ऐसे दौर में जब गांधी की राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति, सर्व धर्म समभाव सबसे देश काफी दूर जा चुका है, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का रंग-ढंग बदलता जा रहा है, समूचे इतिहास की तरह स्वतंत्रता संग्राम के पाठ में नई इबारत लिखी जा रही है, गांधी के छोटे-छोटे किस्सों को बच्चों के मन में उतारने की कोशिश वाकई मार्के की है। नौंवी कक्षा की छात्रा रेवा की ‘बापू की डगर’ समकालीन भारत में विरली कही जा सकती है।
किताब में उसके कहे अनुसार, घर में गांधी की चर्चा और शायद खबरों में गांधी के हत्यारों के महिमामंडन से उसके मन में महात्मा को जानने की जो इच्छा जागी तो छठी कक्षा से ही वह गांधी के जीवन की छोटी-छोटी अनोखी घटनाओं को दर्ज करने लगी। गांधी का जीवन और संघर्ष अनगिनत किस्सों का कुबेर का खजाना है और न जाने कितनी ही किताबें उन पर लिखी जा चुकी हैं। सभी किस्से ऐसे आदर्श और समाज तथा राजनीति की मिसालें हैं, जो आज के दौर में बेहद असंभव-से जान पड़ते हैं। तभी तो आइंस्टीन का वह कथन बार-बार सामने आ खड़ा हो जाता है कि आने वाली पीढि़यां भरोसा नहीं कर पाएंगी कि हाड़-मांस का ऐसा आदमी कभी धरती पर था।
जाहिर है, रेवा ने ये किस्से अपनी जानकारी के लिए दर्ज किए होंगे, लेकिन किताब की शक्ल में ये बेहद रोचक नैतिक संदेश देते हैं। चित्रांकन रोचक है। बच्चों ही नहीं, आज तो नौजवानों और बाकी लोगों को भी ये किस्से बहुत तरह की प्रेरणाएं दे सकते हैं।
बापू की डगर
रेवा बबेले
प्रकाशक | मैनड्रेक पब्लिकेशन
पृष्ठ: 34 | कीमतः 599 रु.