्धरण से बहुसंख्यकवाद की बढ़ाई गई अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं। बकौल महात्मा, ‘‘विवेक के मामले में बहुसंख्यक के नियम का कोई स्थान नहीं है। हमें जनादेश के सिद्धांत को बेतुकी सीमा तक नहीं खींच ले जाना चाहिए और बहुसंख्यकों के संकल्पों का दास नहीं बनना चाहिए। यह पशुबल का और भी सांघातिक रूप से पुनर्जीवन होगा.....यह आश्वस्त करना बहुसंख्यकों का काम है कि अल्पसंख्यकों की बात ठीक से सुनी जाए और उनका किसी भी रूप में अपमान न हो।’’
इस दौर की लगभग सभी अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों और उनसे होने वाले नुकसान को अलग-अलग लेखकों के लेखों में संकलित किया गया है। मसलन, आंदोलनों को कुचलने, उन पर बंदिशें थोपने, नागरिक स्वतंत्रताओं को सीमित करने, मीडिया के बड़े वर्ग के समर्पण, संवैधानिक संस्थाओं को ‘पिंजरे का तोता’ बना डालने, इतिहास से छेड़छाड़ और भ्रामक तथ्यों का प्रसार वगैरह।
‘जनतंत्र की जड़ें’ इस दौर के हालात और प्रचलित बहसों के जरिये आगे आने वाले वक्त के प्रति आगाह करती है। बेशक, इसमें विद्वान लेखकों के लेखों में जनतंत्र की जड़ों की टोह भी ली गई है कि कब-कब वे फैलीं और कब-कब सिकोड़ दी गईं। खासकर हाल के चुनावों के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। अरुण त्रिपाठी और ए.के. अरुण अपने लंबे लेख में अर्थशास्त्री विवेक देबरॉय के उस लेख की दलीलों पर विस्तार से चर्चा करते हैं कि अब नए संविधान की जरूरत है और मौजूदा संविधान ‘‘एक औपनिवेशिक विरासत है, जिससे छुटकारा पाया जाना चाहिए।’’ लेख में न सिर्फ उनकी दलीलों को खारिज किया गया, बल्कि देबरॉय को यह भी याद दिलाया गया है कि ‘‘इस संविधान के पीछे सिर्फ औपनिवेशिक विरासत नहीं, बल्कि उस विरासत से आजाद होने वाला पूरा स्वाधीनता संग्राम और उसकी विरासत भी है।’’ यहां प्राक्कथन का यह वाक्य देखिए, ‘‘भारतीय लोकतंत्र उस समय उम्मीदों से भरा था, जब दावा किया जा रहा था कि यूनान लोकतंत्र की जननी है, लेकिन आज जब यह दावा किया जा रहा है कि भारत लोकतंत्र की जननी है तो वह आशंकाओं से घिरा हुआ है।’’ संयोग से संविधान बदलने का मुद्दा हाल के चुनावों में इस कदर लोगों की भावनाओं में खलबली मचा गया कि अपने लिए दो-तिहाई से ज्यादा रिकॉर्ड बहुमत पाने का दावा करने वाली पार्टी साधारण बहुमत भी गंवा बैठी।
दूसरे लेखों में आज सबसे ज्यादा मौजू तमाम मुद्दों को छुआ गया है। याराना पूंजीवाद से लेकर गांधी-विरोध तक हर मुद्दे की चर्चा है और यह इशारा किया गया है कि ये सभी पहलू एक ही लोकतंत्र-विरोधी सिक्के के विविध पहलू हैं। दरअसल हमारे देश में लोकतंत्र के प्रवाह को हमेशा बहुमत के दर्प में मस्त सरकारों से ही नुकसान हुआ है। पुराना उदाहरण इंदिरा गांधी के दौर में इमरजेंसी का है। जब-जब गठबंधन सरकारों का दौर रहा, तब-तब नागरिक स्वतंत्रताएं, अभिव्यक्ति की आजादी हर तरह के भय से मुक्त हो जाती रही हैं और सत्ता का विकेंद्रीकरण तथा हिस्सेदारी बढ़ती रही है। आप पाएंगे कि मौजूदा जनादेश ने इन सभी मुद्दों पर अपनी मुहर लगा दी है। इसलिए ये दोनों किताबें दस्तावेज की तरह हैं, जिन्हें हर किसी को पढ़ना और जानना-समझना जरूरी है।
लोकतंत्र का भविष्य
अरुण कुमार त्रिपाठी
प्रकाशन | वाणी
पृष्ठ: 198 |मूल्य: 499 रुपये
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जनतंत्र की जड़ें
अरुण कुमार त्रिपाठी, ए.के. अरुण
प्रकाशन | युवा संवाद
पृष्ठ: 352 |मूल्य: 360 रुपये