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पुस्तक समीक्षा: राजनीति और कविता

यह राजनीतिक समय है। प्रेम हो या विश्वविद्यालय राजनीति से बाहर आज कुछ नहीं है
पुस्तक समीक्षा

यह राजनीतिक समय है। प्रेम हो या विश्वविद्यालय राजनीति से बाहर आज कुछ नहीं है। फिर भला कविता कैसे बाहर रह सकती है। हालांकि कुछ कवि इसे खारिज करते हैं। वे राजनीति और कविता को दो अलग चीज बताने की कोशिश करते हैं और शुद्ध कविता जैसी किसी चीज के होने का सिद्धांत गढ़ते हैं। वे कविता के सबसे बड़े हितैषी होने का स्वांग भरते हैं जबकि यह राजनीति को नकारने की राजनीति के सिवा कुछ नहीं है।

संध्या नवोदिता इस तरह का कोई स्वांग नहीं करतीं और न उनकी कविता ‘राजनीति के खिलाफ राजनीति’ वाली कोई कविता है। उनकी कविता कई दफा सीधा हस्तक्षेप करती है। बहुत चकित होकर वे कहती हैं, "आजकल मैं भूल गई हूं सही रास्ते/जो सही लोगों या चीजों की तरफ जाते हैं/मसलन खून का बड़ा छितराया हुआ बड़ा धब्बा देखती हूं/और पास जाने पर वहां कश्मीर मिलता है।’’ वे आगे कहती हैं कि जब भी आंख भर देखना चाहती हूं देश वह आंसू बन जाता है। फिर यह कहने से भी वे नहीं चूकतीं कि ‘‘मैं आंसुओं का महाराग हूं।’’

‘जिस्म ही नहीं हूं मैं’ कविता में स्त्री विमर्श के प्रचलित मुहावरों का अतिक्रमण करती हुई संध्या नवोदिता कहती हैं, ‘‘मुझमें तलाश मत करो/एक आदर्श पत्नी/एक शरीर बिस्तर के लिए/एक मशीन वंशवृद्धि के लिए/मैं तुम्हारी साथी हूं/हर मोर्चे पर तुम्हारी संगिनी/शरीर के स्तर से उठकर/वैचारिक भूमि पर एक हों हम।’’ इसी कविता में वे आगे कहती हैं, ‘‘आओ हम लड़ें एक साथ... एक साथ बढ़ें मंजिल की ओर/जिस्म की शक्ल में नहीं/विचारधारा बनकर।’’ वे किस वैचारिक भूमि या किस विचारधारा की बात कर रही हैं, यह जानना जरूरी है। इसकी पड़ताल होती है, ‘‘देश-देश’’ कविता में जहां वे ऐलान करती हुई कहती हैं, ‘‘मैं लोहे का बना बस्तर हूं/उड़ीसा के लाल कोयले की धधक रही आग हूं। दंडकारण्य का साहसी चौड़ा सीना हूं/अबूझमाड़ में धधकता दिल हूं... मैं बेलाडिला की खदान हूं/जिस पर चढ़ बैठे हैं सभ्य सौदागर/जिनका मुंह मेरे बच्चों के लहू से सना है।’’ ‘‘मैं अंधेरे के गीतों का दस्तावेज हूं/दो हजार दो का जलता गुजरात हूं/फिर भी मैं अशफाक हूं, भगत हू, सुखदेव हूं/राजगुरु और आज़ाद हूं।’’ संध्या नवोदिता का साफ-साफ कहना है कि यह देश जो अपने खेतों में झूमता था वही देश’’ डेढ़ सौ खंम्भों वाली एक विशालकाय गोल इमारत में कैद हो गया है।’’ यह लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप को लेकर उठाया गया एकदम सटीक सवाल है जिसका जवाब इस देश की संसद को देना होगा। लेकिन वह जवाब नहीं देगा यह सब जानते हैं। वे तो अदालतों को भी जवाब नहीं देते तो भला कविता को क्या जवाब देंगे।

इन कविताओं के अलावा संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं जिनका स्वर राजनीतिक है जिनमें से कुछ हैं, मैं दुख बोती हूं, आज हम मौन रहेंगे, चिनुआ अचेबे के नाम, आरे के पेड़ कटते हैं, औरतें आदि। इतिहास के किसी भी समय से अधिक आज स्त्रियां कविता लिख रही हैं साथ ही किसी भी समय से अधिक उनका स्वर राजनीतिक है। वे अपने स्त्री होने को स्त्री-देह तक सीमित करने को तैयार नहीं। ‘औरतें’ कविता में वे कहती हैं, ‘लाल तारे से लेती हैं थोड़ी सी ऊर्जा/...फिर एक युग की यात्रा के लिए/तैयार हो रही हैं औरतें।’ यहां व्यक्त शब्दावली ‘लाल तारा’ का आशय समझना होगा।

‘सुनो जोगी और अन्य कविताएं’ पर बात हो रही हो और जोगी पर बात न हो तो यह न्यायसंगत नहीं कहा जाएगा लेकिन मैं कर ही क्या सकता हूं। ये इतनी सशक्त कविताएं हैं कि मेरे लिए आसान नहीं था इन्हें छोड़कर आगे बढ़ना। यह समझना थोड़ा मुश्किल है कि कवि ने आखिर इन कविताओं को ‘अन्य कविताएं’ के खाते में क्यों डाला। कायदे से संग्रह का नाम ‘औरतें एवं सुनो जोगी शृंखला की कविताएं’ होना चाहिए था या इन दो अलग तरह की कविताओं को दो अलग अलग संग्रहों में बांट देना चाहिए था।

सुनो जोगी और अन्य कविताएं

संध्या नवोदिता

प्रकाशन | लोकभारती

पृष्ठ: 158 |मूल्य: 299 रुपये

 

 

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