जब कोई ऐतिहासिक घटना समय के साथ महज राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का मुद्दा बनकर रह जाए, तब उसे एक अस्थापित लोकेशन से याद करना उस पर रचे गए विपुल साहित्य में एक अहम योगदान की गुंजाइश बनाता है। सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगों पर कोलकाता के सेतु प्रकाशनी से छपी परमजीत सिंह की किताब "मैं क्यूं जाऊं अपने शहर" ऐसी ही एक कहानी है। यह ऐसे वक्त में आई है जब सिख-विरोधी दंगों को चालीस बरस पूरे हो रहे हैं।
देखने में यह किताब फिक्शन जान पड़ती है, लेकिन प्रो. जगमोहन सिंह (शहीद भगत सिंह के भांजे) की लिखी भूमिका से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह लेखक के निजी तजुर्बे पर आधारित एक संस्मरण है। यह संस्मरण तत्कालीन बिहार के डाल्टनगंज से चौरासी में विस्थापित हुए ऐसे सिख परिवारों की दास्तान कहता है जो आजादी के पहले से वहां बसे हुए थे। लेखक ऐसे ही एक सिख परिवार का सदस्य है, जो बाद में पंजाब आ गया और वहां उसे पुलिस की ज्यादती का शिकार होना पड़ा। ऐसे और कई किरदार लेखक के रिश्तेदार और मित्रों के रूप में हमारे सामने आते हैं। कहानी की लोकेशन डाल्टनगंज होने के नाते चौरासी के दंगों पर एक नया नैरेटिव पाठक के सामने खुलता है, जो मूलतः सामाजिक-राजनीतिक है।
किताब में प्रूफ और संपादन की भारी गलतियां हैं, इसके बावजूद कहानी का कंटेंट महत्वपूर्ण है। यह हमें दंगे के एक पीड़ित की पैनी राजनीतिक दृष्टि से परिचित करवाता है।
मैं क्यूं जाऊं अपने शहर
परमजीत सिंह
प्रकाशक | सेतु प्रकाशन
पृष्ठ: 136 | कीमतः 175 रु.