ख़तों के आइने में : कुछ चेहरे, कुछ अक्स, कुछ हकीकतें, कुछ अफसाने नाम की किताब ज्ञानरंजन को लिखे पत्रों का पहला खंड है। किताब को पढ़ते हुए स्मृतियों के पन्ने खुलते चले जाते हैं। जो हैं उनके भी जो नहीं हैं उनके भी। सोलह मशहूर लेखकों में ज्ञानरंजन के पिता रामनाथ सुमन गांधीवादी लेखक रहे हैं, सात-आठ भारतीय भाषाओं के ज्ञाता सुमन जी ने मीर और गालिब का हिंदी समाज से परिचय कराया था। वे पच्चीस वर्षीय बेटे को सलाह देते हैं कि अपना जीवन नियमित संयमित करो। ‘पिता’ शीर्षक से ज्ञानरंजन की लिखी कहानी में अशोक सेकसरिया के साथ कई लेखक रामनाथ सुमन का अक्स ढूंढते हैं। अशोक सेकसरिया, कुमार विकल, नेत्रसिंह रावत और वीरेन डंगवाल के पत्र बेहद आत्मीय है, अशोक सेकसरिया के लिखे पत्रों की पंक्तियां दर्शाती हैं, ‘‘मुझे इस बात की खीझ होती है कि अशोक (वाजपेयी) विरोधी उसके गुणों को एकदम भूल जाते हैं। उसके साहित्य के प्रति प्रेम और उसकी मित्र वत्सलता की तो वे प्रशंसा कर ही सकते हैं। 2004 में लिखे एक दूसरे पत्र में वे नई पीढ़ी के सामाजिक व्यवहार को लेकर नाखुशी व्यक्त करते हैं। हिंदी की नई पीढ़ी के लोग बहुत चालाक होते हैं। वे खबर रखते हैं कि कौन किसका दोस्त है। हिंदी पता नहीं कब इस काइयांपन से मुक्त होगी।’’
विख्यात चित्रकार सईद, जो कवि और आलोचक भी रहे हैं, कला के प्रति समर्पित हो बाद के दिनों में फिनलैंड रहने लगे। भारत के साहित्यकार मित्रों से लगातार संपर्क में रहे। अपने एक खत में वे लिखते हैं कि समाज एक गतिशील घटना है। सदा ही उसमें ऐसी प्रक्रियाएं मौजूद रहती हैं, जो उसे जीवंत, विकासशील बनाए रहती है। आगे वे कहते हैं कि हमारे देश के समझौता परस्त और दलाल विचारकों ने हम पर दोतरफा हमले किए हैं। हमें अंधेरे गर्त में धकेला है। काशीनाथ सिंह के पत्रों के केंद्र में नामवर सिंह और पहल की चिंता है।
इन पत्रों से गुजरते हुए 1970 के बाद साहित्यिक ऊष्मा का पता मिलता है। 1989 में नेत्रसिंह रावत लिखते हैं, कुमार विकल ने लिखा है कि वह किसी पार्टी के साथ नहीं है, मेरी भी यही स्थिति है, मैं आपके साथ हूं, जहां भी रहूं। शामिल पत्रों के अधिकांश लेखक विदा हो चुके हैं। इस किताब के संपादन में ज्ञानरंजन की अपनी कोई भूमिका नहीं है, बस सारे पत्र उनको संबोधित हैं। इन पत्रों को सुंदर किताब की शक्ल में ढालने का सारा काम अकार के संपादक प्रियंवद का है। यह शायद दो संपादकों के बीच का भाईचारा है। इसके बावजूद प्रियंवद सारे पत्रों के तफ्तीश में जाते हैं और ज्ञानरंजन से जवाब तलब करने से भी बाज नहीं आते। इसी का नतीजा है कि किताब पाठकों के लिए एक अद्भुत सौगात की तरह है, जिसे पाठक कभी खोना नहीं चाहेगा।