आजादी के बाद हिंदी कविता के महानायक मुक्तिबोध की पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ को मध्य प्रदेश सरकार ने जब प्रतिबंधित कर दिया, तब दुष्प्रचार किया गया कि मुक्तिबोध ने नेहरू को मोहम्मद बिन तुगलक कहा है। सच्चाई यह थी कि प्रख्यात समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने एक प्रसंग में नेहरू को ‘तुगलक’ बताया था। इस किताब को प्रतिबंधित किए जाने के पीछे उस जमाने के मशहूर कांग्रेसी नेता एवं नाटककार सेठ गोविंद दास का भी हाथ था। उनके भड़काऊ भाषण के कारण जनसंघ और संघ परिवार से जुड़े लोगों ने पुस्तक की प्रतियां भी जलाई थीं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी इस किताब पर प्रतिबंध की मांग की थी। इस प्रकरण में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मुक्तिबोध का साथ नहीं दिया। बल्कि उसके एक विधायक शाकिर अली ने भी पुस्तक प्रतिबंधित करने की मांग की। मुक्तिबोध ने भाकपा के नेता डांगे को दो पत्र भी लिखे लेकिन पार्टी ने उनका साथ नहीं दिया। तब मुक्तिबोध ने अपने मित्र निरंजन महावर से कहा था, ‘‘देखो फासिज्म आ रहा है।’’ क्या मुक्तिबोध ने तब ही फासिज्म की आहट भांप ली थी, क्या वे भविष्यदृष्टा थे? मुक्तिबोध के निधन के 60 साल बाद दो खंडों में प्रकाशित उनकी जीवनी में ये बातें लिखी गई हैं।
रजा फाउंडेशन की लेखकों-कलाकारों की जीवनी माला योजना के तहत प्रकाशित इस पुस्तक में मुक्तिबोध के जीवन के संबंध में अनेक अनछुए प्रसंगों को पेश किया है। वरिष्ठ आलोचक जयप्रकाश ने बहुत मेहनत से यह जीवनी लिखी है। जीवनीकार ने इस जीवनी में बड़े विस्तार से उस दौर के परिवेश और समूचे परिदृश्य को पेश किया है। मुक्तिबोध का संपूर्ण जीवन आर्थिक संघर्ष के अलावा वैचारिक आत्म संघर्ष का ऐसा दस्तावेज है, जिसके बिना नेहरू युग के भारत और साहित्य को समझा नहीं जा सकता। मुक्तिबोध हिंदी कविता और आलोचना की सबसे भरोसेमंद आवाज साबित हुए। ‘‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ मुक्तिबोध का यह बहुचर्चित कथन दरअसल साहित्य और समाज को समझने का एक सूत्र वाक्य बन गया। यह प्रश्न उन्होंने तब के युवा कवि विनोद कुमार शुक्ल से उनकी कविताओं को पढ़ने के बाद पूछा था, जिसे सुनकर विनोद कुमार शुक्ल थोड़ा परेशान हुए थे।
मुक्तिबोध के इस सूत्र वाक्य के अलावा उनकी बहुचर्चित कविता ‘अंधेरे में’ भी उस यथार्थ का एक रूपक बन गया, जो अब उस दौर की प्रतिनिधि कविता मानी जाती है। मुक्तिबोध की इस कविता का शीर्षक, ‘आशंका के दीप: अंधेरे में’ था। श्रीकांत वर्मा ने ‘आशंका के दीप’ को हटा दिया। यह कविता कल्पना में 1964 में छपी थी। मुक्तिबोध ने अपने पहले कविता संग्रह का नाम ‘सहर्ष स्वीकारा है’ रखा था। अशोक वाजपेयी ने उन्हें नाम बदलने का सुझाव दिया। तब अशोक जी ने ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ और ‘डूबा चांद और डूबेगा’ सुझाया था। श्रीकांत वर्मा ने कविता का नाम ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ रखा, जिनकी देख रेख में यह किताब छप रही थी। मुक्तिबोध अपने प्रथम काव्य संग्रह का मुंह नहीं देख सके और 11 सितंबर 1964 को मात्र 47 वर्ष की आयु में दुनिया से चले गए।
जयप्रकाश ने इस जीवनी में मुक्तिबोध के जन्म से लेकर उनके निधन तक की यात्रा को बखूबी पेश किया है। एक-एक घटना का बारीकी के साथ वर्णन है। यह केवल मुक्तिबोध की जीवनी नहीं बल्कि उस युग की जीवनी बन गई है, जिसमें आजादी के बाद एक ईमानदार और निम्न मध्य वर्ग के एक व्यक्ति के संघर्ष को दिखाया गया है।
जीवनी से यह भी पता चलता है कि मुक्तिबोध अपने विचारों को अपने आचरण में उतारते भी थे। मुक्तिबोध के बीमार पड़ने पर बुआ की नौकरानी की पुत्री ने इतनी सेवा की कि मुक्तिबोध को उनसे प्रेम हो गया। प्रेम के मूल्यों की रक्षा के लिए ऊंच-नीच की दीवार को तोड़कर उन्होंने नौकरानी की बेटी को जीवन संगिनी बनाया।
मुक्तिबोध इस मायने में खुशनसीब थे कि उन्हें नेमिचन्द्र जैन, शमशेर बहादुर सिंह, हरिशंकर परसाई, शरद कोठारी, नरेश मेहता, कृष्णानंद सोख्ता जैसे मित्र मिले। श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेई और ज्ञानरंजन जैसे युवा प्रशंसक मिले, जिन्होंने मुक्तिबोध का पल-पल साथ दिया। प्रभाकर माचवे के साथ भी उनकी गहरी मैत्री रही। बाद में माचवे ने ही सरकार को मुक्तिबोध के कम्युनिस्ट होने के सबूत दिए थे। मुक्तिबोध जीवन भर गहरे भ्रम और भय में जिए कि उनके पीछे सीआइडी के आदमी लगे हैं।
पुस्तक में कुछ परिशिष्ट अनुक्रमणिका और कालक्रमानुसार एक जीवन परिचय तथा जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की विवरणिका होती, तो अच्छा होता। मुक्तिबोध के साहित्य को समझने के कई सूत्र इससे प्राप्त होते हैं। इसके आलोक में मुक्तिबोध का नए सिरे से मूल्यांकन हो सकेगा।