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पुस्तक समीक्षाः स्मृतियों का कोलाज

वर्तमान समय से टकरा कर रची गई कविताएं
पुस्तक समीक्षा

वंशी माहेश्वरी भारतीय और विश्व कविता की हिंदी अनुवाद की पत्रिका तनाव लगभग पचास वर्षों से निकालते रहे हैं। सक्षम कवि ने अपने कवि रूप को पीछे रखा और बिना किसी प्रचार-प्रसार के निरंतर काव्य-सजृन करते रहे हैं।

नए संग्रह की कविताएं वर्तमान समय से टकरा कर रची गई हैं। कोरोना जैसी महामारी के भयानक दृश्य उसमें मौजदू हैं, जीवन की अनेक स्मृतियों का कोलॉज भी उनकी कविताओं के विषय हैं। कोरोना की मर्मांतक दृश्यावलियां इस सग्रंह में केंद्रीय स्थान घेरती हैं। आदमी देखते ही देखते कैसे दृश्य से अदृश्य हो छाया बन जाता है: “अदृश्य छाया प्रार्थनार्थ-अनुष्‍ठान, मंत्रोचार की हवन शाला है।” या “निस्पदिंत शव/ अंतिम सांसें थामे/देखते हैं आकाश/ आकाश का नीलापन और स्याह हो जाता है।” उस समय निराशा की स्थितियां इतनी गहरी हो गईं: “रात इतनी लंबी हो चली/ इन दिनों/ लालिमा तो फूटती है/ सुबह नहीं होती।” यह दुख वंशी की कविता का स्थाई भाव है। उसकी अतंर्लय किसी न किसी रूप में चाहे अनचाहे इस समय की कविता में आ ही जाती है।

भमूडंलीकरण के दौर से भी कवि अच्छी तरह वाकिफ है। आभासी दुनिया में सब मशगूल हैं। मीडिया को भी देख-गुन रहा है जो आज ‘तमाशबीनों की स्तुति’ भर बनकर रह गया है। विचार मानो स्थगित हो गए हैं। किताबों में ‘विचारों का सग्रंहालय बदं’ हो गया है। मीडिया और अतंर्जाल पर प्रस्तुत दृश्य या आभासी दुनिया ही आज की वास्तविकता बन गई है।

ऐसे में वर्तमान से विरत हो कवि अपने अतीत में विचरण करने लगता है। उसकी स्मृतियां उसे पुराने समय की कल्पनाओं या व्यतीत हुए समय के सपनों में ले जाती हैं। आज की एकांतिक स्थितियां उसे रास नहीं आतीं। जैसे ‘प्राचीन घर वाचनालय है’ कविता में: “प्राचीन घर /छोड़ कर चला जाना हुआ /भीतर ही भीतर घर चलता रहा /मिट्टी की निर्निमेष गंध /भरती रही मुझमें/स्मृति की क्यारी में/सुबह की ओस/झमाझम बारिश /ऋतुओं की चहलकदमी/ अपने ही ताप में तपा समय/ अंकुरित होता रहा - मुझमें।” कवि अपने किशोर और यौवन के समय बने घर में रमता अवश्य है: “दूर से ही/ वृद्ध आंखों की रोशनियों की बौछारों में/ भीगता रहा/ देखते ही/ घर की बांछें खिल गईं/ आंखों में/झरनेका उद्गम /कानों में/ विसर्जित शब्दों की प्रतिध्वनियां/बाहों में/ स्मृति के झूले/ पैरों में/ दौड़ता/ नदी के मुहाने तक फैला हरियल मैदान/मन में बहुत भीतर उनींदा आकाश जाग गया।”

कवि अपने आज के समय, आज के जीवन की वास्तविकताओं, चुनौतियों और विडंबनाओं, उससे जनित तनाव को भी नहीं भलूता। भले ही स्मृतियां, सपने, कल्पना का संसार उसे ललचाता हो पर वह जानता है: “बाहर/ हरियाली के ललाट पर/ हल्की-सी, ठिठकी-सी, मोती- सी /बंदूकों की लड़ियां सजी हैं/ कुछ ही पलों में जिसे/ हरेपन की स्मृति लिए/ बिखर जाना है।” कवि को बदले हुए मौसम, बदले हुए समाज का भान है। इसीलिए उसे: “बाहर! /भर्रा या आर्तनाद सुनाई देता है/सच का करुण चेहरा कांपता है/ आंखों के अंधेरेपन में गिरती है/ झठू की चिंगारियां/ पलकों पर जम जाती है/ बदलते मौसम की सनद।” दरअसल जैसा कि कहा गया हमारे इर्द-गिर्द आभासी दुनिया इतनी तेजी से पसर गई है कि पुराने समय-समाज के हरेभरे आंगन, बाग-बगीचे को वह तूफानी गति से उखाड़ती-पछाड़ती जा रही है। कवि इसे समझते हुए चेतावनी भरे शब्दों में कहता है: “खौफ-भरे/ सहमे-सहमे/ तमाम पक्षी/ दुबक पड़े कोटरों में/घोंसलों में, मनुष्‍यों की तरह।” साथ ही वह तूफान की गति को भी चेतावनी देते हुए कहता है: “सुनो! चक्रवात/ तुम में जो उठाती है/ दंभी लहरें/ ये सब हवाओं की फितरत है/ सभी हवाएं एकाकार होती हैं जब /रुख बदल कर/ झकझोर देती हैं अहमियत/पलक झपकते।”

वह स्मृतियों और सपनों में इसी के लिए विचरता है, बल्कि उसी में उसे सुकून पाता है। उसका विश्वास है: “दूर बहुत दूर/ उस सूखे पेड़ की आंखों में/ अभी भी/ हरे पत्तों का स्वप्न जाग रहा है। सूखे पत्तों की नसों में/ हरियाली का गीत” बह रहा है। सग्रंह में ऐसी अनेक कविताएं हैं जो आज के समय की विडंबनाओं-विद्रुपताओं पर प्रहार करती हैं। उसके बहुत सारे दृश्य इन कविताओं में मुखरित हैं। तिथि माहेश्‍वरी का आवरण चित्र भी संवेदना जगाता है।

स्मृतियों का कोलाज

हरिमोहन शर्मा

बर्फ में जमी आग

वंशी माहेश्‍वरी

प्रकाशक | संभावना प्रकाशन

पृष्‍ठ: 157 | कीमतः 250 रु.

 

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